
DRG soldiers: साल 2015 के बाद से अब तक छत्तीसगढ़ के अलग-अलग जिलों में सैकड़ों नक्सली ढेर हो चुके हैं...जिसमें बसवराजू जैसे सुप्रीम नक्सल लीडर भी शामिल हैं. नाम...जगह और लोग अलग-अलग हो सकते हैं लेकिन इन सारे एनकाउंटर में एक चीज कॉमन है. वो है DRG यानि डिस्ट्रिक्ट रिजर्व गार्ड. ये जंगल में नक्सलियों के काल हैं. ये छत्तीसगढ़ की सबसे घातक फोर्स है. साल 2015 में इसका गठन हुआ और उसके बाद से ही ये टीम नक्सलियों की नींद उड़ा रही है.बीते दिनों अबूझमाड़ में हुए सबसे बड़े एनकाउंटर ने साबित कर दिया कि नक्सलियों को मौत की नींद कोई सुला सकता है तो वो है DRG. ऐसे में सवाल उठता है कि डीआरजी है क्या, ये किस तरह काम करती है, डीआरजी किस रणनीति पर काम करती है? हमने ऐसे ही सवालों के जवाब तलाशने की कोशिश इस रिपोर्ट में की है.
2015 में बनी थी छत्तीसगढ़ की ये सबसे घातक फोर्स
नक्सलियों में पुलिस की DRG टीम का ऐसा खौफ है कि उनके नाम से ही लाल आतंक की रीढ़ कांप उठती है. इसकी ताज़ा बानगी मिली है अबूझमाड़ के जंगलों में जब 10 करोड़ रुपये का इनामी नक्सली बसवराजू पुलिस मुठभेड़ में मारा गया. उसके डेरे से बरामद हुई एक लाल डायरी बता रही है कि डीआरजी की दहशत नक्सली संगठन के अंदर तक पसरी हुई है. खुद बसवराजू ने अपनी डायरी में लाल रंग की स्याही से लिखा है — "प्रिय कामरेड, जहां भी हो छुप जाओ... डीआरजी फोर्स ढूंढकर मार देगी…" बसवराजू ने अपने साथियों को आगाह किया था कि डीआरजी सिर्फ तलाश नहीं करती, उसे टारगेट मिलते ही खत्म कर देती है. ये वही डीआरजी है जिसने पिछले कुछ महीनों में बस्तर ज़ोन में कई बड़े नक्सलियों को ढेर किया है. ये वो फोर्स है, जिससे नक्सली खौफ खाते हैं और वक्त गुजरने के साथ-साथ ये 'लाल आतंक' के सबसे बड़े काल बन गए हैं. छत्तीसगढ़ की ये सबसे घातक फोर्स साल 2015 में बनी थी. इसका मतलब है- मति, गति और न्यूनतम क्षति. सवाल उठता है कि DRG का प्रोफाइल क्या है?

"लाल आतंक DRG जवानों की वजह से खत्म होगा"
डीआरजी फोर्स के बारे में कुछ दिनों पहले भी राज्य के उपमुख्यमंत्री विजय शर्मा ने कहा था- पहले लगता था कि लाल आतंक ही सबसे बड़ा हो गया है, सरकारें छोटी हो गई हैं, लेकिन इस बार हमारे जवानों की भुजाओं की ताकत से साफ हो गया है कि बस्तर के गांव गांव तक विकास होगा, बस्तर के कोने-कोने तक भारत का संविधान लागू होगा, समूचे देश से ये सबसे बड़ा आतंक समाप्त हो जाएगा. ये सबकुछ हमारी DRG जवानों की वजह से संभव होगा. जाहिर है ऐसे में DRG के बारे में जानने की उत्सुकता बढ़ जाती है.
प्रभात कुमार के मुताबिक इन जवानों की ट्रेनिंग बेहद खास होती है. ये जवान गुरिल्ला वॉरफेयर, जंगल की रीडिंग, मैपिंग और बूबी ट्रैप में माहिर होते हैं. ये जब ऑपरेशन प्लान करते हैं तो नक्सली बैकफुट पर चले जाते हैं. DRG के जवान अबूझमाड़ के किसी भी जंगल में रात भर में 25 से 35 किमी तक भी चल सकते हैं. इनकी ट्रेनिंग का ही नतीजा है कि ऑपरेशन में इन्हें बेहद कम क्षति पहुंचती है.
नक्सलियों के लिए सबसे बड़ी चुनौती हैं ये
ट्रेनिंग के दौरान इन्हें बताया जाता है कि जंगल में कैसे लड़ना है? एंटि गोरिल्ला वारफेयर क्या है, कब तेज चलना है, कब धीरे चलना है, कितने दिन जंगल में रहना है और उसकी तैयारी कैसे करनी है. DRG के ही सदस्य और समर्पण किए हुए नक्सली मनोज (बदला हुआ नाम) बताते हैं कि ये जंगल के आदिवासी हैं. उन्हें पहाड़ कैसे चढ़ना है, जंगल में कैसे रहना है सब पता होता है. इसमें कई सारे सरेंडर नक्सली भी होते हैं, उनको इलाके के बार में पता होता है कि कौन सा रास्ता कहां गया है, पहाड़ी कहां है, पानी कहां मिलता है.
SP प्रभात कुमार बताते हैं कि जब हमारे डीआरजी के जवान ऑपरेशन पर नहीं होते हैं तो उनके हाथों में लैपटॉप, टैब होता है और वो ऑपरेशन की प्लानिंग करते हैं, मैप देखते हैं, टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल करते हैं और रणनीति बनाते हैं.
दूसरे शब्दों में कहें तो बस्तर के आदिवासियों की क्षमता आप इस बात से समझ सकते हैं कि इनका आप चाहे सदुपयोग करें या दुरुपयोग करें यह दोनों में अपनी सर्वोच्च ताकत लगते हैं इसका सशक्त उदाहरण है कि जब बस्तर का आदिवासी माओवादियों के बटालियन से जुड़े तो सरकार के सामने सबसे बड़ी चुनौती बनकर सामने आए, लेकिन जब वही आदिवासी सरकार की तरफ से DRG बना तो उसने ही माओवादियों के शीर्ष नेतृत्व को खत्म कर दिया.
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