MP High Court: 'उच्च न्यायालय व जिला कोर्ट के बीच सामंत-गुलाम जैसे रिश्ते'- HC ने ऐसा क्यों कहा?

MP High Court: कोर्ट ने कहा कि, "जाति व्यवस्था" की छाया राज्य के न्यायिक ढाँचे में स्पष्ट दिखाई देती है, जहाँ उच्च न्यायालय के न्यायाधीश "सवर्ण हैं और ज़िला कोर्ट के जज शूद्र व दयनीय हैं.

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MP High Court: हाईकोर्ट की अहम टिप्पणी

MP High Court Comment: मध्य प्रदेश हाईकोर्ट की जबलपुर बेंच ने एक अहम टिप्पणी करते हुए कहा है कि "उच्च न्यायालय और जिला कोर्ट के बीच सामंत और गुलाम जैसे रिश्ते हैं." जस्टिस अतुल श्रीधरन व जस्टिस डीके पालीवाल की डिवीजन बेंच ने कहा कि "जिला न्यायालय के जज हाईकोर्ट जजों से मिलते हैं, तो उनकी बॉडी लैंग्वेज बिना रीढ़ की हड्डी वाले स्तनधारी की तरह गिड़गिड़ाने वाले शख्स जैसी होती है. हाईकोर्ट के जज खुद को सवर्ण व जिला न्यायालय के जजों को शूद्र समझते हैं." ये टिप्पणी व्यापमं केस से जुड़ी एक याचिका पर सुनवाई के दौरान की गई. ये याचिका भोपाल के पूर्व एससी-एसटी कोर्ट जज जगत मोहन चतुर्वेदी ने लगाई थी, उन्हें एक आरोपी को अग्रिम जमानत देने के बाद बर्खास्त किया गया था.

क्या है मामला?

2016 में एससी एसटी एक्ट की विशेष न्यायाधीश के रूप में भोपाल जिला अदालत में पदस्थ रहे जगत मोहन चतुर्वेदी पर आरोप लगा था कि 2015 में व्यापमं मामले के आरोपी कुछ छात्रों को उन्होंने अग्रिम जमानत दी. जबकि इसी मामले में अन्य आरोपियों की जमानत अर्जी निरस्त कर दी. अलग-अलग तथ्यों के चलते विभिन्न आदेश दिए. इस पर हाई कोर्ट प्रशासन ने उनके विरुद्ध कदाचरण की कार्रवाई करते हुए बर्खास्त कर दिया था.

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कोर्ट ने यह कहा

इस बार सुनवाई के बाद कोर्ट ने उच्च न्यायालय के जजों और जिला कोर्ट के न्यायाधीशों के बीच "निराशाजनक संबंध" की आलोचना की. इसे एक 'सामंत' और 'दास' के बीच का रिश्ता बताया. कोर्ट ने कहा कि एक "अहंकारी" उच्च न्यायालय छोटी-छोटी गलतियों के लिए "जिला न्यायपालिका को फटकार" लगाने की कोशिश करता है, जिससे जिला कोर्ट को दंड के  भय में रखा जाता है. हाईकोर्ट बेंच ने कहा कि इससे न्याय व्यवस्था प्रभावित होती है.

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हाईकोर्ट ने अपनी टिप्पणी में कहा कि "जिला कोर्ट के न्यायाधीश जब उच्च न्यायालय के जजों का अभिवादन करते हैं, तो उनकी शारीरिक भाषा, उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के सामने गिड़गिड़ाने जैसी होती है. जिससे जिला कोर्ट के न्यायाधीश बिना रीढ़ की हड्‌डी वाले स्तनधारियों की प्रजाति बन जाते हैं."

हाईकोर्ट ने कहा कि जिला कोर्ट के जजों द्वारा रेलवे प्लेटफॉर्म पर उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों से व्यक्तिगत रूप से मिलने और उनके लिए जलपान की सेवा करने के उदाहरण आम हैं. उच्च न्यायालय की रजिस्ट्री में प्रतिनियुक्ति पर आए जिला कोर्ट के न्यायाधीशों को उच्च न्यायालय के न्यायाधीश कभी भी बैठने की पेशकश नहीं करते हैं. जब कभी उन्हें ऐसा मौका मिलता भी है, तो वे उच्च न्यायालय के जज के सामने बैठने में हिचकिचाते हैं.

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राज्य में ज़िला कोर्ट और उच्च न्यायालय के बीच का रिश्ता एक-दूसरे के प्रति सम्मान पर आधारित नहीं है, बल्कि एक ऐसा रिश्ता है जहाँ एक द्वारा दूसरे के अवचेतन में जानबूझकर भय और हीनता की भावना भर दी जाती है.

कोर्ट ने कहा कि, "जाति व्यवस्था" की छाया राज्य के न्यायिक ढाँचे में स्पष्ट दिखाई देती है, जहाँ उच्च न्यायालय के न्यायाधीश "सवर्ण हैं और ज़िला कोर्ट के जज शूद्र व दयनीय हैं. इससे ज़िला कोर्ट मानसिक रूप से कमज़ोर हो जाती है, जो अंतत: उनके न्यायिक कार्यों में दिखती है. जहां सबसे योग्य मामलों में भी जमानत नहीं दी जाती, अभियोजन पक्ष को संदेह का लाभ देकर सबूतों के अभाव में दोषसिद्धि दर्ज की जाती है और आरोप ऐसे लगाए जाते हैं, मानो दोषमुक्त करने का अधिकार ही न हो. यह सब उनकी नौकरी बचाने के नाम पर होता है, जिसका खामियाजा इस मामले में याचिकाकर्ता को अलग तरह से सोचने और काम करने के कारण भुगतना पड़ा.

हाई कोर्ट ने कहा कि याचिकाकर्ता सेवानिवृत्त हो चुका है. उसके साथ हुए घोर अन्याय के कारण उसके पेंशन संबंधी लाभों को बहाल करने के निर्देश दिए जाते हैं. उसे सेवा समाप्ति की तिथि से लेकर सेवानिवृत्ति की तिथि तक का बकाया वेतन सात प्रतिशत ब्याज सहित दिया जाए. उसे समाज में जो अपमान सहना पड़ा, उसे देखते हुए उसे पांच लाख रुपये जुर्माना का भुगतान किया जाए.

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