
100th death anniversary of Maharaja Madho Rao Scindia : 5 जून 2025 की सुबह जब भारत ने एक और दिन की शुरुआत की, तब कई संस्थानों, विचारकों और नागरिकों के मन में एक ऐतिहासिक स्मृति गहराई.आज से ठीक सौ वर्ष पूर्व, 1925 में, पेरिस की धरती पर ग्वालियर रियासत के शासक महाराजा माधो राव सिंधिया ने अंतिम सांस ली थी. एक सदी बीत चुकी है, लेकिन महाराजा माधो राव सिंधिया के विचार, उनके निर्णय और उनकी दूरदृष्टि आज भी न केवल शासन और समाज के इतिहास में जीवित हैं, बल्कि वे ग्वालियर-चंबल क्षेत्र और पूरे देश की विकास गाथा का अभिन्न हिस्सा बने हुए हैं.
उनके द्वारा आरंभ किए गए कार्यों की छाप आज भी जमीन पर साफ़ देखी जा सकती है. चाहे वह शिक्षा के क्षेत्र में स्थापित संस्थान हों, कृषि और सिंचाई में लाए गए सुधार हों या सामाजिक और आर्थिक विकास की पहलें.

महाराजा माधो राव सिंधिया के कार्य आज भी प्रेरणा का हैं स्त्रोत
उनका नेतृत्व केवल एक राजसी शासन नहीं था, बल्कि एक ऐसी यात्रा थी जिसने लोगों के जीवन को बेहतर बनाने का प्रयास किया. उनकी दूरदृष्टि ने भविष्य की जरूरतों को भांपकर आज के विकास के रास्ते खोल दिए. यही कारण है कि उनके योगदान को हम केवल इतिहास की किताबों में नहीं, बल्कि आज की सफलताओं में भी महसूस कर सकते हैं. महाराजा माधो राव सिंधिया के कार्य आज भी प्रेरणा देते हैं कि सच्चा नेतृत्व केवल सत्ता का उपयोग नहीं, बल्कि जनता के कल्याण और समाज के समग्र विकास के लिए संवेदनशीलता, दूरदृष्टि और सतत प्रयास का नाम होता है.
संवेदनशील शासन और सामाजिक उत्तरदायित्व के प्रतीक
महाराजा माधो राव सिंधिया केवल एक परंपरागत शासक नहीं थे, बल्कि शासन को एक दायित्व मानते थे, जिसमें जनता को सर्वोच्च स्थान मिला. उनके प्रशासन में दक्षता और मानवीय दृष्टिकोण का संयोजन उन्हें समकालीन शासकों से अलग करता है. औद्योगिक विकास, शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में उनकी पहलों की छाप आज भी अनेक स्थायी संस्थानों में देखी जा सकती है.
”राजकुमारों का अगुआ” और “इंडियन कार्नेगी” के रूप में प्रतिष्ठा

भरतपुर के महाराजा किशन सिंह ने उन्हें “राजकुमारों का अगुआ” कहा, जबकि टाइम्स ऑफ इंडिया ने “इंडियन कार्नेगी” की उपाधि दी. ये उपाधियां उनके कार्यों के प्रभाव का प्रमाण थीं. उनका शासन शिक्षा में नवाचार और स्वास्थ्य व्यवस्था के पुनर्गठन के लिए जाना जाता है. बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के संस्थापक मदन मोहन मालवीय ने भी उन्हें “जनसेवा में पिता-तुल्य” बताया. 1922 के असहयोग आंदोलन के दौरान, जब महात्मा गांधी अंग्रेजों के खिलाफ आंदोलन कर रहे थे, तब माधो राव सिंधिया ने अपने मंत्री सदाशिवराव पवार के माध्यम से आर्थिक सहायता भी भेजी, जो उनकी राष्ट्रवादी चेतना का प्रतीक बना.
संस्थागत विकास और सामाजिक सुधार
महाराजा माधो राव सिंधिया के शासनकाल में ग्वालियर व आसपास के क्षेत्रों में कई महत्वपूर्ण संस्थानों की स्थापना हुई, जैसे महारानी लक्ष्मीबाई कॉलेज,जयारोग्य अस्पताल, द सिंधिया स्कूल, दिल्ली परिवहन निगम और एनसीसी ट्रेनिंग अकादमी. उन्होंने कुल राजस्व का 20–25% भाग अनिवार्य बचत के रूप में संरक्षित किया, जिसे सिंचाई, शिक्षा और राहत योजनाओं में लगाया गया. प्रशासन में विकेंद्रीकरण की दिशा में पंचायत, जिला बोर्ड और नगरपालिका जैसी संस्थाओं की स्थापना भी उनकी महत्वपूर्ण उपलब्धि रही.
क्षेत्रीय विकास और आधारभूत संरचना
महाराजा माधो राव सिंधिया के समय ग्वालियर और उज्जैन में बाजारों का विस्तार, सड़कों का निर्माण और अन्य विकास परियोजनाएं चलाई गईं, जिससे स्थानीय क्षेत्रों का समग्र विकास सुनिश्चित हुआ.
औद्योगिकीकरण और शिक्षा में योगदान
1906 में उन्होंने ग्वालियर चैंबर ऑफ कॉमर्स की स्थापना की और टाटा स्टील जैसे उद्योगों को आर्थिक सहायता प्रदान की, जिससे राष्ट्रीय औद्योगीकरण को समर्थन मिला. शिक्षा को प्राथमिकता देते हुए वे बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के पहले प्रो-कुलपति बने और ऑक्सफोर्ड, कैम्ब्रिज व एडिनबर्ग जैसे विश्वविद्यालयों से मानद उपाधियां प्राप्त कीं. 1925 में पेरिस में उनका निधन हुआ, और उनकी अस्थियां बाद में शिवपुरी लाई गईं. 'द डेली टेलीग्राफ' ने उन्हें भारत के प्रगतिशील राजाओं में शुमार किया. उनका कार्यकाल परंपरागत राजशाही और आधुनिक प्रशासन के संतुलन का उदाहरण रहा.
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