मध्यप्रदेश में आदिवासी समुदाय: वोट और सीट भी ज्यादा पर उम्मीदवार बेहद कम ! जानिए क्या है आंकड़े

देश में सर्वाधिक आदिवासी आबादी वाला राज्य झारखंड या छत्तीसगढ़ नहीं बल्कि मध्यप्रदेश है. लिहाजा यहां आदिवासियों को लेकर सियासत भी खूब होती है. यहां की कुल आबादी का 21 फीसदी इसी समुदाय से आती हैं और 230 सीटों में से 47 सीटें आदिवासी समुदाय के लिए बकायदा आरक्षित हैं. लेकिन मौजूदा विधानसभा चुनाव में इस समुदाय से उम्मीदवार बेहद कम हैं.

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Madhya Pradesh Assembly Election 2023: देश में सर्वाधिक आदिवासी आबादी (Tribal population)वाला राज्य झारखंड या छत्तीसगढ़ नहीं बल्कि मध्यप्रदेश है. लिहाजा यहां आदिवासियों को लेकर सियासत भी खूब होती है. यहां की कुल आबादी का 21 फीसदी इसी समुदाय से आती हैं और 230 सीटों में से 47 सीटें आदिवासी समुदाय के लिए बकायदा आरक्षित हैं. लेकिन मौजूदा विधानसभा चुनाव पर निगाह डालें तो एक अजीब बात सामने आती है. सूबे की रक्षित सीटों पर चुनावी मैदान में उतरने के लिए उम्मीदवारों में उत्साह सबसे कम है. कुछ लोग इसे जनजातीय क्षेत्र (tribal area)में चुनावी साक्षरता की कमी मान रहे हैं तो कुछ ये भी कह रहे हैं कि ये स्थिति मतों का विभाजन (division of votes)कम करने के लिए बनी है. बहरहाल पहले निगाह डाल लेते हैं कि जमीनी हकीकत क्या है?  

इसके साथ ही ये भी जान लेते हैं कि इन आरक्षित सीटों में से भी किन सीटों पर स्थिति और भी नाजुक है. भील और भिलाला जनजाति बहुल धार जिले की गंधवानी-एसटी पर सबसे कम 6 उम्मीदवार हैं- पिछले तीन चुनावों से ये सीट कांग्रेस के तेजतर्रार आदिवासी नेता और पूर्व मंत्री उमंग सिंघार (umang singhar) ने जीती है.जिन्होंने कुछ महीने पहले राज्य में आदिवासी सीएम की मांग उठाई थी.  

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हालांकि राज्य की दोनों ही बड़ी पार्टियां बीजेपी और कांग्रेस के पास इस स्थिति को लेकर अपने-अपने तर्क हैं. मसलन बीजेपी  प्रवक्ता पंकज चतुर्वेदी का कहना है कि जनजातीय क्षेत्र में किसी प्रकार की चुनावी साक्षरता की कमी नहीं है.

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ये बात सच है कि तुलनात्मक रूप से अन्य सीटों पर प्रत्याशियों की संख्या जनजातीय सीटों की अपेक्षा ज्यादा है. इन सीटों र 6,7,8 प्रत्याशी देखने को मिल रहे हैं तो इसकी वजह साक्षरता में कमी नहीं है. बल्कि ये उस क्षेत्र का फैसला हो सकता है कि प्रतिस्पर्धा कम हो.

पूरा आदिवासी समुदाय बीजेपी के विकास के पक्ष में वोट करेगा. दूसरी तरफ कांग्रेस के प्रवक्ता केके मिश्रा का कहना है कि आदिवासी मनोवैज्ञानिक तौर पर ज्यादा जागरूक हैं. इस बार आदिवासियों ने तय किया है कि उन्हें ट्राइबल विरोधी सरकार का हिसाब करना है. इसलिए वे अपने मतों का विभाजन नहीं करना चाहते. मुझे यकीन है कि शत प्रतिशत ट्राईबल माननीय कमलनाथ जी के चेहरे को देख रहा है क्योंकि वो ही उनका कल्याण कर सकते हैं. अब आदिवासी समुदाय में कम उम्मीदवारी की क्या असल वजह है इसका पता तो 3 दिसंबर के बाद ही चलेगा.

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