Bhopal crime news: अंतिम मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर का मशहूर शेर है
कितना है बद-नसीब 'ज़फ़र' दफ़्न के लिए, दो गज़ ज़मीन भी न मिली कू-ए-यार में....
यह शेर उनकी बेबसी और देश से दूर होने के दर्द को दर्शाता है लेकिन जब आप भोपाल के हमीदिया अस्पताल के मुर्दाघर में पहुंचेंगे तो पता चलेगा अपने ही वतन में ऐसे बदनसीबों की भरमार है जिन्हें मौत के बाद भी दफन होने के लिए कायदे की जमीन नहीं मिलती... NDTV की टीम ने 10 दिन तक इन लाशों की आख़िरी यात्रा की पड़ताल की. तकरीबन सभी लाशों को बिना किसी धार्मिक अनुष्ठान के 'निपटा' दिया जाता है. पता चला कि जो लोग इन शवों के लिए कफन-दफन का इंतज़ाम कर रहे हैं, घोटालेबाज़ों ने उन्हें भी नहीं बख्शा. यहां तक की अस्पताल परिसर में मौजूद संस्था से मुफ्त में लिए गए कफन बाद में बाज़ार में 1000-1500 रुपए में बेचे जा रहे हैं. जाहिर है ये कहानी सिर्फ एक लाश की नहीं — ये उस मरे हुए सिस्टम की कहानी है, जहां इंसान की मौत भी अब एक धंधा बन चुकी है. पढ़िए NDTV की एक्सक्लूसिव पड़ताल- जहां मौत को न सम्मान मिला, न समाज से संवेदना...मिली तो सिर्फ एक प्लास्टिक शीट में लिपटी हुई खामोशी.
हमीदिया अस्पताल का मुर्दाघर: यहां हर दिन बड़ी संख्या में लावारिश लाशें आती हैं जिनके अंतिम संस्कार में शायद ही धार्मिक प्रक्रियाओं का पालन होता है
पुलिसवाले भी खुद की जेब से पैसे देते हैं
दरअसल भोपाल के हमीदिया अस्पताल में हर दिन बड़ी संख्या में शव आते हैं. कुछ को परिवार ले जाते हैं, पर कुछ को कोई लेने नहीं आता. ये वही लाशें हैं, जिन्हें सिस्टम “लावारिस” कहता है और फिर उन्हें फॉर्म, एफआईआर और पंचनामे में बदल देता है. हमीदिया मुर्दाघर के कर्मचारी दीपक रैकवार ने बताया कि हर दिन औसतन 5-7 लाशें आती हैं जिनका कोई नामलेवा नहीं होता. इनको हम पुलिस को हैंडओवर कर देते हैं. इसमें से ज्यादा या तो भिखारी होते हैं या फिर किसी बीमारी से मरने वाले लोग.NDTV की टीम ने 10 दिनों तक इन एंबुलेंस का पीछा किया और देखा कि कैसे बिना किसी धार्मिक प्रक्रिया, बिना किसी परिजन के, ये शव सीधे विश्राम घाट पहुंचते हैं. भदभदा विश्राम घाट पर कहने को पुलिसकर्मी भी मौजूद हैं लेकिन शव अकेला एक मज़दूर दफनाता है, कई बार 300 या 600 रुपये मज़दूरों को दिए जाते हैं. कई बार हालात ऐसे बनते हैं कि खुद पुलिसवाले अपनी जेब से भुगतान करते हैं.
अफसोसजनक: कई बार शवों को दफनाने के बाद कुत्ते उन्हें नोच लेते हैं. हड्डियों को चबा जाते हैं
शव को जमीन पर घसीटा, गड्ढे में ठूंसा
अपनी पड़ताल में हम भदभदा घाट पहुंचे. जहां हर दिन लावारिस लाशों की मौत का मज़ाक बनता दिखा. यहां शव को ज़मीन पर घसीटा जाता है, एक मज़दूर गड्ढे में कूदता है, शव को धकेलता है. इसी के पास ही पड़ी है एक खोपड़ी. कुत्ता एक हड्डी चबा रहा है. हमें दिखा कि दो-दो शव एक ही गड्ढे में ठूंसे जा रहे हैं. अंतिम संस्कार से पहले यहां मौत का भी अपमान होता है. ना कोई मंत्र, ना अग्नि, ना शमशान की गरिमा... सिर्फ 600 रुपये में एक लाश को दफन किया जाता है. यहां 25 साल से काम कर चुके पूर्व चौकीदार सरोज बताते हैं- पहले हम कमर के बराबर गड्ढा करते थे. अब पुलिस वाले दारू-शराब देते हैं और साथ 600 रुपये भी मिलते हैं. बहरहाल हमारी टीम ने दर्जनों बार देखा कि लाशों को घसीटा जाता है, पटका जाता है, और फिर मात्र आधे फीट गहरे गड्ढे में दफना दिया जाता है. सरोज के मुताबिक ये लाशों का जंगल है. हम रोज 2-3 गड्ढे खोदते हैं. कई लाशों को कुत्ते खाते हैं, पहले तो इन्हें सूअर भी खाते थे.
धमार्थ संस्था शवों के अंतिम संस्कार के लिए मुफ्त में कफन देती है लेकिन कुछ घपलेबाज इन्हें भी बाजार में 1000-1500 रुपये में बेच देते हैं.
20 साल पहले दो ट्रक हड्डियां हरिद्वार भेजी
सरोज ही बताते हैं कि 20 साल पहले यहां से दो ट्रक हड्डियां हरिद्वार भेजी गई थीं. उसके बाद न कोई रजिस्टर बना,न कोई रिकॉर्ड ही मेंटन किया गया. बता दें कि 2013 में राज्य सरकार ने “अंत्येष्टि सहायता योजना” शुरू की थी। इस योजना के तहत लावारिस और बेहद गरीब शवों के अंतिम संस्कार के लिए ₹3000 की आर्थिक मदद देने का प्रावधान है. लेकिन ये पैसे कितने मिलते हैं ये तो अब तक आपको पता चल ही गया है. पूछने पर भोपाल के पुलिस कमिश्नर हरिनारायणचारी मिश्रा ने बताया- नगर निगम पैसा देता है और हम उसे FSL को भेजते हैं. अगर कहीं गलत हो रहा है तो हम उसे दिखाएंगे. दरअसल इन पैसों को लेने की प्रक्रिया थोड़ी जटिल है. पहले इसके लिए इसके लिए नगर निगम या जनपद पंचायत को आवेदन देना होता है. इस आवेदन के साथ पंचनामा, पोस्टमार्टम रिपोर्ट, एफआईआर और मृत्यु प्रमाण पत्र की रिपोर्ट लगानी होती है. जिले के कलेक्टर कौशेलन्द्र विक्रम सिंह का कहना है कि हमने निर्देश दिये थे, नगर निगम के पास प्रावधान है. यदि राशि नहीं मिल रही है तो हम दिखवाएंगे और प्रक्रिया को बेहतर करेंगे.
घपलेबाज कफन भी बाजार में बेच देते हैं
बता दें कि हमीदिया अस्पताल परिसर में प्रेरणा सेवा ट्रस्ट 3 दशकों से गरीबों के लिये खाने और लावारिस शवों के लिये कफन-दफन का इंतज़ाम करता है. रोज 14-15 लोग यहां से कफन ले जाते हैं, लेकिन आपको ये जानकार हैरत होगी घोटालेबाजों ने इन्हें भी नहीं बख्शा .यहां से मुफ्त में कफन लेकर बाज़ार में 1000-1500 में बेच दिया जाता है. ट्रस्ट के अध्यक्ष रश्मि बावा ने बताया- हम सिर्फ नाम पूछते हैं ताकि वो दुबारा ना आएं. पीछे एक मामला हो गया था कि कुछ लोग यहां से कफन ले जाकर बाजार में बेच रहे थे. जब हमें पता चला तो हमने सिस्टम बदल दिया. अब नाम के साथ फोन नंबर भी पूछा जाता है. बहरहाल हमने 10 दिनों तक देखा ये अंतिम संस्कार नहीं, अपमान है. जिन्हें ज़िंदगी ने कुछ नहीं दिया, मौत ने भी उन्हें तिरस्कार ही दिया. कुछ लाशें दफ़न होती हैं ...कुछ सवालों को ज़िंदा छोड़ जाती हैं... और कुछ... आपकी संवेदना को शर्मिंदा कर देती हैं. वो कौन था? किसका था? कहां का था? कोई नहीं जानता... और शायद अब कोई जानना भी नहीं चाहता. यहां मज़हब कोई नहीं पूछता, जाति कोई नहीं देखता... लगता है अब हम इंसानों को पहचानने की ज़रूरत ही नहीं समझते... सब मिट्टी हो जाना है... लेकिन शायद इंसानियत पहले ही दफन हो चुकी है.
ये भी पढ़ें: कुएं में मरे मेंढ़क को निकालने उतरे बाप-बेटे की करंट से मौत, समर्सिबल पंप बना जानलेवा