MP: बुंदेलखंड से चंबल तक फैला अनूठा उत्सव, जिसमें दुश्मन भी गले मिल जाते हैं, जानें इसकी रोचक कहानी 

MP News: बुंदेलखंड से शुरू हुई यह परंपरा आसपास के इलाके चम्बल तक फैली है और शताब्दियों से यह आयोजन होता है. आपसी मेलजोल बढ़ाने, राग द्वेष भुलाने ,रूठों को मनाने और नए दोस्त बनाने के लिए भी इस महोत्सव का विशेष महत्व है. 

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Bhujariya Mahotsav: रक्षाबंधन के दिन सुबह राखी बांधी जाती है और दोपहर बाद से पूरे चम्बल अंचल से लेकर बुंदेलखंड में शुरू हो जाता है भुजरिया महोत्सव. अंचल के यह सबसे प्रमुख पर्व है. जिसमें सभी लोग प्रेमभाव से हिस्सा लेते हैं. प्रेम, बलिदान  और साहस से ओतप्रोत आल्हा का गायन ही नहीं दंगल, निशानेबाजी और कबड्डी जैसे देशी खेलों की प्रतियोगिताएं भुजरिया उत्सव के तहत जगह-जगह आयोजित होती हैं. 

प्रदेश में  भुजरिया पर्व के  इस उत्सव का मालवा, बुंदेलखंड और महाकौशल क्षेत्र में विशेष महत्व माना गया है. इसे महाकौशल में कजली भी कहा जाता है. इसके लिए घरों में रक्षाबंधन से करीब एक सप्ताह पूर्व भुजरियां (पूजा स्थान के पास किसी मिट्टी के पात्र में गेहूं या जौ के बीज )बोई जाती हैं. राखी के दिन शाम को या फिर दूसरे दिन पड़वा को इन भुजरियों को समारोह पूर्वक महिलाएं खासकर युवतियां गीत गाते हुए नदी, कुओं, ताल-तलैयों आदि पर लेकर जातीं है और फिर वहां ले जाकर निकालकर इसकी पत्तियां जड़ से निकाली जाती है.

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जिन्हें सबसे पहले भगवान को चढ़ाया जाता है.  इसके बाद लोग एक-दूसरे से भुजरिया बदलकर अपनी भूल-चूक भुलाकर गले मिलते हैं. 

बुंदेलखंड से शुरू हुई यह परंपरा आसपास के इलाके चम्बल तक फैली है और शताब्दियों से यह आयोजन होता है। यह आपसी मेलजोल बढ़ाने , राग द्वेष भुलाने, रूठों को मनाने और नए दोस्त बनाने के लिए भी इस महोत्सव का विशेष महत्व है. इसमें शाम के समय लोग सज-धजकर नए वस्त्र धारण कर इस त्यौहार में शामिल होते हैं. वहीं कई स्थानों पर विभिन्न क्षेत्रीय पार्टियों, दलों और सामाजिक संस्थाओं द्वारा विभिन्न स्थानों पर भुजरिया मिलन समारोह का आयोजन भी किया जाता है. इनमे दंगल शूटिंग जैसे कम्पटीशन भी होते हैं. 

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इसको लेकर अनेक लोकगीत और दंतकथाएं आज भी अंचल में प्रचलित है. बुन्देलखण्ड के महोबा के आला-उदल-मलखान की वीरता के किस्से आज भी आल्हा गायन में सुने - सुनाए जाते हैं. बुंदेलखंड और उससे सटे चम्बल इलाके  की धरती पर आज भी इनकी गाथाएं लोगों को मुंह जुबानी याद है. 


किवंदती है कि महोबा के राजा परमाल की  बेटी राजकुमारी चन्द्रावली जो कि बेहद खूबसूरत थी उसका अपहरण करने के लिए दिल्ली के सम्राट पृथ्वीराज चौहान ने महोबा पर चढ़ाई कर दी थी. राजकुमारी उस समय तालाब में कजली यानी भुजरिया सिराने यानी विसर्जित कर भगवान को चढ़ाने के लिए अपनी  सहेलियों के साथ गई थीं. राजकुमारी को पृथ्वीराज से बचाने के लिए राज्य के वीर सपूत आल्हा-उदल-मलखान ने अपना पराक्रम दिखाया था. इन दोनों के साथ राजकुमारी चन्द्रावली का मामेरा भाई अभई भी था. 

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इस लड़ाई में अभई और राजा परमाल का एक बेटा रंजीत वीरगति को प्राप्त हो गए. बाद में आल्हा, उदल, मलखान, ताल्हन, सैयद, राजा परमाल के दूसरे बेटे ब्रह्मा ने पृथ्वीराज की सेना को हराकर राजकुमारी को बचाया था.

इसी के बाद से पूरे बुंदेलखंड में इस पर्व को विजय दिवस के रूप में मनाया जाने लगा. यह विजयोत्सव वीरता, एकता , भाईचारा और आपसी मतभेद भुलाकर राष्ट्रसेवा में जुटने का प्रतीक बन गया. इसमें भाईचारा का ही प्रदर्शन होता है. 

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भिंड में दो दिन होता है भुजरिया विसर्जन

जहां भी भुजरिया का त्योहार मनाया जाता है वहां सामान्यत सिर्फ एक दिन यानी पड़वा को यह आयोजन होता है. लेकिन बुंदेलखंड से सटे भिंड में यह आयोजन दो दिन होता है. इस दिन यह शहर दो भागों में बंट जाता है।  लहार रोड से लेकर अटेर दरवाजे (इसे अब गांधी मार्किट कहा जाता है) तक रक्षाबंधन यानी पूर्णिमा की शाम को ही भुजरिया विसर्जन की परंपरा है. यह पुराना भिंड माना जाता है.  किला से लेकर पुरानी बस्ती तक यहीं है. इसके बाद से पूरे शहर में पड़वा यानी रक्षाबंधन के दूसरे दिन मनाया जाता है. इस दिन शाम से देर रात तक लोग बन्द बाज़ार की सड़कों पर होते हैं  और एक दूसरे को भुजरिया देकर गले मिलते हैं.

शहर  के सामाजिक कार्यकर्ता मनोज जैन कहते है कि यहां किले के आसपास यह पर्व रक्षा बंधन की शाम को वही गौरी सरोवर के पश्चिमी तट की ओर दूसरे दिन वनखंडेश्वर से पश्चिम दिशा में शहर के निवासी भुजरिया विसर्जन करते हैं यह परंपरा सदियों से चली आ रही है.

 पुरानी बस्ती निवासी बुजुर्ग रमेश थापक का कहना है हमने बचपन से देखा है की वनखंडेश्वर मंदिर के इस ओर भुजरिया सदैव  राखी के दिन और दूसरी ओर दूसरे दिन विसर्जित की जाती है. यह परंपरा बहुत पहले से आल्हा उदल के समय से चली आ रही है.

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ये आयोजन भी होते थे 

मातृभूमि प्रेम के लिए त्याग और बलिदान से जुड़ा है इसलिए  परंपरा पूर्व में आल्हा का गायन होता था और इस उत्सव पर मेलजोल के और साहसिक खेलों के आयोजन होते थे. शिकार खेलने की परंपरा थी. कुश्ती, दंगल, नाल उठाना, मटकी फोड़, हाई जंप, लॉन्ग जंप आदि प्रतियोगिता होती थी.

जिसमें सभी जातियों के लोग सामाजिक समरसता के साथ भागीदारी करते थे. यह उत्सव भाईचारा बढ़ाने और अवसर भी होता था.

पूर्व में चली आ रही दुश्मनी को भुजरिया -भुजरिया देकर गले मिलकर एक-दूसरे के पैर छूकर आपसी मनमुटाव समाप्त करके का भी अवसर होता था. अब खेल के साधन बदलने और व्यस्तता और मनोरंजन के साधन बढ़ने से यह उत्सव शहरों में थोड़ा फीका हुआ है. हालांकि भुजरिया अभी भी होती है लेकिन ग्रामीण क्षेत्र में यह अभी भी जारी है. इस दिन दुश्मन भी आपस मे गले मिल जाते है. 

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