सुलखमा गांव, जहां आज भी जिंदा है गांधी जी का चरखा, कई परिवारों की आजीविका का स्रोत

रघुनाथ पाल बताते हैं कि बजुर्गों की परंपरा पर आधारित ये रोजगार अब कमजोर होने लगा है. कारण यह है कि कई दिनों तक चरखा चलाने, सूत कातने और बुनने के बाद भी पूरी मजदूरी तक नहीं मिल पाती है.

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सतना के इस गांव में आज भी जीवित है गांधी जी के चरखे की परंपरा

Gandhi Jayanti : सतना (Satna) के जिला मुख्यालय से लगभग 90 किलोमीटर दूर रामनगर ब्लॉक में बसा एक गांव आज भी महात्मा गांधी (Mahatma Gandhi) के सिखाए पाठ का अनुसरण कर रहा है. स्वावलंबन की प्रथा को बनाए रखने वाले इस गांव के लगभग हर घर में एक चरखा (Charkha) चलता है, जो इनकी जरूरत भी है और परंपरा भी क्योंकि बुजुर्गों ने महात्मा गांधी से पाठ सीखा और इन्हें विरासत में दे गए. आजादी (Independence) के 77 साल बाद भी यह परंपरा कायम है लेकिन प्रशासनिक उपेक्षा के चलते चरखों की चकरी अब थमने लगी है. जरूरत है तो एक सरकारी मदद की है जो आज तक नहीं मिली.

रामनगर तहसील का यह गांव सुलखमा है. यहां की आबादी लगभग साढ़े तीन हजार है. कभी एक हजार से ज्यादा घरों में चरखे की आवाज सुनाई दिया करती थी. यूं कहें कि हर घर में चरखा चलता था. प्रशासनिक उपेक्षा के चलते अब यह परंपरा सिमट कर कुछ ही घरों तक सीमित रह गई है. पाल जाति से बाहुल्य इस गांव की यह परंपरा महात्मा गांधी के सिखाए पाठ की वजह से है. असल में गांधी जी ने स्वावलंबी भारत का सपना संजोया था. उसका पालन आज भी इस गांव में हो रहा है. चरखे से कपड़े और कंबल बनाकर यहां के लोग बेचते हैं और अपनी अजीविका चलाते हैं.

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जीविका के लिए अभी भी चरखे पर निर्भर गांव वाले

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कमजोर होने लगा है रोजगार 
इनका काम भी बंटा हुआ है. चरखा चलाकर सूत कातने का काम घर की महिलाओं का होता है. महिलाएं घरेलू काम निपटाकर खाली बचे समय में चरखे से सूत तैयार करती हैं. इसके बाद का काम घर में पुरुषों का होता है, जो इस सूत से कंबल और बाकि चीजें बुनने का काम करते हैं. रघुनाथ पाल बताते हैं कि बजुर्गों की परंपरा पर आधारित ये रोजगार अब कमजोर होने लगा है. कारण यह है कि कई दिनों तक चरखा चलाने, सूत कातने और बुनने के बाद भी पूरी मजदूरी तक नहीं मिल पाती है. यहां के लोग कहते हैं कि लोग आते हैं और देख कर चले जाते हैं. यही हमारी जीविका और रोजगार है. इसके अलावा हमारे पास कोई रोजगार नहीं है.

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प्रशासन से मदद की गुहार

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प्रशासन से मदद की गुहार
लोगों का कहना है कि बस घर परिवार चल रहा है क्योंकि यह पुश्तैनी काम है. इनका मानना है कि यदि सरकारी मदद से यही काम मशीनरी से करें तो ना सिर्फ पूरी मजदूरी मिलेगी और हमारे भी अच्छे दिन आ सकते हैं. प्रेमलाल पाल ने बताया कि पूर्वजों ने जो पाठ महात्मा गाधी से सीखा था, उसे पूरा करने का दायित्व आज भी कुछ लोग निभा रहे हैं. चरखा इनके लिए धरोहर है लेकिन इसे सहेजने में आज तक इन्हें प्रशासनिक मदद नहीं मिली. अब देखना है कि इनकी सोच को नई दिशा कौन देगा? क्या इस गांव में यह चरखा आने वाले समय में भी जिंदा रहेगा या प्रशासनिक उपेक्षा के चलते यूं ही विलुप्त हो जाएगा.

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