साल 2015 में बीबीसी से बातचीत के दौरान छत्तीसगढ़ के तत्कालीन मुख्यमंत्री डॉक्टर रमनसिंह ने कहा था, 'नक्सली धरती माता के सपूत हैं और उनका मुख्य धारा में बच्चों की तरह स्वागत होगा.' उन्होंने यह बात वार्ता की संभावना के मद्देनजर कही थी. उनका यह कथन अनायास इसलिए याद आ रहा हैं, क्योंकि बस्तर में केन्द्र व राज्य सरकार का नक्सलियों के खिलाफ जो चौतरफा अभियान चल रहा है, उसका एक महत्वपूर्ण हिस्सा नक्सलियों को मुख्य धारा में लाना भी है.
रमनसिंह की सरकार में सबसे ज्यादा नक्सली हिंसा का उग्र रूप दिखा
रमनसिंह मौजूदा समय में प्रदेश विधानसभा के अध्यक्ष हैं. उन्होंने 2003 से 2018 तक मुख्यमंत्री के रूप मे प्रदेश की भाजपा सरकार का नेतृत्व किया था. 15 वर्षों के उनके कार्यकाल में यद्यपि प्रदेश की अच्छी प्रगति हुई, लेकिन बस्तर में नक्सली हिंसा का सर्वाधिक उग्र रूप उन्हीं के शासनकाल में नज़र आया.
नक्सलियों को भी जान-माल की भारी क्षति पहुंची, किन्तु वे समाप्त नहीं हुए. हिंसा का दौर जारी रहा. मुठभेड़ों में दोनों पक्षों के मृतकों का आंकड़ा भी बढ़ता गया. हालांकि इस दौर में समझौता वार्ता के अनेक प्रयत्न भी हुए पर वे असफल रहे.
कानून व्यवस्था को चुनौती देती रहीं नक्सली घटनाएं
आपसी विश्वास का अभाव व अव्यावहारिक शर्तों के कारण बात नहीं बनीं. केवल सरकार की ओर से बयान आते रहे और तो और नक्सलियों को पुचकारने की दृष्टि से रमन सिंह ने उनके बारे में यहां तक कह डाला कि वे भारत माता के सपूत हैं और आत्मसमर्पण करने पर उनका वैसा ही स्वागत होगा जैसे कि बच्चों का होता है. किंतु वार्ता के अभाव में यह नहीं हो पाया. बस्तर में नक्सली आतंक व हिंसक घटनाएं कानून व्यवस्था को चुनौती देती रहीं, लेकिन अब स्थितियां भिन्न है. 2014 से 2018 तक केन्द्र व राज्य में भाजपा की डबल इंजिन की सरकार रहने के बावजूद नक्सल मोर्चे पर वैसी प्रतिबद्धता नहीं दिखाई पड़ी जो अब पुनः डबल इंजिन सरकार के रहते नज़र आ रही है.
शाह ने तीन साल में छत्तीसगढ़ से नक्सलवाद को खत्म करने का किया ऐलान
राज्य में विष्णुदेव साय के नेतृत्व में नई सरकार गठित हुए अभी छह महीने ही हुए हैं. सरकार बनते ही केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने यह ऐलान किया कि तीन साल के भीतर यानी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के तीसरे कार्यकाल में छत्तीसगढ़ से नक्सलवाद व देश से आतंकवाद का खात्मा हो जाएगा. इस संकल्प के साथ ही राज्य में नक्सलियों के सफाए के गंभीर प्रयास शुरू हुए .
डिप्टी सीएम विजय शर्मा ने एक नई पहल के तहत नक्सलियों को आमने-सामने की बातचीत के अलावा वीडियो कान्फ्रेंसिंग का भी प्रस्ताव दिया. किंतु सशर्त वार्ता के प्रस्ताव के बाद भी सरकार ने नक्सलियों पर दबाव बनाने, उनके पनाहगाह में घुसकर उन्हें मारने, ग्रामीण विकास का दायरा बढ़ाने व जगह-जगह पुलिस कैम्प स्थापित करने की नीति कायम रखी. इस नीति का परिणाम मुठभेड़ों में मारे गए नक्सलियों की संख्या है.
लगातार सफलता से उत्साहित सरकार अब कमज़ोर पड़ चुके नक्सली संगठनों पर इतना दबाव बनाना चाहती है ताकि उनके लड़ाके या तो हथियार डाल दें या सुरक्षा बलों की गोलियों से मरने के लिए तैयार रहें. सरकार को विश्वास है कि बंदूकों के दम पर समूचा बस्तर संभाग नक्सल हिंसा से मुक्त हो जाएगा. क्या यह उसका अति आत्मविश्वास है? क्या शांति वार्ता की पेशकश महज कागजी और फर्जी थी जैसा कि नक्सलियों का आरोप है. गृह मंत्री विजय शर्मा के जनवरी में रखे गए इस प्रस्ताव का 8 फरवरी को दंडकारण्य स्पेशल जोनल कमेटी ने स्वागत किया, किंतु सरकार की नीयत पर संदेह भी जाहिर किया गया था.
नक्सलियों को लिए आत्मसमर्पण और पुनर्वास नीति लाया गया
करीब एक माह बाद दंडकारण्य कमेटी ने अपने प्रेस नोट में पुनः वार्ता की सरकारी पेशकश को बोगस करार दिया. राज्य सरकार की ओर से कभी यह स्पष्ट नहीं किया गया कि यदि वह इस मामले में गंभीर है तो इस दिशा में उसके क्या प्रयत्न चल रहे हैं? शांति वार्ता का प्रारूप तैयार हुआ या नहीं, मध्यस्थता के लिए कोई कमेटी बनी अथवा नहीं? इस बारे में कोई जानकारी नहीं दी गई, बल्कि 22 मई को जगदलपुर में डिप्टी सीएम विजय शर्मा ने मीडिया से बातचीत के दौरान आधिकारिक तौर पर बताया कि छत्तीसगढ़ शासन ने नक्सलियों के लिए आत्मसमर्पण व पुनर्वास नीति को अपग्रेड करने की कवायद शुरू कर दी है.
सरकार की पुनर्वास नीति नई नहीं है. रमन सरकार के समय से ही यह चल रही है पर इसकी तुलना में आंध्र प्रदेश अधिक बेहतर है, इसीलिए बीते महीनों में वहां कुछ बड़े व ईनामी नक्सलियों ने आत्मसमर्पण किया. छत्तीसगढ़ की पुनर्वास नीति एवं उसके परिपालन में बड़ा लोच रहा है. लिहाजा यहां सक्रिय माओवादी कमांडरों में उसके प्रति आकर्षण नहीं है. तीन वर्षों में बस्तर में एक हजार से अधिक नक्सलियों ने आत्मसमर्पण किया, जिनमें कोई भी बड़ा नाम शामिल नहीं था. अब इस दिशा में सरकार की नई पहल कितनी कारगर सिद्ध होगी, यह कहना फिलहाल मुश्किल है, किंतु यह बहुत स्पष्ट है कि केंद्र व राज्य सरकार ने नक्सलवाद व नक्सलियों के खात्मे का पक्का बंदोबस्त कर लिया है. इसका अर्थ है शांति वार्ता की पेशकश नेपथ्य में चली गई है फलतः आरपार की इस लड़ाई में बस्तर मे हिंसा बढने की आशंका है.
दिवाकर मुक्तिबोध छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ पत्रकार हैं और राज्य की राजनीति की गहरी समझ रखते है.
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.
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