कहा जाता है कि विधानसभा चुनाव में मतदाताओं के मन की थाह लगाना काफी मुश्किल रहता है फिर भी चुनाव प्रचार के दौरान कभी-कभी हवा का रूख समझ में आने लगता है. मतदान के बाद होने वाले एक्जिट पोल भी काफी कुछ संकेत देते हैं. छत्तीसगढ़ के 2018 के विधानसभा चुनाव में भी संकेत मिलने लग गए थे कि राज्य में लगातार पंद्रह वर्षों तक सत्तारूढ़ रही भाजपा शासन के खिलाफ जोर की हवा बह रही है लेकिन यह हवा तेज अंधड़ बनकर प्रदेश भाजपा को रसातल में पहुंचा देगी ,यह कल्पना से परे था. लेकिन मतदाताओं ने गुपचुप तरीक़े से रमन सरकार के खिलाफ़ ऐसा गुस्सा उतारा कि 50 विधायकों की सरकार 15 पर आ गई. इस बार भी भूपेश बघेल की सरकार के बारे में यह उम्मीद की जा रही थी कि वह 2023 का भी चुनाव आराम से जीत जाएगी क्योंकि मतदान के तीन महीने पूर्व तक भाजपा मुकाबले में कही नहीं थी.
लेकिन क्या हुआ ? सब कुछ अप्रत्याशित, आश्चर्यजनक, अविश्वसनीय. भाजपा को उमंग व उत्साह से लबरेज करने वाले व कांग्रेस को स्तब्ध कर देने वाले परिणाम ! किसी को ज़रा भी अहसास नहीं था भीतर ही भीतर अदृश्य व खामोश लहर चल रही थी जो कि तीन दिसंबर को मतगणना के दिन ज्वालामुखी बनकर फूटने वाली थी. वह फूटी और उसका लावा कांग्रेस को बहा ले गया. पांच साल का राज एक झटके में खत्म हो गया. संज्ञा शून्य करने वाली इस भीषण पराजय के सदमे से उबरने के लिए पार्टी को वक्त लगेगा. और इस बीच उसे सोचना होगा कि आखिरकार उसकी जीती हुई बाजी के पलटने के मुख्य कारण क्या थे. और उससे चूक कहां हुई.
तीन दिसंबर को जिन चार राज्यों के विधानसभा चुनाव के परिणाम आए वे छत्तीसगढ़ के साथ मध्यप्रदेश कांग्रेस के लिए भी चौंकाने वाले थे. शिवराज सिंह चौहान की 18 वर्षों की सत्ता के विरोध में बना माहौल कब उसके पक्ष में बदल गया , किसी को अहसास ही नहीं हुआ. छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की पराजय अप्रत्याशित थी, वैसी ही शिवराज की भाजपा सरकार की रिकॉर्ड तोड़ जीत भी हैरान करने वाली रही. आखिरकार इन दोनों राज्यों की चुनावी राजनीति में भाजपा के प्रबंधन में ऐसी क्या खासियत थी जिससे कांग्रेस के सारे समीकरण गड़बड़ा गए ? कांग्रेस के लिए यह शोध का विषय होना चाहिए ताकि अगले चुनावों में इससे मुकाबला करने की उसकी तैयारी रहे.
इस गलतफहमी आखिर तक रही और जब वह चैतन्य हुई तब तक बाजी हाथ से जा चुकी थी. भाजपा का वह ट्रम्प कार्ड था महतारी वंदन योजना जिसके तहत महिलाओं के बैंक खाते में एक हजार रुपये महीना डालने का वायदा. कहा जाता है कि सुनियोजित ढंग से ग्रामीण क्षेत्रों की लगभग 50 लाख महिला मतदाताओं से फार्म भरवा लिए गए जो कांग्रेस के तमाम चुनावी वायदों की काट साबित हुए. धान की खरीदी प्रति एकड़ 21 क्विंटल तथा समर्थन मूल्य प्रति एकड़ 3100 रूपये की रकम एक मुश्त अदा करने के साथ ही भाजपा शासन के दौरान बचे हुए बोनस के भुगतान के वायदे ने रही सही कसर पूरी कर दी. और इस तरह कछुए ने अपनी धीमी व गुपचुप चाल से उस खरगोश को हरा दिया जो पांच साल तेज भागने के बाद ऐन चुनाव के समय बेफिक्र होकर गहरी नींद में सो गया था.
कांग्रेस की पराजय का एक और बडा़ कारण था उसका वह संगठन जो पूरे कार्यकाल में हवाई किले बनाता रहा. संगठन में अब निस्वार्थ भाव से कांग्रेस को जीने वाले जमीनी स्तर के कार्यकर्ताओं व नेताओं का नितांत अभाव है। सब के सब नेता हैं , कोई स्वयं को कार्यकर्ता समझने के लिए तैयार नहीं है. इसका नतीजा यह हुआ कि जवाबदेही के अभाव में संगठन खोखला होते चला गया और इस वजह से सरकार के साथ जिस सामंजस्य की जरूरत थी, वह नहीं रही। नतीजतन सरकार के अच्छे कामों का न तो प्रचार हुआ और न ही यह देखने की जरूरत समझी गई कि उनका समुचित लाभ लाभार्थियों को मिल रहा है अथवा नहीं. यह आश्चर्य की बात है कि ग्रामीण अर्थव्यवस्था को मजबूती देनी वाली दर्जनों योजनाओं के बावजूद राज्य के मतदाता ऐन चुनाव के समय विचलित क्यों हुए ? मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने पूरे जतन के साथ अपनी लोकरंजक छवि का निर्माण किया था और वाहवाही लूटी थी , वह चुनाव में प्रतिफल दिये बिना कैसे ढ़ह गई ?
बस्तर में भी लगभग यही हुआ. प्रदेश कांग्रेस के वर्तमान अध्यक्ष दीपक बैज व पूर्व अध्यक्ष मोहन मरकाम के परास्त होने के क्या कारण रहे ? सीधी व सरल बात यही है कि सरकार व संगठन के नेताओं ने जमीनी हकीकत को समझने की कोशिश नहीं की तथा हवा में उड़ते रहे।
निश्चित रूप से भाजपा की यह बड़ी रणनीतिक विजय हैं. उसके चुनाव प्रबंधन ने एक बार पुनः साबित कर दिया कि उसका कोई तोड़ नहीं है. हारती हुई बाजी को जीतना उसे अच्छी तरह आता है और इसे उसने छत्तीसगढ़ व मध्यप्रदेश में साबित कर दिखाया. यकीनन मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ व राजस्थान विधानसभा चुनाव में उसकी जीत चार महीने बाद होने वाले लोकसभा चुनाव के संदर्भ में उसमें अतिरिक्त ऊर्जा का संचार करेगी जबकि कांग्रेस की राह और कठिन हो गई है.