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बृजमोहन ही क्यों ?

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Diwakar Muktibodh
  • विचार,
  • Updated:
    March 08, 2024 2:31 pm IST
    • Published On March 08, 2024 14:31 IST
    • Last Updated On March 08, 2024 14:31 IST

तो आखिरकार भारतीय जनता पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व ने छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ एवं लोकप्रिय नेता  बृजमोहन अग्रवाल को राज्य की राजनीति से बाहर करते हुए  दिल्ली ले जाने का निर्णय घोषित कर दिया है. केन्द्रीय चुनाव समिति ने दो मार्च को जारी अपनी पहली सूची में  जिन 195 उम्मीदवारों के नाम जाहिर किए थे, उनमें छत्तीसगढ़ की 11 सीटें भी शामिल हैं. बृजमोहन अग्रवाल को रायपुर लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र से प्रत्याशी बनाया गया है. रायपुर से लगातार आठ बार के विधायक व अविभाजित मध्यप्रदेश में सुंदर लाल पटवा सरकार व छत्तीसगढ़ में रमन सिंह की सरकार में मंत्री रह चुके बृजमोहन वर्तमान में विष्णुदेव साय सरकार में भी शिक्षा व संस्कृति मंत्री हैं. राज्य की भाजपा की सूची में वे एकमात्र मंत्री हैं जिन्हें लोकसभा की टिकिट दी गई है. बृजमोहन करीब 40-45 वर्ष के अपने राजनीतिक करियर में पहली बार लोकसभा चुनाव लड़ने जा रहे हैं. हालांकि यदि उनकी इच्छा पूछी जाए तो यही जवाब मिलेगा वे मन से इसके लिए तैयार नहीं है लेकिन पार्टी का आदेश सर्वोपरी मानते हुए  चुनाव  लड़ रहे हैं. वे  सिर्फ पांच-छह माह के अंतराल में दूसरी दफा चुनाव मैदान में उतरेंगे.उनके आभा मंडल को देखते हुए यह सीट उनके लिए बहुत आसान मानी जा रही है. वैसे भी रायपुर लोकसभा क्षेत्र भाजपा का अपराजेय किला है. रमेश बैस यहां से सात बार चुनाव जीत चुके हैं. इसलिए उनका  सांसद बनना तय है बशर्ते अप्रत्याशित रूप से कोई बड़ा उलटफेर न हो जाए .

अब सवाल है प्रदेश के तमाम वरिष्ठ पूर्व मंत्रियों,  विधायकों तथा जनाधार वाले नेताओं में से केन्द्रीय नेतृत्व ने रायपुर लोकसभाई सीट के लिए बृजमोहन अग्रवाल को ही क्यों चुना ? क्या महज इसलिए कि उन्होंने नवंबर 2023 के विधान सभा चुनाव में कांग्रेस के राजनेता व धर्म शास्त्री महंत रामसुंदर दास को 67 हजार से अधिक रिकॉर्ड मतों से पराजित किया था? क्या उनकी बंपर विजय  लोकसभा चुनाव लड़ने का ठोस कारण बन गई?

लेकिन  पिछला लोकसभा चुनाव तो नये नवेले सुनील सोनी ने सर्वाधिक मतों से जीतने का  कीर्तिमान स्थापित किया था.  60 प्रतिशत वोट हासिल करके उन्होंने  कांग्रेस के प्रत्याशी प्रमोद दुबे को 3 लाख 48 हजार 278 मतों से हराया था जबकि सोनी पहली बार  संसदीय चुनाव लड़ रहे थे. जाहिर है इस बिना पर वे टिकिट के हकदार थे लेकिन इसके बावजूद बृजमोहन को टिकिट दी गई. इस बात को भी नजरअंदाज कर दिया गया कि वे विष्णुदेव साय सरकार के ट्रबल शूटर हैं. नयी सरकार के पांच फरवरी से पांच मार्च तक चले प्रथम विधान सभा सत्र में बृजमोहन ने ही सरकार की ओर से मोर्चा संभाला था. हालांकि उनके द्वारा की गई दो-तीन घोषणाओं खासकर  47 नये व्याख्याताओं को नियुक्ति पत्र देने आ मामला सत्ता के इर्द-गिर्द के लोगों को पचा नहीं । इसे अपनी महत्ता स्थापित करने के प्रयास करने के रूप में देखा गया. बावजूद इसके यह कहना अधिक ठीक रहेगा कि साय सरकार की अनुभवहीन टीम में बृजमोहन एक तरह से प्रशिक्षक की भूमिका निभा रहे हैं.

बहरहाल इस सवाल का क्या जवाब हो सकता है कि बृजमोहन को लोकसभा चुनाव क्यों लड़वाया जा रहा है ? जवाब सीधा है- पार्टी उन्हें प्रदेश की  राजनीति से बाहर करके राष्ट्रीय राजनीति में लाना चाहती है. इसकी कोशिश पहले भी की जा चुकी थी किंतु पारिवारिक समस्या का हवाला देकर  बृजमोहन इससे बचते रहे लेकिन अब नेतृत्व के आदेश को मानने के अलावा कोई चारा नहीं है. वैसे बृजमोहन करीब 65 साल के हैं. हो सकता है यह उनका आखरी चुनाव हो. दरअसल भाजपा का केन्द्रीय नेतृत्व चाहता है कि उम्रदराज नेताओं जिन्होंने दीर्घ अवधि तक सत्ता का स्वाद चखा है तथा जो संगठन में भी उच्च पदों पर रहे हैं , के लिए कोई अलग भूमिका तय की जाए तथा युवाओं को अवसर दिया जाए.

राजनीतिक स्थितियों एवं परिणाम का ध्यान रखकर पार्टी धीरे-धीरे ऐसे नेताओं के पंख  कतर कर उन्हें  किनारे लगा रही है,  चुनावों में प्रयोग के रूप में नये लोगों को टिकिट देकर राजनीति की मुख्य धारा में लाने के प्रयास से न केवल अच्छे नतीजे आ रहे हैं बल्कि नयी टीम भी  तैयार हो रही है जो अपेक्षाकृत युवा है. चंद अपवादों को छोड़ दें तो बहुल से उदाहरण हैं जब नेतृत्व ने 65-70 पार  नेताओं की टिकिट काट दी अथवा उन्हें एक दायरे तक सीमित कर दिया.  

छत्तीसगढ में कई सीनियर नेता जो चुनाव हार चुके हैं या कई चुनाव जीतकर मंत्रिपरिषद में रह चुके हैं, अब सिर्फ  विधायक हैं. उनके स्थान पर ऐसे लोगों को मंत्री बना दिया गया जो पहली बार विधायक बने हैं .

राजधानी रायपुर के पूर्व मेयर व मौजूदा सांसद  सुनील सोनी का टिकिट काटकर बृजमोहन के सामने चुनौती पेश कर दी गई है कि वे इससे बेहतर करके दिखाएं . मुकाबले में कांग्रेस है जिसका उम्मीदवार अभी तय नहीं हुआ है. बृजमोहन को टिकिट मिलने के बाद पार्टी को नये सिरे से विचार करना पड़ रहा है. अब जातिगत समीकरण को पीछे छोड़ते हुए वह मैदान में ऐसा प्रत्याशी उतारना चाहती जो डटकर मुकाबला कर सके.  मुकाबला एकतरफ़ा भी हो सकता है और टफ भी, यह कांग्रेस के उम्मीदवार की क्षमता पर निर्भर है. बहरहाल लोकसभा चुनाव के बाद बृजमोहन अग्रवाल की राजनीति किस दिशा में आगे बढ़ेगी , यह वक्त ही बताएगा. उनका उपयोग किस तरह करना या नहीं करना , मोदी-शाह की जोड़ी पर निर्भर करेगा. फिलहाल यहमानकर चलना चाहिए कि राज्य की राजनीति में अब उनका हस्तक्षेप सीमित रहेगा. इसकी वजह से उन्होंने कार्यकर्ताओं व समर्थकों की जो विशाल फौज तैयार कर रखी है, उनकी अपेक्षाओं को पूरा करना या उन्हें बांधे रखना कठिन हो जाएगा.

दिवाकर मुक्तिबोध छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ पत्रकार हैं और राज्य की राजनीति की गहरी समझ रखते है.

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.

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