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राष्ट्र चेतना का हुंकार-जनजातीय गौरव दिवस

Prashant Pole
  • विचार,
  • Updated:
    नवंबर 15, 2024 16:53 pm IST
    • Published On नवंबर 15, 2024 11:50 am IST
    • Last Updated On नवंबर 15, 2024 16:53 pm IST

आज बडा सुखद संयोग बन रहा हैं कि गुरु नानक देव जी की 555वीं जयंती, प्रकाश पर्व, के दिन ही, राष्ट्रीय जनचेतना के प्रतीक, बिरसा मुंडा जी की 149वीं जयंती है. हम इसे ‘जनजातीय गौरव दिवस' के रूप में मना रहे हैं. आज से उनका ‘सार्ध शती वर्ष' प्रारंभ हो रहा हैं. बिरसा मुंडा यह अद्भुत व्यक्तित्व हैं. वर्ष 1875 में जन्मे बिरसा जी को कुल जमा पच्चीस वर्ष का ही छोटासा जीवन मिला. किन्तु इस अल्पकालीन जीवन में उन्होने जो कर दिखाया, वह अतुलनीय हैं. अंग्रेज़ उनके नाम से कांपते थे. थर्राते थे. वनवासी समुदाय, बिरसा मुंडा जी को प्रति ईश्वर मानने लगा था.

बिरसा मुंडा जी के पिताजी जागरूक और समझदार थे. बिरसा जी की होशियारी देखकर उन्होने उनका दाखला, अंग्रेजी पढ़ाने वाली, रांची की, ‘जर्मन मिशनरी स्कूल' में कर दिया. इस स्कूल में प्रवेश पाने के लिए ईसाई धर्म अपनाना आवश्यक होता था. इसलिए बिरसा जी को ईसाई बनना पड़ा. उनका नाम बिरसा डेविड रखा गया.

किन्तु स्कूल में पढ़ने के साथ ही, बिरसा जी को समाज में चल रहे, अंग्रेजों के दमनकारी काम भी दिख रहे थे. अभी सारा देश 1857 के क्रांति युद्ध से उबर ही रहा था. अंग्रेजों का पाशविक दमनचक्र सारे देश में चल रहा था. ये सब देखकर बिरसा जी ने पढ़ाई बीच में ही छोड़ दी. वे पुनः हिन्दू बने. और अपने वनवासी भाइयों को, इन ईसाई मिशनरियों के धर्मांतरण की कुटिल चालों के विरोध में जागृत करने लगे.

1894 में, छोटा नागपूर क्षेत्र में पड़े भीषण अकाल के समय बिरसा मुंडा जी की आयु थी मात्र 19 वर्ष. लेकिन उन्होने अपने वनवासी भाइयों की अत्यंत समर्पित भाव से सेवा की. इस दौरान वें अंग्रेजों के शोषण के विरोध में जनमत जागृत करने लगे.

उन्हें, अंग्रेजों ने चलाया हुआ धर्मांतरण का कुचक्र दिख रहा था. इसलिए, वनवासियों को हिन्दू बने रहने के लिए, उन्होने एक जबरदस्त अभियान छेड़ा. इसी बीच पुराने, अर्थात वर्ष 1882 में पारित कानून के तहत, अंग्रेजों ने झारखंड के वनवासियों की जमीन और उनके जंगल में रहने का हक छिनना प्रारंभ किया.

इसके विरोध में बिरसा मुंडा जी ने एक अत्यंत प्रभावी आंदोलन चलाया, ‘अबुवा दिशुम – अबुवा राज' (हमारा देश – हमारा राज). यह अंग्रेजों के विरोध में खुली लड़ाई थी, उलगुलान थी. अंग्रेज़ पराभूत होते रहे. हारते रहे. सन 1897 से 1900 के बीच, रांची और आसपास के वनांचल क्षेत्र में अंग्रेजों का शासन उखड़ चुका था. यह सभी अर्थों में एक ऐतिहासिक और अद्भुत घटना थी. 1757 के प्लासी युध्द के बाद से, (और सौ वर्षों के पश्चात, 1857 के क्रांति युध्द के बाद), यह माना जा रहा था, की अंग्रेज अजेय हैं. उन्हे कोई नहीं हरा सकता. उनका विरोध करने की कोई हिम्मत भी नहीं कर सकता. किन्तु ‘धरती आबा बिरसा जी' के नेतृत्व में, भोले भाले जनजातीय समुदाय ने यह झुठला दिया. अंग्रेजों की सार्वभौम सत्ता को सीधे ललकारा और कुछ दिन नहीं, तो लगभग ३ वर्ष, रांची और आसपास के क्षेत्र से अंग्रेजी शासन – प्रशासन को उखाड़ फेंका. वहां जनजातीय समुदाय का शासन प्रस्थापित किया.

किन्तु जैसा होता आया हैं, गद्दारी के कारण, 500 रुपयों के धनराशि के लालच में, उनके अपने ही व्यक्ति ने, उनकी जानकारी अंग्रेजों को दी. जनवरी 1900 में रांची जिले के उलीहातु के पास, डोमबाड़ी पहाड़ी पर, बिरसा मुंडा जब वनवासी साथियों को संबोधित कर रहे थे, तभी अंग्रेजी फौज ने उन्हे घेर लिया. बिरसा मुंडा के साथी और अंग्रेजों के बीच भयानक लड़ाई हुई. अनेक वनवासी भाई – बहन उसमे मारे गए. अंततः 3 फरवरी 1900 को, चक्रधरपुर में बिरसा मुंडा जी गिरफ्तार हुए.

अंग्रेजों ने जेल के अंदर बंद बिरसा मुंडा पर विषप्रयोग किया, जिसके कारण, 9 जून 1900 को रांची के जेल में, वनवासियों के प्यारे, ‘धरती आबा', बिरसा मुंडा जी ने अंतिम सांस ली.

आज मात्र जनजातीय समुदाय ही नहीं, तो सारा देश, उनके धरती आबा, बिरसा मुंडा जी का जन्मदिवस, उनके सार्ध शताब्दी वर्ष के प्रारंभ के रूप में मना रहा हैं.  

जनजातीय समुदाय की, हिन्दू अस्मिता की आवाज को बुलंद करने वाले, उनको धर्मांतरण के दुष्ट चक्र से सावधान करने वाले और राष्ट्र के लिए अपने प्राण देने वाले बिरसा मुंडा जी का स्मरण करना, याने राष्ट्रीय चेतना के स्वर को बुलंद करना हैं.

प्रशांत पोळ, राष्ट्रीय चिन्तक, विचारक, लेखक. व्यवसाय से अभियंता (आई. टी. व टेलिकॉम). तकनिकी एवं प्रबंधन सलाहकार हैं.

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.

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