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Rakesh Kumar Malviya

'Rakesh Kumar Malviya' - 3 News Result(s)
  • अभासी दुनिया में कितने दूर कितने पास! 'अपनों' की है तलाश

    अभासी दुनिया में कितने दूर कितने पास! 'अपनों' की है तलाश

    फेसबुक सब रेडीमेड देता है, आपको बस क्लिक करके दोस्ती निभा लेनी है. और शाम तक चार-पांच सौ बधाइयों के बाद हम फूलकर कुप्पा हो जाते हैं कि क्या सचमुच मेरे इतने दोस्त हैं, जो मेरे सुख-दुख में खड़े हो सकते हैं. 

  • अब ऐसा न कहें कि गृहिणी कुछ नहीं करती!

    अब ऐसा न कहें कि गृहिणी कुछ नहीं करती!

    अब सुप्रीम कोर्ट ने भी मुहर लगा दी है कि यदि एक हाउसवाइफ के काम की गणना की जाए तो उसका योगदान अनमोल है. इस बात को नारीवादी संगठन और जागरुक लोग लंबे समय से कहते रहे हैं, लेकिन समाज में घरेलू महिलाओं के काम का यह नैरेटिव सदियों से है कि वह तो बस घर संभालती है, कुछ नहीं करती. यहां तक कि यह नैरेटिव इतना ज्यादा प्रभावी है कि खुद महिलाओं को ही इस बात का आभास नहीं है कि यदि उनके श्रम को तौला जाए तो उनका योगदान कहां जाकर ठहरता है.

  • भोपाल में फिर चल गया रंग विदूषक का ‘तुक्का’

    भोपाल में फिर चल गया रंग विदूषक का ‘तुक्का’

    हम भले ही वैश्विक दुनिया में आज जी रहे हों लेकिन स्थानीयता का रस हमेशा हमें गुदगुदाता रहेगा। तुक्के पे तुक्का नाटक फिर से इसी एक बात को स्थापित करता है. भाषा, किरदार, कलाकारों की नाम, दैहिक गतिविधियों का प्रयोग और उपमाएं देख-सुनकर लगता है कि हमारे ही आसपास का किस्सा तो चल रहा है.

'Rakesh Kumar Malviya' - 3 News Result(s)
  • अभासी दुनिया में कितने दूर कितने पास! 'अपनों' की है तलाश

    अभासी दुनिया में कितने दूर कितने पास! 'अपनों' की है तलाश

    फेसबुक सब रेडीमेड देता है, आपको बस क्लिक करके दोस्ती निभा लेनी है. और शाम तक चार-पांच सौ बधाइयों के बाद हम फूलकर कुप्पा हो जाते हैं कि क्या सचमुच मेरे इतने दोस्त हैं, जो मेरे सुख-दुख में खड़े हो सकते हैं. 

  • अब ऐसा न कहें कि गृहिणी कुछ नहीं करती!

    अब ऐसा न कहें कि गृहिणी कुछ नहीं करती!

    अब सुप्रीम कोर्ट ने भी मुहर लगा दी है कि यदि एक हाउसवाइफ के काम की गणना की जाए तो उसका योगदान अनमोल है. इस बात को नारीवादी संगठन और जागरुक लोग लंबे समय से कहते रहे हैं, लेकिन समाज में घरेलू महिलाओं के काम का यह नैरेटिव सदियों से है कि वह तो बस घर संभालती है, कुछ नहीं करती. यहां तक कि यह नैरेटिव इतना ज्यादा प्रभावी है कि खुद महिलाओं को ही इस बात का आभास नहीं है कि यदि उनके श्रम को तौला जाए तो उनका योगदान कहां जाकर ठहरता है.

  • भोपाल में फिर चल गया रंग विदूषक का ‘तुक्का’

    भोपाल में फिर चल गया रंग विदूषक का ‘तुक्का’

    हम भले ही वैश्विक दुनिया में आज जी रहे हों लेकिन स्थानीयता का रस हमेशा हमें गुदगुदाता रहेगा। तुक्के पे तुक्का नाटक फिर से इसी एक बात को स्थापित करता है. भाषा, किरदार, कलाकारों की नाम, दैहिक गतिविधियों का प्रयोग और उपमाएं देख-सुनकर लगता है कि हमारे ही आसपास का किस्सा तो चल रहा है.

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