MP OBC Survey: मध्यप्रदेश सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में OBC आरक्षण के पक्ष में 15,000 पन्नों का जो हलफ़नामा दाखिल किया है, उसने प्रदेश में जारी जातिगत भेदभाव की भयावह तस्वीर पेश की है.रिपोर्ट के मुताबिक,सर्वे में शामिल 56% ओबीसी परिवारों ने स्वीकार किया कि ऊँची जाति के व्यक्ति के सामने आने पर वे आज भी अपनी चारपाई या मंच छोड़कर 'सम्मान' में खड़े हो जाते हैं.चौंकाने वाली बात ये भी है कि 42% परिवारों ने पुष्टि की है कि उनके गाँवों में आज भी'अछूत प्रथा' जारी है. दरअसल मध्यप्रदेश सरकार का ओबीसी आरक्षण पर सुप्रीम कोर्ट में दायर हलफनामा अपनी शुरुआत से ही एक विरोधाभास के साथ सामने आता है यह प्राचीन भारत को एक जातिहीन, कर्म-आधारित समाज के रूप में महिमामंडित करता है, जबकि सामाजिक असमानता और ऊंच-नीच की व्यवस्था के लिए विदेशी आक्रमणों को ज़िम्मेदार ठहराता है. दस्तावेज़ वैदिक युग को समानता, सौहार्द और गतिशीलता के युग के रूप में प्रस्तुत करता है, लेकिन बाद में भारत की आर्थिक गिरावट का कारण किसानों और कारीगरों के जाति-आधारित शोषण को बताता है वही अन्याय, जिसके अस्तित्व को यह पहले नकारता है.
दमोह का 'अपमान' और हलफ़नामे की सच्चाई
पिछले हफ्ते ... इसी बीच, दमोह से सामने आए एक चौंकाने वाले वीडियो में कुशवाहा समुदाय के एक युवक को एक ब्राह्मण युवक के पैर धोने और पानी पीने पर मजबूर किया गया, अपमान का वह दृश्य, जो उसी असमानता की गूंज है जिसे यह हलफनामा परोक्ष रूप से स्वीकार करता है। एनडीटीवी को मिली जानकारी के अनुसार, सुप्रीम कोर्ट में दायर इस हलफनामे में शामिल सर्वे रिपोर्ट बताती है कि ऐसी घटनाएँ अपवाद नहीं हैं, बल्कि प्रदेश के हज़ारों परिवारों की रोज़मर्रा की सच्चाई हैं. आग बढ़ने से पहले रिपोर्ट की प्रमुख बातों को प्वाइंटर्स में समझ लेते हैं.
रिपोर्ट में न सिर्फ जातिगत भेदभाव की जड़ें गहरी पाई गई हैं, बल्कि व्यापक सामाजिक सुधारों की सिफारिश भी की गई है जिनमें शिक्षा और सरकारी नौकरियों में 35% ओबीसी आरक्षण और लाड़ली बहना - लाड़ली बेटी जैसी योजनाओं में 50% ओबीसी महिलाओं के लिए आरक्षण शामिल है.
महू स्थित डॉ. भीमराव अंबेडकर सामाजिक विज्ञान विश्वविद्यालय के इस गोपनीय सर्वे के अनुसार, भेदभाव की जड़ें बेहद गहरी हैं। सर्वे में शामिल 10,000 परिवारों में से 5,578 परिवार (करीब 56%) ने माना कि जब उनके घर के सामने से कोई ऊँची जाति का व्यक्ति गुजरता है, तो वे चारपाई या मंच पर बैठे नहीं रह सकते और “सम्मान” में खड़े हो जाते हैं। 3,797 परिवार (42%) ने कहा कि उनके गाँवों में आज भी अछूत प्रथा जारी है, और जाति-विशिष्ट मोहल्ले ऊँची जातियों से अलग बनाए गए हैं. 3,763 परिवारों ने बताया कि ऊँची जातियों के लोग उनके साथ खाना या पानी साझा नहीं करते, जबकि 3,238 परिवारों ने कहा कि पुजारी उनके समुदाय में धार्मिक अनुष्ठान करने से इनकार करते हैं. 57% परिवारों (5,697) ने कहा कि उनके समुदाय के लोगों को मंदिरों में पुजारी या मठों के प्रमुख के रूप में नियुक्त नहीं किया जाता.
रिपोर्ट की प्रमुख सिफारिशें
भेदभाव के इन गहरे निष्कर्षों के आधार पर रिपोर्ट ने व्यापक सामाजिक सुधारों की सिफारिश की है, जिनमें शामिल हैं:
- 35% OBC आरक्षण: शिक्षा और सरकारी नौकरियों में 35% ओबीसी आरक्षण दिया जाए.
- 50% महिला आरक्षण: लाड़ली बहना - लाड़ली बेटी जैसी योजनाओं में 50% ओबीसी महिलाओं के लिए आरक्षण सुनिश्चित किया जाए.
- जातिगत दीवारें तोड़ना: ग्रामीण और शहरी दोनों क्षेत्रों में जातिगत दीवारें तोड़ने के लिए नई सामाजिक नीति और निरंतर जागरूकता अभियान शुरू किए जाएँ.
रिपोर्ट का सख्त निष्कर्ष है कि संविधान में संरक्षण के बावजूद, 'जाति आज भी मध्यप्रदेश में गरिमा, रोज़गार और अवसर का सबसे बड़ा निर्धारक है.' इस विरोधाभास के बीच, हलफ़नामा ओबीसी वर्गों को समाज का सबसे वंचित तबका बताते हुए एक नई सामाजिक न्याय नीति की आवश्यकता पर बल देता है, भले ही भेदभाव के लिए उसका शुरूआती तर्क विदेशी आक्रमण को ज़िम्मेदार ठहराता हो.
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