Loksabha Election 2024: चांद पर तो पहुंचा भारत पर नक्सलियों के ट्रेनिंग सेंटर रहे चांदमेटा तक कितनी पहुंची सरकार?

पूरे देश में लोकसभा चुनाव को लेकर धुआंधार प्रचार चल रहा है. हर तरफ चुनावी बयानों की शोर है और नेता अपने सियासी हिसाब-किताब सेट करने में जुटे हैं. ऐसे NDTV ने शुरू की है चुनावा यात्रा. जिसके जरिए ये जानने की कोशिश होगी आखिर इस चुनाव में लोग क्या चाहते हैं? क्या वाकई नेताओं के वादों के मुताबिक संबंधित इलाकों में विकास पहुंचा है? इसी कड़ी में हमारे संवाददाता निलेश त्रिपाठी और विकास तिवारी ने ओडिशा सीमा पर बसे छत्तीसगढ़ के अंतिम गांव चांदामेटा गांव का जायजा लिया

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Lok Sabha Elections 2024:बस्तर/रायपुर. लोकसभा चुनाव 2024 का बिगुल बज चुका है.साथ ही शुरू हो चुकी है एनडीटीवी की चुनाव यात्रा (NDTV's election journey). हम बस्तर पहुंचे तो तय हुआ कि उस गांव जाएंगे,जिसकी चर्चा चार महीने पहले राज्य में हुए विधानसभा चुनाव में खूब हुई. बस्तर जिला (Bastar district) मुख्यालय जगदलपुर(Jagdalpur News) से करीब 60 किलोमीटर दूर बसे चांदामेटा गांव (Chandmeta village) के लिए हमने यात्रा शुरू की. चांदामेटा गांव उस दरभा डिवीजन का हिस्सा है, जहां की झीरमघाटी में 25 मई 2013 को कांग्रेस की परिवर्तन यात्रा पर नक्सलियों ने हमला कर देश का सबसे बड़ा राजनीतिक नरसंहार किया था. इस क्रूरतम हमले में बस्तर टाइगर के नाम से मशहूर महेन्द्र कर्मा, कांग्रेस के तत्कालीन प्रदेश अध्यक्ष नंदकुमार पटेल, पूर्व केन्द्रीय मंत्री विद्याचरण शुक्ल समेत 33 लोगों की जान गई.

ओडिशा की सीमा पर बसे छत्तीसगढ़ (Chhattisgarh News) का अंतिम गांव चांदामेटा लंबे समय तक नक्सलियों का ट्रेनिंग सेंटर भी रहा है. जगदलपुर से करीब 30 किलोमीटर का सफर तय कर जब हम कांगेर घाटी की चढ़ाई कर रहे थे, तभी मेरे मन में सवाल आया कि चांद पर पहुंच चूका भारत और उसकी सरकार बस्तर के इस चांदामेटा गांव तक किस हद तक पहुंची होगी?

गांवों में चुनाव के माहौल का असर दिख रहा था, बीजेपी और कांग्रेस के झंडे घरों पर लहरा रहे थे. कहीं-कहीं राजनीतिक बैठकें भी चल रहीं थीं. एक दिन पहले आई आंधी के कारण सड़क पर एक पेड़ गिरा था, उसे हटाए बगैर हम आगे नहीं बढ़ सकते थे. लिहाजा हम गाड़ी से उतरे तो जंगल की खूबसूरती और मिट्टी की खूशबू आकर्षित करने लगी. सड़क से पेड़ हटाने के दौरान हमारे संवाददाता साथी विकास तिवारी कहते हैं- बस्तर में जंगल है, जंगल में पेड़ और पेड़ पर जो पत्तियां हैं, उनमें लगी धूल को जितना हटाएंगे, उतनी कहानियां बाहर आएंगी. 

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छत्तीसगढ़ के अंतिम सीमा पर बसे गांव चांदामेटा में बुनियादी सुविधाओं का बेहद अभाव है

मोबाइल नेटवर्क के लिए गजब जुगाड़

करीब डेढ़ घंटे का सफर तय कर हम चांदामेटा के पटेल पारा पहुंचे. यहां तक पहुंचने के लिए पक्की सड़क बन गई है. गांव में सुरक्षाबलों का एक कैंप है. पूरे गांव में बिजली के खंभे लगे हैं. पटेलपारा में नलजल योजना के तहत एक नलकूप भी दिख रहा है, जिसकी टंकी पर पूर्व मुख्यमंत्री भूपेश बघेल की फोटो भी लगी है. पटेलपारा कटहल पेड़ पर खूब फल लगे हैं, एक आम का पेड़ भी फल से लदा है. कटहल पेड़ के नीचे करीब 6 फीट की ऊंची बल्लियां लगी हैं, जिसे करीब पांच, सवा पांच फीट की ऊंचाई पर लकड़ी के पट्टे के सहारे आपस में जोड़ गया है. पट्टे पर बायीं ओर लोहे की कीलें ठोकी गई हैं. मैं उसे देख ही रहा था कि नीली टी शर्ट और हाफ पैंट पहने एक युवा आया और कीलों के सहारे मोबाइल रख किसी को कॉल करने लगा. पूछने पर नाम बुधरा बताता है और कहता है- आसपास मोबाइल पर नेटवर्क नहीं आता, यहीं पर एक कांटा दिखाता है, थोड़ा भी इधर-उधर होने पर नेटवर्क चला जाता है, इसलिए नेटवर्क के जुगाड़ के लिए यह व्यवस्था की गई है. 

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गांव में नेटवर्क नहीं होता लिहाजा गांव वाले गांव के बाहर कुछ इस तरह से जुगाड़ कर काम चलाते हैं

बुधरा कहता है कि पारा के ज्यादातर लोग बीजेपी की चुनावी बैठक में गए हैं. फलों से लदे आम और कटहल के पेड़ को देखते हुए विकास कहते हैं कि हमें दोगे आम. बुधरा कहता है- नहीं दे सकते सर, अभी आम त्योहार नहीं मनाए हैं. वहीं खड़ा बुधरा की ही उम्र का युवक सन्ना लखमा उसका समर्थन करता है. दरअसल प्रकृति के पूजक कहे जाने वाले आदिवासी किसी भी फल या फसल का उपयोग करने से पहले उसकी पूजा करते हैं, उसके लिए समय व काल तय होता है. उसके पहले उस फल या फसल का उपयोग करना भगवान का अपमान करना होता है. 

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चांदामेटा गांव और उसके आसपास पेड़ों पर खूब फल और कटहल लदे हैं लेकिन ग्रामीण बिना विशेष पूजा किए इसे ग्रहण नहीं करते.

नक्सलियों का ट्रेनिंग सेंटर और सेफ ठिकाना

कटहल पेड़ के नीचे सड़क की ओर देखने पर एक बड़ी पहाड़ी साफ नजर आती है. सन्ना बताता है कि वो तुलसी डोंगरी है. बस्तर में नक्सल समस्या शुरू होने के बाद से साल करीब 2014-15 तक तुलसी डोंगरी और चांदामेटा आए दिन नक्सल घटनाओं के लिए सुर्खियों में रहता था. तुलसी डोंगरी का एक सिरा बस्तर तो दूसरा ओडिशा का हिस्सा है. विकास बताते हैं कि एक समय में तुलसी डोंगरी के पहाड़ी पर नक्सलियों का हेडक्वार्टर हुआ करता था. नक्सलियों के बड़े कैडर का यह सबसे सुरक्षित ठिकाना था. यहां पहुंचने के लिए सुरक्षा बल के जवानों को लगभग 15 से 20 किलोमीटर पैदल चलना पड़ता था. अगर जवान किसी तरह तुलसी डोंगरी पहुंच भी गए तो नक्सली ऊपर से फायरिंग कर ओड़िशा की ओर भाग जाते थे. चांदामेटा गांव को नक्सली ट्रेनिंग सेंटर के रूप में उपयोग करते थे और यहां अपने लड़ाकूओं को तैयार करते थे. गांव में सुरक्षा बलों का कैंप लगने के बाद से हालात बदले हैं. अब नक्सली इसका उपयोग सिर्फ क्रॉसिंग प्वाइंट के रूप में करते हैं.

गांव में पानी की स्रोत ये एकमात्र गड्ढा है जिसमें बेहद मटमेला पानी है. गांव में हर घर नल योजना नहीं पहुंची है.

'विश्वास' और 'ख्वाब' का अनोखा उदाहरण

बुधरा और सन्ना से बातचीत के दौरान ही मेरी नजर झोपड़ीनुमा घर के एक दरवाजे पर पड़ी, जिसमें ताला लगा था. करीब से देखने पर पता चला कि थोड़ी सी ताकत लगाकर बगैर ताला खोले ही दरवाजा खोला जा सकता है. मैं ताले को देख ही रहा था कि 8 से 10 लोगों की बैठने की क्षमता वाली चारपहिया गाड़ी में 20 से 22 लोग लदे पहुंचे. इसी गाड़ी से उतरे करीब 35 वर्षीय बामन लखमा ने बताया कि वे करीब 12 किलोमीटर दूर कोलेंग गांव में बीजेपी की एक बैठक में गए थे. बातचीत बढ़ी तो बामन ने जो हकीकत बताई वो चकित करने वाली थी. तारीख और साल को लेकर असमंजस में दिख रहे बामन कहते हैं- 'एक दिन सुरक्षा बल के जवान सर्चिंग के लिए आए. मैं और गांव के 5 और लोग उन्हें देखने चले गए. सुरक्षा बल के जवानों ने कहा हमें रास्ता दिखा दो, हम रास्ता दिखाने के लिए गए तो हमें थाने ले गए. बाद में झीरम में हुए एक हमला मामले में हमें पकड़ कर जेल में डाल दिया. हमें नक्सली और उनका समर्थक बता दिया, 2 साल बाद हम बाहर आए.' 

बामन कहते हैं- फोर्स ने हमारे साथ गलत किया, फिर भी अब जब से गांव में कैंप लगा है, तब से काफी राहत है. धीरे-धीरे हमें सुविधाएं मिल रही हैं. कैंप लगना अच्छा ही है. बातचीत के बीच में ही विकास कहते हैं कि बस्तर के आदिवासियों की यही भलमनसाहत और मासूमियत है. 

अगर हमें कोई झूठे मामले में जेल में डाल दे तो पूरी उम्र मैं उस विभाग पर भरोसा नहीं कर पाऊंगा. विकास की बात सुनते ही मेरा ध्यान अचानक फिर से उस ताले पर गया, जो झोपड़ी के दरवाजे पर लगा था. मन में ख्याल आया कि मसला दरवाजे की मजबूती का नहीं बल्कि ताले पर विश्वास का है. ताला लगा है तो यह विश्वास है कि कोई अंदर नहीं जाएगा.

बामन की तीन बेटियां और एक बैटा. बड़ी बेटी सरकारी छात्रावास में रहकर पढ़ाई कर रही है. बामन कहते हैं- ''मैं पढ़ा लिखा नहीं हूं, लेकिन अपने बच्चों को पढ़ाना चाहता हूं. अस्पताल में वो लोग, जो इलाज करते हैं न मरीजों का मैं अपनी बेटी को वही बनाना चाहता हूं. वो जो भी करना चाहे मैं उसका साथ दूंगा.'' मैंने विकास से कहा 'गांव की तस्वीर बदल रही है'. हमारी बातें सुन रहे करीब 22 वर्षीय युवक श्याम ने कहा- पहाड़ी के उसपार टेंड्रेपारा चलिए असली तस्वीर दिखाता हूं. इसकी बात हम चुनावी यात्रा की अपनी दूसरी किस्त में करेंगे. 

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