Madhya Pradesh News Today: विज्ञान के इस दौर में भारत ने चांद पर अपना कदम तो रख लिया है, लेकिन आज भी ग्रामीण अपनी अनूठी परम्परा को निभाने के नाम पर अपने कलेजे के टुकड़ों को पालने में डालकर नदी के बहते पानी में छोड़ देते हैं. यह परम्परा मध्य प्रदेश के बैतूल (Betel) की पूर्णा माई मंदिर में हर साल होती है. मंदिर के पंडित हरिराम दडोरे की मानें तो हर साल लगभग 1000 बच्चों को यहां पालने में छोड़ा जाता है.
नि:संतानों के गोद भरने पर निभाई जाती है परम्परा
भैंसदेही की पूर्णा नदी पर कार्तिक पूर्णिमा से 15 दिनों का मेला लगा हुआ है. ऐसी मान्यता है कि जिन दंपतियों की संतान नहीं है. वे यहां आकर मन्नत मांगते हैं. संतान होने के बाद नदी की बहती धारा में बच्चे को छोड़ इस अनूठी परम्परा को निभाते हैं. पूर्णा नदी के किनारे लगने वाले इस मेले में सिर्फ मध्य प्रदेश ही नहीं, बल्कि पड़ोसी राज्य महाराष्ट्र (Maharashtra) से भी भक्त पहुंचते हैं. संतान की मनोकामना के लिए यह भगत और भुमका ( स्थानीय पुजारियों) के साथ अपनी अर्जी लगा कर चले जाते है. जब भी संतान हो जाती है, तब भक्त आकर पहले पूजा अर्चना करते हैं. इसके बाद भगत ( स्थानीय पुजारी ) इन बच्चों को मां पूर्णा के आंचल में लकड़ी के पालने में डालकर कुछ देर बहती नदी में छोड़ देते हैं.
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पड़ोसी राज्यों से भी पहुंचते हैं भक्त
ग्रामीणों की मानें तो यह परंपरा काफी साल पुरानी है. कार्तिक पूर्णिमा और उसके बाद के दो दिनों में 500 अधिक बच्चों को पूर्णा नदी में छोड़ा जाता है, लेकिन आज तक कोई दुर्घटना नहीं हुई है. मध्य प्रदेश के अलावा छतीसगढ़ (Chhattisgarh), महाराष्ट्र (Maharashtra), उत्तरप्रदेश ( Uttar Pradesh) तक के श्रद्धालु यहां आते हैं. पूर्णा माई उनकी हर मनोकामना पूरी करती हैं.
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