भारत भवन के अंतरंग में आने से पहले रिमझिम से एक अहसास था - सुरों में सराबोर होने का. इन कानों ने सुनने की तमीज़ जिनसे सीखी उनमें एक पंडित कुमार गंधर्व जो थे, हालांकि उस वक्त ये अहसास भी मुश्किल था कि कर्मभूमि कभी मालवा की मिट्टी के इतने करीब ले आएगी जहां कालजयी कुमार गंधर्व के होने के अहसास से खुद को भर लूंगा.
कदम दौड़ते हुए अंतरंग में दाख़िल हुए ... भुवनेश जी रियाज़ और श्रोताओं के रिवाज़ के बीच माइक को थोड़ा एडजस्ट करवाने की गुज़ारिश कर रहे थे तो कलापिनी जी श्रोताओं में कई गुणिजनों से आगे बैठने की ...
उद्घोषिका बता रही थीं कि गीतवर्षा में क्या क्रम होगा --- उनकी अपनी लय थे जिसमें उन्होंने कहा-जेठ की झुलसा देने वाली तपन के बाद आकाश में बादल नजर आते हैं ... लेकिन बिना बरसे चले जाते हैं ... और वहां से भुवनेश जी ने नयो नयो मेहा की तान छेड़ी ...
लोक और शास्त्रीय संगीत में तपिश,आषाढ़ और रुहानी सुकून. दरअसल 1978 में इस एल्बम में विदुषी वसुंधरा कोमकली और उनकी शिष्या मीरा राव जी तानपुरे पर थीं, ये याद कलापिनी जी ने भोपाल में भी प्रस्तुति से पहले छेड़ी, 29 जुलाई वसुंधरा जी की भी 8वीं पुण्यतिथि थी.

नयो नयो मेहा शुरू होते ही देवास यानि मालवा की मिट्टी शास्त्रीय परंपराओं को तोड़ते ही लेकिन उसका जो श्रवण सौंदर्य है वो क्लासिक के नियमों का मोहताज कहां वो आवाज़, तान और संगीत को बस मंत्रमुग्ध कर देता है. दरअसल भुवनेश और कलापिनी जी कुमार गंधर्व जी की उसी परंपरा को आगे बढ़ा रहे हैं जहां संगीत में तीज-त्यौहार, लोकाचार, मंगल गान बसते हैं ... वहां कबीर की गंभीरता है ... तो लोकपरंपराओं की हंसी ठिठोली भी ...मालवा में घाम पारे से आप गर्मी, झुलसाने वाले तपिश से जब आगे बढ़ते हैं मन में आषाढ़ के बादल घुमड़ने लगते हैं, बादल, पहली बूंद, बिजली सबकी चमक चमकाती है ... फिर मियां की मल्हार, सावनी, देस, मालवा की लोक धुनें सब घन-घन कर बरसने लगती हैं. फिर तो सावन की तीज का मालवी लोकगीत दुलारे बादल, मियां मल्हार में का रे मेघा, मालवी भजन तमे तो ग्वेरा का पूत गणेश, राग पीलूखमाज में ठुमरी मैं कैसे आऊं बालमा..., मालवी लोकगीत हो सायबा... और राग जलंधर बसंती में हीरा मोती निब्जे है... और गगनघटा... के साथ मन तृप्त हो गया.
. कुमार गंधर्व को जीवन भर संगीत के किसी न्यारे घर की तलाश रही। वे कबीर का यह प्रसिद्ध पद गाया करते थे– ‘वा घर सबसे न्यारा'। उनकी इसी तलाश ने वह संगीत रचा जो संगीत जगत में सबसे न्यारा है। जब कलाओं का घर ‘भारत भवन' भोपाल में स्थापित हुआ तो कुमार गंधर्व भी उसके न्यासी बने। राग के लक्षणों में एक न्यास स्वर भी होता है। भारत भवन भी तो साहित्य और कलाओं का एक मिश्र राग ही है जिसमें कुमार गंधर्व का न्यासी स्वर भी लगा।" ध्रुव शुक्ल जी की बात कितनी सटीक बैठी उन्होंने इसी लेख में लिखा था "आज भी कलाओं के इस घर की दीर्घाओं और कला संग्रहालयों में कुमार जी का मद्धिम संगीत गूंजता रहता है।"
कर्नाटक के बेलगांव में जन्मे कुमार जी शिवपुत्र सिद्धरामैया कोमकली थे, पुणे में सुर साधे लेकिन कुमार गंधर्व की यात्रा तपेदिक और मालवा के देवास में पूरी हुई. देवास में इलाज के दौरान मालवी लोकगीतों ने एक नया सृजन किया जिसमें शास्त्रीय, लोकगीत कबीर सब थे. शायद इसलिये नियति ने उन्हें देवास भेजा और सारे रसिकों ने सुना ‘उड़ जाएगा हंस अकेला' .... उनका ये मद्धिम संगीत इस कालजयी आयोजन में भारत भवन में गूंजता रहा.
(अनुराग द्वारी दो दशक से भी लम्बे करियर में फ्री प्रेस, ऑल इंडिया रेडियो, PTI, स्टार न्यूज़, BBC में काम कर चुके हैं और फिलहाल NDTV में बतौर स्थानीय संपादक कार्यरत हैं. शास्त्रीय संगीत में रुचि रखते हैं, तबले में प्रभाकर के साथ-साथ हॉकी में भी राष्ट्रीय स्तर पर खेल चुके हैं)
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