Pitru Paksha 2024: पितृपक्ष के दूसरे श्राद्ध पर सिंधिया परिवार का जो मुखिया होता है, वह बाबा मंसूर की मजार पर मत्था टेकने के लिए जरूर जाता है. आइए आपको बताते हैं इसके पीछे की वजह क्या है और आज भी इस परंपरा को अपनाने के पीछे क्या कारण है.
Pitru Paksha MP: सिंधिया राज घराने (Scindia Raj Gharana) के मुखिया और केंद्रीय संचार मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया (Jyotiraditya Scindia) गुरुवार को महाराज बाड़ा के गोरखी परिसर में स्थित देवघर (Devghar) पहुंचे. वहां उन्होंने परंपरागत अंदाज में धोती पहनकर और ओढ़कर बाबा मंसूर शाह औलिया (Baba Mansur Shah Auliya) की लोभान की सुगंध से इबादत की. यहां वह उर्स में शामिल हुए और फिर वहां फूलों का गुम्बद सजाया. तब तक सिंधिया वही बैठकर चंवर झलते रहे, जब तक उस गुम्बद से एक फूल नीचे नहीं गिर गया. इस बीच धोलीबुआ महाराज परम्परागत वाद्य यंत्रों की धुन के साथ भजन गाते रहे. फूल उठाकर सिंधिया ने मत्था टेका और फिर वहां मौजूद सिंधिया शाही के पुराने लोगों के परिजनों ने उन्हें बधाई दी.
सिंधिया परिवार का यह निजी आयोजन 250 से भी अधिक सालों से लगातार चलते आ रहा है. कट्टर हिन्दू सिंधिया राजघराना आखिरकार एक सूफी औलिया की इबादत को इतनी शिद्दत से क्यों करता है? इसकी कहानी काफी रोचक और रोमांचक भी है. दरअसल माना जाता है कि मंसूर शाह ने ही सिंधिया परिवार को राजवंश में परिवर्तित होने का आशीर्वाद दिया था और साथ में आधी रोटी दी थी. यह रोटी आज भी सिंधिया परिवार के पास सुरक्षित है.
नायक महाद जी के गुरु थे औलिया मंसूरशाह सोहरावर्दी
दरअसल, सिंधिया राजशाही के संस्थापक और महान मराठा सेना नायक महाद जी के गुरु औलिया मंसूरशाह सोहरावर्दी थे. मंसूर शाह का मूल स्थान महाराष्ट्र के बीड जिले में है और सिंधिया परिवार भी मूलतः महाराष्ट्र के सतारा जिले के एक गांव से संबंध रखता है. लेखक डॉ. राम विद्रोही अपनी किताब नागर गाथा में लिखते हैं कि सूफी संत मंसूर शाह के चमत्कारों के अनेक किस्से प्रचलित हैं. 15वीं -16वीं सदी में बीड मराठा सरदार निम्बालकर की जागीर का हिस्सा था.
इसलिए हुई थी सिंधिया साम्राज्य की स्थापना
कालांतर में जब पेशवा शाही कमजोर पड़ने लगी, तो महाद जी ने सिंधिया साम्राज्य की स्थापना की. बाबा मंसूर का आशीर्वाद फलीभूत हुआ. उज्जैन इलाके को उन्होंने राजधानी बनाया और बाबा साहब का स्थान भी, लेकिन जब सिंधिया साम्राज्य मालवा से दिल्ली तक फैल गया, तो सामरिक दृष्टि और नियंत्रण की दृष्टि से तत्कालीन महाराज दौलत राव सिंधिया ने राजधानी ग्वालियर बनाया. यहां उन्होंने गोरखी महल बनाया, तो उसी परिसर में एक देवघर भी बनाया. गोरखी देवघर में चांदी के तीन सिंहासन है. इनमें एक सिंहासन बाकी दोनों से बड़ा और ऊंचा है. बड़े सिंहासन के शीर्ष पर औलिया मंसूर शाह साहब की गद्दी एवं कुलदेवता प्रतिष्ठित हैं.
इस गद्दी पर दो स्वर्ण और एक चांदी का डिब्बा रखा है. इनमें बाबा मंसूर शाह के वस्त्र तथा पोथी सुरक्षित रखे गए हैं. इसी के पास मंसूर शाह द्वारा महाद जी को सुरक्षा कवच के रूप में दिया गया गण्डा, सोने का ताबीज और श्रीफल भी आज तक सुरक्षित रखा हुआ है. इनमें एक और अमानत एक हरे रेशमी कपड़े में लपेटकर सुरक्षित रखी है, जिसकी नियमित देखभाल भी होती है, वह है एक रोटी का आधा टुकड़ा जो औलिया ने महाद जी को सौंपा था.
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क्या है देवघर
दरअसल, यह सिंधिया परिवार का मंदिर है, जिसे देवघर कहा जाता है. इसके गर्भगृह में सिंधिया परिवार के कुलदेवता ज्योतिबा नाथ महाराज के अलावा सभी हिन्दू देवी और देवताओं की प्रतिमाओं का विग्रह है. इसी में बाबा मंसूर शाह के अवशेष भी सुरक्षित हैं. इनकी नियमित पूजा की जाती है. मंदिर में एक अखंड ज्योत भी प्रज्ज्वलित है, जो सैकड़ों सालों से प्रज्ज्वलित रही है. बताया जाता है कि राजवंश की परंपरा के अनुसार, वर्ष में कम से कम तीन बार राज परिवार के मुखिया यहां तय परिधान में परम्परागत पूजा करने अनिवार्यतः पहुंचते हैं. खासतौर से, विजयादशमी, श्राद्ध पक्ष की द्वितीया और मंसूर शाह के उर्स के मौके पर. बीते रोज ज्योतिरादित्य सिंधिया उर्स शरीफ के मौके पर पहुंचे.
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