SC: संपत्ति पर आदिवासी महिलाओं का भी अधिकार; सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फैसले का छत्तीसगढ़ में विरोध क्यों?

Supreme Court: सुप्रीम कोर्ट द्वारा आदिवासी महिलाओं को पिता की संपत्ति में अधिकार देने के फैसले को लेकर छत्तीसगढ़ में दो अलग-अलग मत दिख रहे हैं. जहां एक ओर समाजसेवी और आदिवासी महिला जयमती कश्यम ने कहा कि "बराबरी का हक़ मिलने से महिलाएं आर्थिक रूप से मज़बूत होंगी." लेकिन दूसरी ओर आदिवासी नेता चेतावनी दे रहे हैं कि जरूरत पड़ी तो सड़क पर उतरेंगे और कोर्ट में फिर लड़ाई लड़ेंगे.

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Supreme Court: पिता की संपत्ति पर आदिवासी महिलाओं का भी अधिकार, छत्तीसगढ़ में विरोध क्यों?

Supreme Court Decisions: सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court) ने 17 जुलाई 2025 को ऐतिहासिक फैसला सुनाया. इस फैसले में सु्प्रीम कोर्ट ने आदिवासी समाज में भी महिलाओं को पिता की संपत्ति का उत्तराधिकारी माना है. यानि कि आदिवासी समाज में भी पिता की संपत्ति पर बेटियों के हक को जायज बताया. वहीं सर्व आदिवासी समाज ने कहा इससे घर-घर में विवाद और अदालतों में केसों की बाढ़ आ सकती है. सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐतिहासिक फैसला दिया. कहा अब आदिवासी समाज में भी बेटियों को पिता की संपत्ति में बराबर का हक मिलेगा, लेकिन इस बराबरी के फैसले ने छत्तीसगढ़ के बस्तर और सरगुजा में हलचल मचा दी. इस ऐतिहासिक फैसले का क्या है छत्तीसगढ़ कनेक्शन? सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के बाद क्यों बढ़ी सर्व आदिवासी समाज की चिंता?

सुप्रीम कोर्ट से बड़ी चूक हो गई : आदिवासी नेता

इस मामले को लेकर गोंडवाना गणतंत्र पार्टी के राष्ट्रीय प्रवक्ता जयनाथ सिंह केराम ने कहा कि "यह सूरजपुर के ग्राम पंचायत मानपुर का मामला है. मुझे ऐसा लगता है कि इस मामले पर माननीय सुप्रीम कोर्ट से बड़ी चूक हो गई है. माननीय सुप्रीम कोर्ट को इस मसले में इस तरह की बात निर्णय देने से पहले 1971 के एक और मामला है जो छत्तीसगढ़ के जिला कोरिया का मामला गुलाबीया पति त्रिलोचन का है. जिसमें सुप्रीम कोर्ट के विद्वान न्यायाधीश ने कहा था कि गोड़ इज नॉट हिंदू नहीं है. गोंड हिंदू नहीं है ऐसे में उन पर हिंदू मैरिज एक्ट और हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम लागू नहीं होता है. आदिवासी अपने परंपराओं और रूढ़ियों और प्रथा से शासित होते हैं. उनकी अपनी परंपराएं हैं. उत्तराधिकार के अधिनियम है, इनके ऊपर जो यह मैरिज विवाह से संबंधित जो कानून है, वो लागू नहीं होता?"

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यह मामला सरगुजा की दैया टेकाम का था. निचली अदालतों से हारने के बाद सुप्रीम कोर्ट पहुंचीं. जस्टिस संजय करोल की बेंच ने कहा कि "लिंग के आधार पर विरासत से वंचित करना संविधान के खिलाफ है. परंपराएं समय के साथ बदलनी चाहिए."

आदिवासी संगठनों की फिक्र ये है कि फैसला कस्टमरी लॉ के खिलाफ है, इससे पुरानी परंपराएं टूटेंगी, विवाद बढ़ेंगे, और महिलाओं पर दबाव व हिंसा का खतरा भी.

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पिता की संपत्ति में बेटी के हक

याचिकाकर्ता के बेटे सदन सिंह ने बताया कि "हाईकोर्ट में हमने याचिका दायर की थी. हाईकोर्ट ने याचिका खारिज़ उनके पक्ष में निर्णय दिया. फिर हम लोगों ने इस मामले को सुप्रीम कोर्ट में लगाया, जो हिस्सा हम लोगों को मिला था, उसी को मांगा था, उस से ज्यादा नहीं मांगा था. उसमें कुछ नियम चेंज कर दिए हैं कोर्ट में और उन लोगों की याचिका खारिज कर दी गई. सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया कि अब बेटियों का हक भी 50 प्रतिशत होगा. पिता की संपत्ति में बेटी के हक को लेकर हमने याचिका दायर की थी."

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जमीन हमारे कुल की होती है : पूर्व केंद्रीय मंत्री

पूर्व केन्द्रीय मंत्री और वरिष्ठ आदिवासी नेता अरविंद नेताम का कहना है कि "जो व्यवस्था है, उसमें कोई दिक्कत नहीं है. उसके पीछे एक कारण यह है कि हमारे समाज में जो तलाक की व्यवस्था है उसमें लड़कियों को या महिलाओं को कोई सीमा नहीं है. जीवन में बेटी कितनी बार भी तलाक ले सकती है. उसके इतने अधिकार हैं और तालाक की व्यवस्था इतनी सरल है कि उससे परेशानी नहीं होती लड़कियों को. यह कहा गया है कि हमारे आदिवासी समाज में जमीन कुल की होती है, लेकिन बेटी दूसरे कुल में जाती है. शादी होने के बाद तो कोई एक कुल की मानी जाती है तो कोई दूसरे की. कुल में ट्रांसफर नहीं हो सकता और ऐसे में अगर चार बार तलाक में शादी कर ली तो हर बार उस जमीन को लेकर कहां-कहां भागेगी."

बराबरी का हक़ मिलने महिलाएं मज़बूत होंगी : आदिवासी महिला

वहीं समाजसेवी और आदिवासी महिला जयमती कश्यम ने कहा कि "बराबरी का हक़ मिलने से महिलाएं आर्थिक रूप से मज़बूत होंगी." लेकिन दूसरी ओर आदिवासी नेता चेतावनी दे रहे हैं कि जरूरत पड़ी तो सड़क पर उतरेंगे और कोर्ट में फिर लड़ाई लड़ेंगे.

सड़क में उतरेंगे आदिवासी नेता

गोंडवाना गणतंत्र पार्टी के राष्ट्रीय प्रवक्ता जयनाथ सिंह केराम ने कहा कि "हमारा कहना यह है कि सुप्रीम कोर्ट के निर्णय से यदि आदिवासी समाज के अस्तित्व को खतरा है तो आदिवासी समाज अपने अस्तित्व को बचाने के लिए सड़कों पर उतारकर कुछ तो करेगा. जो न्यायिक तरीके होंगे उसको लेकर हम सुप्रीम कोर्ट में जाएंगे. इसको लेकर एक बड़ी चर्चा हम चाहते हैं. देश के जो बड़े विद्वान हैं जो विधि विशेषज्ञ हैं. वो इसपर अपनी राय रखें."

सर्वोच्च न्यायालय ने रुढ़िवादी परंपराओं के खिलाफ आदिवासी महिलाओं के समानता के अधिकार को जरूर संरक्षित किया है, लेकिन इसको लेकर आदिवासी समाज की चिंता का क्या असर होगा, ये भविष्य में ही पता चलेगा.

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