Conversion in Bastar News: छत्तीसगढ़ के बस्तर संभाग में है अबूझमाड़ इलाका...ठीक इसी तरह यहां का जीवन भी अबूझ पहेली है. यहां का जीवन अक्सर परंपरा, आस्था और संघर्ष से आकार लेता है.लेकिन यहां के कई आदिवासी परिवारों, खासकर जो ईसाई धर्म का पालन करते हैं उनके लिए अपनों को अंतिम विदाई देना भी एक अबूझ संघर्ष बन गया है. इसका ताजा उदाहरण बस्तर के छिंदवाड़ा गांव का है. यहां इसी साल 7 जनवरी को रमेश बघेल नाम के युवक के पिता का निधन हुआ. रमेश के पिता सुभाष बघेल एक पादरी थे. पिता के निधन के बाद रमेश जब उन्हें दफनाने गए तो गांव वालों ने रोक दिया. विवाद इस कदर बढ़ा कि मामला देश की सर्वोच्च अदालत तक पहुंच गया.सोमवार को सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया कि उन्हें गांव से 30-35 किलोमीटर दूर जगदलपुर के कब्रिस्तान में दफनाना होगा .यानी एक बेटा अपने पिता को अपने ही गांव पुरखों की कब्र के पास नहीं दफना सका.
हालांकि सुप्रीम कोर्ट की दो न्यायाधीशों की पीठ इस फैसले पर विभाजित रही—एक न्यायाधीश ने उनके गांव में शव को दफनाने का समर्थन किया, जबकि दूसरे ने कहा कि अंतिम संस्कार उस कब्रिस्तान में होना चाहिए जो समुदाय के लिए आरक्षित है. हमारी ये ग्राउंड रिपोर्ट इस जवाब को ढूंढने की कोशिश है कि क्या इस तरह के कई मामलों में अदालती फैसले और सामाजिक हकीकत के बीच अंतर है. सवाल ये है कि क्या सामाजिक परिस्थितियां अक्सर उतनी सरल होतीं हैं, जो केवल तथ्यों के आधार पर दिखती हैं.
एक किसान की लड़ाई ने खींचा देश का ध्यान
NDTV की टीम पूरे विवाद का जायजा लेने के लिए छिंदावाड़ा गांव पहुंची क्योंकि बस्तर के इस शांत गांव में, एक किसान की लड़ाई ने पूरे देश का ध्यान अपनी ओर खींचा है. ये गांव आस्था, परंपरा और न्याय के तिराहे पर खड़ा है. यहां एक पादरी के शव पर जमकर सियासत हो रही है. इस पर कानूनी दलीलें गरम हैं और जिस शख्स का निधन हुआ उसका शव 3 हफ्ते से ठंडे फ्रीजर में पड़ा हुआ है. हमें यहां पता चला कि रमेश के पिता, सुभाष बघेल, एक स्थानीय पादरी थे, जिनका 7 जनवरी को निधन हो गया था. परिवार चाहता था उन्हें उनके पूर्वजों के पास उनके गांव के कब्रिस्तान में ही दफनाया जाए. लेकिन ये साधारण सी इच्छा एक बड़े विवाद में बदल गई.
रमेश ने बताया- इसलिए गया मैं सुप्रीम कोर्ट
स्वर्गीय सुभाष बघेल के बेटे रमेश बघेल बताते हैं कि इसी कब्रिस्तान में मेरे दादा और मेरी चाची का शव दफन है. हमें नहीं पता था यकायक कोई हमें मना कर देगा. विवाद हुआ तो पुलिस प्रशासन की टीम मौके पर पहुंची लेकिन उन लोगों ने भी गांव वालों का ही पक्ष लिया. इसलिए मैंने सोचा ये मेरे हक और अधिकारों का हनन है. इसके बाद ही मैं सुप्रीम कोर्ट पहुंचा.
बता दें कि रमेश के दादा लक्षेश्वर और उनके पिता सुभाष 1980 के दशक में ईसाई धर्म अपनाने वाले गांव के शुरुआती लोगों में थे, रमेश कहते हैं, पहले सब ठीक था ... लेकिन कुछ सालों से गांव में उनकी धार्मिक आस्था की वजह से रिश्ते ऐसे मुरझा गये कि उन्हें अपनी किराने की दुकान को बंद करना पड़ा. उनकी दुकान से कोई माचिस तक खरीद ले तो उसपर गांववाले 5100 रु. का जुर्माना लगा देते थे. हालत ये है कि उनके खेतों में काम करने के लिये मजदूर भी तैयार नहीं होते. हद ये है कि खुद पंचायत भी इस बात को मान रही है...
रामेश्वर नाग
पिछले साल भी ईश्वर नाग की मौत पर हुआ था बवाल
आपको ये भी बता दें कि छिंदावाड़ा गांव की आबादी 6,450 है, जिसमें 6,000 से ज्यादा लोग आदिवासी समुदाय से आते हैं, जबकि बाकी दलित महरा जाति के लोग हैं, जिसमें रमेश का परिवार भी शामिल है. परेशान करने वाली बात ये है कि रमेश का मामला पहला मामला नहीं है. इसी गांव के बिल्कुल मुहाने पर पदरपारा है.पिछले साल अक्टूबर में, गांव के मूल निवासी ईश्वर नाग की मौत सुकमा के टोंगपाल गांव में हुई और उनके चचेरे भाई जलदेव अंधकुरी ने वहां उनका अंतिम संस्कार किया, तो विवाद खड़ा हो गया .मामला इतना बढ़ा के उनके कई परिजनों को पुलिस ने 5 दिन तक हिरासत में रखा. गौरतलब है कि ये धारा 170 लगाई गई .ये धारा उस शख्स पर लगती है जो लोकसेवक का रूप धारण कर गलत काम करने की कोशिश करता है.
प्रेमदास अंधकुरी
पेसा कानून का है ये पेंच
छिंदवाड़ा में कल्हार, राउत, कुम्हार,मारिया, भतरा, हल्बा, धुरुवा जैसी कई जनजातियां और महारा जैसे अनुसूचित जाति के लोग रहते हैं, पंच पति, उपसरपंच कहते हैं ये ये सिर्फ धर्म का मुद्दा नहीं, बल्कि आदिवासी पहचान और उनके आरक्षण से भी जुड़ा है.पंचायत 5वीं अनुसूची की दलील भी देती है, ये भी बताती है कि राज्य में पंचायत नियमों के मुताबिक केवल चिन्हित स्थानों पर शव दफनाने की अनुमति दी जा सकती है .वो पेसा कानून का भी हवाला देते हैं. कई ग्रामीणों को लगता है कि ईसाई रीति-रिवाज उनकी पारंपरिक 'रूढ़ी परंपरा' के लिए खतरा हैं. वे बताते हैं कि 7 फरवरी 2024 को ग्राम सभा ने एक प्रस्ताव भी पारित कर दिया कि जो भी इस परंपरा को छोड़कर किसी अन्य धर्म को अपनाएगा, उसे गांव के कब्रिस्तान में जगह नहीं मिलेगी.
हमें कोई भड़का नहीं रहा: उपसरपंच
बता दें कि छिंदवाड़ा में लगभग 10 कब्रिस्तान हैं, जो अलग-अलग जातीय समूहों के लिए हैं .साल 2007 में रमेश के दादा लक्षेश्वर और 2015 में उनकी बुआ को ईसाई रीति-रिवाजों के साथ यहीं दफनाया गया था. उस समय कोई आपत्ति नहीं हुई लेकिन अब ग्राम सभा का 13-सूत्रीय प्रस्ताव जारी होने से तनाव है. गांव के उपसरपंच रामेश्वर नाग कहते हैं कि हमें बाहर से आकर कोई भड़का नहीं रहा है. जो लोग रूढ़ी प्रथा को छोड़ चुके हैं वो क्यों मरघट पर कब्जा करें. हमारे पास कोई अलग से जगह नहीं है. उनके कफन-दफन में पास्टर आएंगे और बाइबिल का पाठ होगा. इसलिए हम नहीं चाहते उन्हें हमारे कब्रिस्तान में जगह मिले. वे ये भी आरोप लगाते हैं कि वे लोग हमारे त्योहार में अड़ंगा डालते हैं. जैसे हमलोग जबतक त्योहार नहीं मनाते तब तक आम नहीं खाते हैं. लेकिन वे लोग आम तोड़ कर लाते हैं बेचना शुरू कर देते हैं जबतक हमारा त्योहार आता है आम खत्म , हमको मिलता नहीं है ये सारी बात हैं इससे हम बहुत नाराज हैं.
हालांकि ऐसा भी नहीं है कि गांव के सारे बहुसंख्यक इस भेदभाव का समर्थन करते हैं. कुछ तो हमारे कैमरे के सामने ही इस भेदभाव के खिलाफ उबल पड़े, खुद पंचायत के पंच भी इस फैसले से सहमत नहीं दिखे.
राजू राम
बस्तर में करीब 70% आदिवासी जनसंख्या
बस्तर, में लगभग 70% आदिवासी जनसंख्या है. यहां के लोग — गोंड, माड़िया, मुरिया, भतरा, हल्बा, और धुरवा — सब अपने पारंपरिक रीति-रिवाजों और धार्मिक आस्थाओं को संजोये रखते हैं. रास्ते में चलते हुए हम तीरथगढ़ के कब्रिस्तान में रुके यहां मुरिया जनजाति के लोग अपने परिजन के अंतिम संस्कार की तैयारी कर रहे थे. बगल में सोढ़ी जनजाति की कब्र सफेद रंग में थी . ... लोगों ने बताया वो थोड़ी दूर के रिश्तेदार हैं सोढ़ी हैं इसलिये कब्रिस्तान के बगल में जगह दी है.
कई बार शांति से भी समझौता होता है: SP शलभ सिन्हा
इस पूरे मामले में जिले के SP शलभ सिन्हा से भी हमने बात की. उन्होंने कहा- कई बार वहां शांति से समझौता हो जाता है, लेकिन कई बार ऐसा हुआ है कि ईसाई समुदाय के शव को लेकर ये कहा गया है कि जब शहर में कब्रिस्तान है तो वहां दफनाना चाहिए.यहां पेसा कानून लागू है ऐसे में जब तक कब्रगाह चिन्हित नहीं किया जाता तब तक दफना नहीं सकते. इसी बात को लेकर मुद्दा बनता है और विवाद होता है.
गांव वालों को उकसाया जा रहा है: भूपेन्द्र खोरा
दूसरी तरफ छत्तीसगढ़ प्रोग्रेसिव क्रिश्चियन एलायंस के संयोजक भूपेन्द्र खोरा का कहना है कि गांव वालों को उकसाया जा रहा है. उनको सिखाया जा रहा है कि कैसे दमन किया जाए. पहले ऐसा नहीं था. हम सब साथ में रहते थे. लेकिन जब से केंद्र में सत्ता परिवर्तन हुआ है तभी से मामला बिगड़ा है. उसके बाद जब राज्य में परिवर्तन हुआ तो यह सब समस्या देखने को मिल रही है.
ये बस्तर की अस्मिता का विषय है:महेश कश्यप
हालांकि बीजेपी के सांसद महेश कश्यप इससे इत्तेफाक नहीं रखते. उनका कहना है कि ये बीजेपी या किसी संगठन का विषय नहीं है, बस्तर की संस्कृति परंपरा और वहां की अस्मिता का विषय है. पहले लोग चीजों को समझते नहीं थे. मुगलों के 800 साल के शासन में भी यहां धर्मांतरण नहीं हुआ. 200 सालों तक अंग्रेज रहे तभी यहां धर्मपरिवर्तन नहीं हुआ. लेकिन अब हालात बदल रहे हैं. जिसे लेकर लोगों में कहीं न कहीं गुस्सा है. इसलिए वे सामने आकर कानून का सहारा लेकर इसे रोकने की कोशिश करेंगे. वैसे ये सच है कि ये सच है कि बस्तर में पांचवीं अनुसूची लागू है. यहां पंचायत एक्सटेंशन इन शेड्यूल एरिया यानी पेसा क़ानून लागू है. जिसके तहत ग्राम सभा की सहमति के बिना न फैक्ट्री लग सकती है, ना इबादत ई जा सकती है और ना ही कोई प्रार्थना भवन बनाया जा सकता है. यहां तक कि कोई आयोजन भी नहीं किया जा सकता.
सर्वोच्च अदालत का फैसला आया पर बंटा हुआ
दिलचस्प ये है कि छिंदबहार के ईश्वर कोर्राम के शव के मामले में हाई कोर्ट में जस्टिस राकेश मोहन पांडेय की पीठ ने अपने फ़ैसले की पहली पंक्ति में रामायण के युद्ध कांड के श्लोक का जिक्र किया था ...उन्होंने "मित्राणि धन धान्यानि प्रजानां सम्मतानिव, जननी जन्म भूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी" का उल्लेख करते हुए कहा कि मित्र, धन, धान्य आदि का संसार में बहुत अधिक सम्मान है. किन्तु माता और मातृभूमि का स्थान स्वर्ग से भी ऊपर है.उस वक्त ईश्वर के परिजनों को भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 के सम्मानपूर्वक अंतिम संस्कार का अधिकार मिला था. हालांकि यहां सुभाष बघेल के परिजनों की इच्छा के रास्ते कानून खड़ा हो गया है. इस मामले में सर्वोच्च अदालत का फैसला बंटा हुआ आया है. जिसमें एक न्यायधीश को लगा ये संविधान के अनुच्छेद 14 और 15 (1) का उल्लंघन है, जो कानून के समक्ष समानता और धर्म के आधार पर भेदभाव की सख्त मनाही की बात करता है, जो सर्म धर्म संभाव के खिलाफ है, वहीं दूसरे न्यायधीश का मानना था कानूनन कब्रगाह मनमाने ढंग से नहीं बनाई जा सकती .अंतिम संस्कार से जुड़े अधिकार संविधान के भाग 3 में संरक्षित हैं, लेकिन किसी को भी स्थान चुनने का असीमित अधिकार नहीं दिया जा सकता। अनुच्छेद 25 के तहत धर्म की स्वतंत्रता सार्वजनिक व्यवस्था के अधीन है और सरकार इससे जुड़े प्रावधान बना सकती है . इसीलिए सुभाष बघेल अपने गांव में नहीं बल्कि करकापाल के कब्रिस्तान में दफन हुए.
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