गजब है लोकतंत्र की ‘ड्राइविंग पोज़िशन’ ! जब तक साहब गाड़ी में न बैठें एक पैर अंदर और दूसरा बाहर क्यों?

आपने अक्सर देखा होगा...कोई सरकारी गाड़ी में कोई VVIP बैठा हो तो उनके उतरने या चढ़ने से पहले उनका ड्राइवर एक खास मुद्रा में दिखाई देता है. वो मुद्रा है- एक पैर गाड़ी के अंदर और दूसरा बाहर. ऐसा हर वीवीआईपी गाड़ी के साथ होता है...अब आप सोच रहे होंगे कि ये कोई नियम होगा. तो हम आपको बता दें कि ये कोई नियम नहीं है ये बस एक परंपरा है. लेकिन सवाल ये है कि आखिर कब तक अंग्रेजों की ये परंपरा चलेगी?

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 VVIP Culture: आपने अक्सर देखा होगा...किसी सरकारी गाड़ी में कोई VVIP बैठा हो तो उनके उतरने या चढ़ने से पहले उनका  ड्राइवर एक खास मुद्रा में दिखाई देता है. वो मुद्रा है- एक पैर गाड़ी के अंदर और दूसरा बाहर. ऐसा हर वीवीआईपी गाड़ी के साथ होता है...अब आप सोच रहे होंगे कि ये कोई नियम होगा. तो हम आपको बता दें कि ये कोई नियम नहीं, लेकिन परंपरा ऐसी बन गई है कि ड्राइवरों को इसे सम्मान की तरह निभाना सिखाया जाता है. पर सवाल ये है कि क्या ये सम्मान है या अब भी अफसरशाही में गुलामी की कोई झलक बाकी है? ड्राइवरों की इसी व्यथा और सिस्टम की परछाई को बयान करने की कोशिश कर रहे हैं हमारे संवाददाता अनुराग द्वारी इस खास रिपोर्ट में ...

75 साल बाद भी परंपरा के 'क्लच' में फंसा है सिस्टम 

 भारत की एक बड़ी विशेषता यही है कि यहां बदलाव की घोषणा तो हो जाती है, पर परंपराएं अपनी मर्जी से रिटायर नहीं होतीं. अब देखिये ना लाल बत्ती हटाने का ऐलान हुआ तो हमारे माननीय हूटर ले आए. हमने इसकी कहानी कई बार दिखाई-बताई. यहां तक की मुख्यमंत्री तक ने कहा पर मजाल है कि हूटर हिल जाए. अब एक अलग कहानी पर बात करते हैं. कहानी एक पैर अंदर और एक पैर बाहर रखने की.

'साहब' के कार में बैठने से पहले ड्राइवर को यूं ही एक बाहर और एक पैर अंदर रखकर खड़ा होना पड़ता है. सवाल ये है- आखिर ये कब तक?

जब कोई आईएएस या माननीय गाड़ी में बैठने लगें तो ड्राइवर की मुद्रा पर ध्यान दीजिएगा- एक पैर अंदर... एक बाहर... मानो शरीर हिंदुस्तान में है और आत्मा अभी भी ईस्ट इंडिया कंपनी की फाइल में अटकी पड़ी है.देखा जाए तो हमारे देश में ड्राइवर सिर्फ गाड़ी नहीं चलाते... वो अफसर की सत्ता, मंत्री की महिमा और सिस्टम की गुलामी तीनों के बोझ तले एक्सीलेरेटर दबाते हैं...और सीट से उठकर आत्मसम्मान पार्किंग में छोड़ आते हैं. अब इसे आप सम्मान कहें या गुलामी का ‘गारंटी कार्ड', ये तय ड्राइवर नहीं करता, ये तय करता है वो सिस्टम जो आज़ादी के 75 साल बाद भी परंपरा के ‘क्लच' में फंसा बैठा है.शासकीय-अर्धशासकीय वाहन चालक संघ के महामंत्री मनोज सिंह बताते हैं- हमारे प्रोटोकॉल का नियम है. VVIP के सम्मान में सीट छोड़ देते हैं लेकिन चूंकि गाड़ी से पूरी तरह नियंत्रण नहीं छोड़ सकते इसलिए एक पैर पर खड़े हो जाते हैं. दरअसल बात मंत्रियों की हो या IAS-IPS अफसरों की सभी के ड्राइवर्स को 1-2 साल की ट्रेनिंग दी जाती है. इसी ट्रेनिंग में हमें ऐसा करने के लिए बताया जाता है. 

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'साहब' आ रहे हैं तो देखिए ड्राइवर कैसे प्रोटोकॉल पालन करने के लिए तुरंत एक पांव बाहर रख रहा है.

2005 से नहीं हुई ड्राइवर की भर्ती

दरअसल  सम्मान तब तक शुभ होता है, जब तक उसमें स्वाभिमान की गंध हो पर जब सम्मान, ‘प्रोटोकॉल' बन जाए, और आत्मसम्मान, ‘ड्यूटी' के नीचे दब जाए तो वह न कर्तव्य रह जाता है, न संस्कृति. ऐसे ही एक ड्राइवर अशोक बाथम बताते हैं- हमारी ड्यूटी का कोई टाइम नहीं होता. 24-24 घंटे ड्यूटी करनी होती है. नींद आती है तो भी गाड़ी चलाते हैं. VVIP को फर्क नहीं पड़ता. संपतिया उइके के ड्राइवर मिर्चीलाल बताते हैं- वर्कलोड बहुत ज्यादा है. जो भर्ती स्वीकृत है उसे भी नहीं किया जा रहा है. हम भी इंसान हैं और हमारा शरीर भी थकता है. यहां ये बताना जरुरी हो जाता है कि राज्य में साल 2005 से स्टेट गैरेज में ड्राइवरों की भर्ती नहीं हुई है. मध्यप्रदेश स्टेट गैरेज में ड्राइवरों के 47 पद खाली हैं. चालक संघ के महामंत्री मनोज सिंह भी बताते हैं- स्टेट गैरेज में 2005 से एक भी नियुक्ति नहीं हुई है, हर मंत्री के यहां 2 वाहन चालक सरकारी होना ही चाहिए. 

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दरअसल सरकारी गाड़ियों को चलाने वाले ड्राइवर्स पर भारी वर्क लोड है. 2005 से नई भर्तियां भी नहीं हुई हैं.

सिस्टम आज भी क्लच-ब्रेक का फर्क नहीं समझा

ड्राइवरों के दर्द पर उप नेता प्रतिपक्ष हेमंत कटारे कहते हैं- हमने अंग्रेजों को तो भारत से भगा दिया लेकिन उनकी परंपरा का अब भी पालन कर रहे हैं. अपने आप को बड़ा दिखाने के लिए आज भी मध्यप्रदेश के लोकसेवक इसका पालन कर रहे हैं. जो गलत है. इस परंपरा को हर हालत में बंद किया जाना चाहिए. हेमंत जैसे ही विचार बीजेपी विधायक डॉ चिंतामणि मालवीय का भी है. वे कहते हैं- प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने आह्वान किया है कि गुलामी के सारे चिन्हों को मिटाना है. हम इसकी कोशिश भी कर रही हैं.ड्राइवर भी उतना ही सम्मानजनक है जितना अधिकारी फर्क सिर्फ दायित्व का है. डॉ चिंतामणि आगे ये भी कहते हैं-  गुलामी की कोई प्रथा है तो अफसरों को स्वंय ही छोड़ देना चाहिये. हम तो यही कहेंगे कि गुलामी के प्रतीक वही नहीं होते, जो इमारतों में दिखें...कभी-कभी वो आदतों में बस जाते हैं. एक समाज की परिपक्वता इसी में है कि वो आदतों का मूल्यांकन करे, और सम्मान को आत्म-सम्मान में बदले. तो अगली बार जब कोई अफसर गाड़ी में बैठे और ड्राइवर एक पैर अंदर, एक बाहर खड़ा दिखे, तो सोचिएगा-ये सिर्फ मुद्रा नहीं… ये लोकतंत्र की चाल है जो बार-बार फिसलती है, क्योंकि सिस्टम आज भी क्लच और ब्रेक में फर्क नहीं समझ पाया है. 
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