Ram Mandir Special: 'रामयुग' में किस हाल में है 'रामनामी' ? जानिए छत्तीसगढ़ के इन अनोखे 'राघव' भक्तों को

अयोध्या में भगवान राम की मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा की चर्चा पूरी दुनिया में हो रही है. इसकी तैयारियों के बीच छत्तीसगढ़ के एक ऐसे पंथ की भी चर्चा हो रही है जो करीब 135 सालों से रामभक्ति की अलग ही परंपरा निभा रहा है. राम में इनकी आस्था और संस्कृति विश्वभर में एक अलग ही मिसाल बन चुकी है. इस बेहद ही अनोखे पंथ का नाम है रामनामी पंथ

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Ramnami of Chhattisgarh: अयोध्या में भगवान राम की मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा की चर्चा पूरी दुनिया में हो रही है. इसकी तैयारियों के बीच छत्तीसगढ़ के  एक ऐसे पंथ की भी चर्चा हो रही है जो करीब 135 सालों से रामभक्ति की अलग ही परंपरा निभा रहा है. राम में इनकी आस्था और संस्कृति विश्वभर में एक अलग ही मिसाल बन चुकी है. उनकी हंसी में राम,खुशी में राम,सुख में राम,दु:ख में राम,राम खाना-राम ही पीना,राम ओढ़ना,राम ही बिछौना,राम ही रोना,राम ही गाना, राम ही पहनना,मन राम और तन भी राम ही बसे हैं. इस पंथ का नाम है रामनामी पंथ. उन्हें राम की पूजा के लिए मंदिर या मूर्ति की जरूरत नहीं होती, उनका तन ही मंदिर है...ऐसे में सवाल उठता है कि कैसी है इनकी अनोखी संस्कृति? भारत में इस 'रामयुग' में किस हाल में हैं राम के ये भक्त? देखिए एनडीटीवी की खास रिपोर्ट.  

आगे बढ़ने से पहले तिरहू राम से मिलिए...वे 42 वर्ष पहले की घटना को याद करते हुए कहते हैं कि कमाने-खाने के चक्कर में लगभग 40 साल तक मैं अपने माथे पर राम-राम नहीं लिखवा पाया था, लेकिन 40 साल की उम्र में पूरे चेहरे पर रामनाम लिखवाया. तब सुकून मिला. चंदलीडीह गांव में बने रामनामी कम्युनिटी सेंटर के बाहर पेड़ के नीचे बैठे तिरहू कहते हैं- हमारा शरीर ही मंदिर है, हमें पूजा के लिए किसी मंदिर या मूर्ति की जरूरत नहीं है.

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पूरे शरीर पर राम नाम गुदवाना इस पंथ की परंपरा है. इनके जीवन में सबकुछ राम नाम ही है.

कैसे हुई रामनामी पंथ की शुरुआत?

रामनामी पंथ की शुरुआत किन परिस्थितियों में हुई, इसके कोई ठोस दस्तावेज नहीं हैं. लेकिन रामनामियों में एक आम सहमति है कि 1890 के दशक में जांजगीर-चांपा के एक गांव चारपारा में एक दलित युवक परशुराम द्वारा रामनामी संप्रदाय की स्थापना की गई. छत्तीसगढ़ रामनामी राम-राम भजन संस्था के सचिव गुलाराम रामनामी बताते हैं कि रामनामी एक विचारधारा है. हमारे पूर्वजों को मंदिर जाने से रोका गया, तब हमारे पूर्वजों ने अपने पूरे शरीर में राम का नाम का गोदना गोदवा लिया.1890 के आसपास रामनामी पंथ की शुरुआत परशुराम नामक युवक ने की थी. कुछ लोग परशुराम को भगवान का दूत भी मानते हैं.तब जातिगत भेद के कारण हम लोगों को मंदिरों में जाने से रोका जाता था.

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क्या कोई भी बन सकता है रामनामी?

रामनामी पंथ के लोग शरीर पर “राम-राम” का गुदना यानि स्थाई टैटू बनवाते हैं, राम-राम लिखे कपड़े धारण करते हैं,राम नाम लिखा मोर की पंख से बना मुकुट पहनते हैं, राम लिखा घुंघरू बजाते हैं, घरों की दीवारों पर राम-राम लिखवाते हैं, आपस में एक दूसरे का अभिवादन राम-राम कह कर करते हैं, यहां तक कि एक-दूसरे को राम-राम के नाम से ही पुकारते भी हैं. लेकिन क्या ऐसा करने से ही कोई भी रामनामी बन सकता है? इसके जवाब में गुलाराम कहते हैं

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रामनामी बनने के लिए आचरण भी वैसा ही होना चाहिए. मांस-मदिरा का सेवन त्यागना होगा, बुरे कर्मों की चेष्टा नहीं रखनी होगी,व्यसन से दूर होना होगा,किसी भी गलत काम में लिप्त नहीं होना होगा. रामनामी होना सिर्फ गोदना गुदवा लेना या राम-राम प्रिंट के कपड़े पहन लेना नहीं, बल्कि एक तपस्या है.

गुलाराम

रामनामी पंथ

रामनामियों के राम कौन हैं?

सनातन को मानने वालों में राम भक्ति को लेकर अपने अलग-अलग तर्क हैं, अलग तरीके हैं. ऐसे में बड़ा सवाल उठता है कि रामनामियों के राम कौन हैं? छत्तीसगढ़ रामनामी राम-राम भजन संस्था की अध्यक्ष 84 वर्षीय सेत बाई कहती हैं- हम मंदिर जाते हैं, लेकिन पूजा नहीं करते, हम रामभजी हैं, राम का नाम भजते हैं, राम हर जगह हैं, राम मुझमें हैं, राम आप में हैं, राम साथी में हैं राम हाथी में हैं. राम के लिए किसी विशेष जगह जाने की जरूरत नहीं हैं. ऊर्जा से भरी आवाज में सेत बाई कबिर का दोहा सुनाती हैं- 

कस्तूरी कुंडल बसे मृग ढ़ूँढ़ै बन माहि.

ऐसे घटी-घटी राम हैं दुनिया जानत नाँहि

जमीन पर बैठे बातें सुन रहे संप्रदाय के रामसिंह सुतिरकुली रामनामी कहते हैं- हमारे लिए राम ही सबकुछ हैं, राम हमारे पिता हैं, राम हमारे भगवान हैं. हमारे लिए राम अन्न हैं, पानी हैं, हवा हैं सबकुछ हैं.

शवों को जलाते नहीं हैं रामनामी

रामनामी गुलाराम बताते हैं कि हम मृत्यु के बाद हम शरीर को जलाते नहीं, बल्कि दफनाते हैं, क्योंकि शरीर पर राम-राम लिखा है, हम अपने सामने राम  को जलते हुए नहीं देख सकते, इसलिए ही हम दफनाते हैं, ताकि शरीर पंचतत्व में विलिन हो जाए.  

जातिगत व्यवस्था में दलित वर्ग से आने वाले रामनामी पंथ के लोग हिंदू धर्म को मानते हैं, लेकिन ये रामनामी जन्म से लेकर मृत्यु तक किसी उत्सव, विवाह या अन्य कर्मकांड के लिए शुभ मुहूर्त का इंतजार नहीं करते. सुख हो या दु:ख, राम का भजन गाते हैं और राम-राम जपते हैं. रामनामी मृत्यु के बाद हिंदु रीति-रिवाज और मान्यताओं के अनुसार शरीर को जलाते नहीं, बल्कि दफनाते हैं. हालांकि इसके पीछे कोई धार्मिक कारण नहीं बल्कि इनकी आस्था का एक रोचक तर्क है.

छत्तीसगढ़ के रामनामी संप्रदाय के लोगों ने मुश्किल परिस्थितियों में भी अपनी परंपराओं को कायम रखआ है.

लड़नी पड़ी अदालती लड़ाई

'कण-कण में बसे हैं राम-सबके अपने-अपने राम'....... राम पर आस्था को मजबूती देने में भले ही ये नारे प्रभावित करते हों, लेकिन यह एक स्याह सच है कि रामनामिवयों को अपने हिस्से के राम के लिए न सिर्फ सामाजिक प्रताड़ना झेलनी पड़ी बल्कि अदालती लड़ाई भी लड़नी पड़ी. सन 1912 में रामनामियों को रायपुर की कोर्ट से ऐतिहासिक जीत मिली.रामनामी पंथ के प्रवक्ता की भूमिका निभा रहे गुलाराम कहते हैं-

सवर्ण वर्ग के लोगों ने हमारे पूर्वजों के खिलाफ कोर्ट में केस किया, उन्होंने कहा कि ये निचली जाति के लोग हमारे राम को जपते हैं, इससे राम अपवित्र हो रहे हैं, इसके जवाब में हमारे पूर्वजों ने तर्क दिया कि जो अपवित्र हो जाए वो भगवान कैसे? हमारे पूर्वजों ने कहा कि आपके राम मंदिर या मूर्ति में होंगे, हमारे राम हर जगह हैं. 

आत्मनिर्भर भी हैं रामनामी

रामनामी अपने दैनिक उपयोग की वस्तुएं, मोर मुकुट को तैयार करने, कपड़ों पर राम नाम लिखने, शरीर पर राम नाम गुदवाने जैसे कठिन कार्य भी खुद ही करते हैं. इतना ही नहीं कपड़ों पर लिखने के लिए स्याही भी प्राकृतिक ढंग से खुद ही तैयार करते हैं. कपड़े पर राम-राम लिख रहे युवा कुंज बिहारी कहते हैं हम स्याही भी पेड़ की छाल से खुद ही तैयार करते हैं. इसके मोर के पंख से मुकुट खुद बनाते हैं. डिजाइन भी हम ही करते हैं. हम इसका व्यवस्याय नहीं करते सिर्फ अपने लिए उपयोग करते हैं. 

रामनामियों के लिए कितना बदला समाज?

जातिगत भेद-भाव के दंश से जन्मे भक्ति आंदोलन रामनामी अब एक संप्रदाय बन गया है. ऐसे में सवाल उठते हैं कि एक समय में अछूत माने जाने वाले रामनामियों को लेकर क्या सच में कोई सामाजिक परिवर्तन हुआ है? गुलाराम कहते हैं- लोकतांत्रिक व्यवस्था में बहुत परिवर्तन आया है, हमें मंदिरों में भजन के लिए बुलाया जाता है, अयोध्या के राम मंदिर के गर्भ गृह तक ले जाया गया, हमसे मिलने विदेश से भी लोग आते हैं, कई जगहों पर लोग हमारा पैर तक धोते हैं. बदलाव साफ नजर आता है. 

रामनामी पंथ के लोग इस तरीके से अपने चेहरों पर राम का नाम गुदवा कर रखते हैं

आधुनिकता का भी पड़ रहा है असर

आधुनिकता के असर से रामनामी भी अछूते नहीं है. सामाजिक परिवर्तन के साथ ही संप्रदाय के लोगों में भी परिवर्तन आया है. पहले सिर्फ खेती किसानी पर निर्भर रहने वाले रामनामी अब नौकरी की चाह भी रखते हैं. रहन-सहन भी बदल रहा है. पहले पूरे शरीर में राम-राम गुदवाने वाले रामनामियों की नई पीढ़ी अब हाथ में एक या दो जगह ही राम-राम गुदवा रही है. हालांकि इसके पीछे इनके अपने तर्क हैं. युवा रामनामी कुंज बिहारी कहते हैं- कई सरकारी नौकरियों में शरीर पर टैटू रहने से आवेदन का मौका नहीं मिलता, इसलिए युवा पीढ़ी टैटू बनवाने से बच रही है, लेकिन इसका ये मतलब नहीं है कि हम संप्रदाय से दूर हो रहे हैं.  


रामनामियों का दावा है कि शुरुआती दौर में इनकी संख्या लाखों में थी, लेकिन वर्तमान में जांजगीर,सक्ती,सारंगढ़,बलौदाबाजार,बिलासपुर जिले के कुछ गांवों में ही रामनामी संप्रदाय को मानने वाले मिलते हैं, जिनकी कुल संख्या 1000 के आसपास ही बची है. इस पर चिंता व्यक्त करते हुए सेती बाई कहती हैं- हमें अपने संप्रदाय को आगे बढ़ाना है, जो परंपरा हम निभाते आ रहे हैं, उसे आने वाली पीढ़ी भी निभाये इसके लिए काम करना है.

क्या है अयोध्या में प्राण प्रतिष्ठा कनेक्शन

रामनामी अपने संप्रदाय को एकजुट रखने और संरक्षण के लिए कई कार्यक्रम करते हैं, लेकिन इनका सबसे बड़ा आयोजन साल में एक विशेष तिथि को बड़ा मेला के नाम से होता है. ये मेला 115 सालों से निरंतर आयोजित हो रहा है. इसे नियती कहें या महज संयोग कि इसी विशेष तिथि को अयोध्या में राम की मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा की जा रही है. गुलाराम कहते हैं- बड़ा भजन मेला में हम विशेष कार्यक्रम करते हैं, संप्रदाय के सभी लोग इसमें भाग लेते हैं, 115 सालों से लगातार हम ये एक ही नक्षत्र पर हम ये आयोजन कर रहे हैं. अयोध्या में प्राण प्रतिष्ठा के लिए भी इसी तिथि को चुना गया.

रामनामियों पर उदासीन है सरकार

13 राम की भक्ति के अपने अनोखे तरीके के लिए रामनामियों को भले ही पूरे विश्व में अलग पहचान मिली हो, लेकिन रामनामी के संरक्षण और संवर्धन के लिए सरकारें उदासीन ही नजर आती हैं. 

रामनामियों की सबसे अधिक संख्या वाले सारंगढ़ जिले के चंदलीडीह गांव में पहुंचने के लिए पक्की सड़क नहीं है. रामनामियों का एकमात्र कम्युनिटी सेंटर झोपड़ीनुमा मकान में संचालित हो रहा है. बरसाती नालों से घिरा रामनामियों का गांव चंदलीडीह बारिश के दिनों में पूरी तरह कट जाता है.

प्राथमिक स्कूल है, जहां कक्षा पेड़ के नीचे लगती हैं. गांव में एक भी स्वास्थ्य केन्द्र नहीं है. रामनामियों के संरक्षण के लिए सरकार द्वारा प्रायोजित कोई भी शासकीय आयोजन नहीं होता है. गुलाराम रामनामी कहते हैं- रामनामियों के संरक्षण के लिए सरकार कुछ नहीं कर रही है, हमारी संख्या अब कुछ हजार तक ही सीमित हो गई है, राम के नाम पर सरकार करोड़ों रुपये खर्च कर रही है, लेकिन रामनामी जो उनकी अपनी धरोहर है, उसको संरक्षित करने कुछ नहीं किया जा रहा है.बहरहाल भारत में इस भक्ति युग में खुद की पहचान बचाए रखने की चिंता रामनामियों में दिखती है. फिर भी अपने-आप में अलग संस्कृति को समेट राम के ये अनोखे भक्त दिन से लेकर रात तक रामभजन गाते, राम की धुन में नाचते अस्त, व्यस्त और मस्त रहते हैं.

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