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सागर की कांधे वाली काली: 121 सालों से अटूट परंपरा, भक्तों के कंधों पर सवार होकर विसर्जन को जाती हैं मां जगदंबा

Navratri 2025: ब्रिटिश शासन काल से सागर के पुरव्याऊ टौरी पर कांधे वाली काली की प्रतिमा विराज रही हैं. यहां मां जगदंबा भक्तों के कंधों पर सवार होकर विसर्जन के लिए जाती हैं. इस दौरान शहर के हर व्यक्ति की आंखें नम हो जाती हैं.

सागर की कांधे वाली काली: 121 सालों से अटूट परंपरा, भक्तों के कंधों पर सवार होकर विसर्जन को जाती हैं मां जगदंबा

Sagar Kandhe Wali Kali: ब्रिटिश शासनकाल से चली आ रही परंपरा आज भी जीवित है. सागर के पुरव्याऊ टौरी पर स्थापित कांधे वाली काली की प्रतिमा पिछले 121 वर्षों से भक्तों की आस्था का केंद्र बनी हुई है. यहां 1905 में मूर्तिकार हीरासिंह राजपूत ने सबसे पहली बार मां दुर्गा को महिषासुर मर्दिनी के स्वरूप में विराजमान किया था. उसी समय से हर साल शारदीय नवरात्र परंपरा के अनुसार माता की प्रतिमा स्थापित की जाती है और विसर्जन तक भव्य आयोजन चलता है.

मिट्टी और हाथ से बनी श्रृंगार सामग्री

इस प्रतिमा की सबसे खास बात यह है कि इसके निर्माण में आज तक किसी भी तरह के केमिकल का उपयोग नहीं किया गया है. मूर्तिकारों की टीम मिट्टी, वाटर कलर और हाथ से बनी श्रृंगार सामग्री से मां का अलौकिक स्वरूप रचती है. माता को पारंपरिक मराठी साड़ी और 121 साल पुरानी पायल पहनाई जाती है. ज्वेलरी, मुकुट और अन्य सामग्री भी समिति के सदस्य स्वयं बनाते हैं.

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कोरोना काल में भी नहीं टूटी परंपरा

श्री सार्वदेशिक दुर्गा महोत्सव समिति, पुरव्याऊ टौरी के अध्यक्ष राजेंद्र सिंह राजपूत बताते हैं कि 120 वर्षों में मां के स्वरूप में कोई बदलाव नहीं किया गया है. शताब्दी वर्ष के अवसर पर आयोजन को भव्यता दी गई थी. कोरोना काल में भी माता की स्थापना की गई थी और भक्तों को ऑनलाइन दर्शन एवं आरती का अवसर दिया गया था.

भक्तों के कंधों पर सवार होकर होता है विसर्जन

यहां माता महिषासुर मर्दिनी के रूप में विराजती हैं. उनके साथ भगवान गणेश, महालक्ष्मी, मां सरस्वती और भगवान कार्तिकेय की भी स्थापना होती है. विशेष बात यह है कि माता की स्थापना और विसर्जन दोनों ही भक्तों के कंधों पर होती है. विसर्जन दिवस पर शहर में विशाल चल समारोह निकाला जाता है, जो पुरव्याऊ से तीनबत्ती, कटरा बाजार, राधा तिगड्ड़ा तक निकलता है. इस दौरान "चल माई काली माई" के जयकारों से पूरा शहर गूंज उठता है.

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पलीता की परंपरा 121 साल से जारी

चल समारोह के आगे आज भी मशाल (पलीता) चलाने की परंपरा निभाई जाती है. अध्यक्ष राजपूत बताते हैं कि पहले बिजली नहीं होने के कारण रोशनी के लिए पलीता जलाया जाता था. तभी से यह परंपरा शुरू हुई और आज भी उसी श्रद्धा के साथ निभाई जाती है.

हर साल विसर्जन के समय हजारों की संख्या में भक्तों की भीड़ उमड़ती है. माता के कंधों पर सवार होकर विसर्जन के दृश्य को देखकर हर आंख नम हो उठती है. यही वजह है कि कांधे वाली काली सागर ही नहीं, बल्कि आसपास के जिलों में भी आस्था का केंद्र बनी हुई हैं.

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