This Article is From Jan 22, 2024

नक्सल समस्या पर नई पहल: मान जाओ,वर्ना मारे जाओगे !

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Diwakar Muktibodh

छत्तीसगढ़ में नई सरकार के गठन के साथ ही जो लक्ष तय किए जा रहे हैं उनमें नक्सल समस्या प्रमुख है. इस बाबत सरकार की ओर से जो पहल की जा रही है, उसे देखते हुए यह प्रतीत होता है कि प्रदेश की भाजपा सरकार बरसों से चली आ रही इस समस्या के प्रति पूर्व की तुलना में अब कुछ अधिक गंभीर है और यथाशीघ्र इसका समाधान चाहती है. इसीलिए राज्य सरकार ने अपने गठन के एक माह के भीतर ही घोषित किया कि वह नक्सलियों से बातचीत करने तैयार है. उप मुख्यमंत्री विजय शर्मा जो गृह मन्त्री भी हैँ , इस मामले में लीड लेते दिख रहे हैं. सरकार की ओर से बिना शर्त बातचीत के मौखिक प्रस्ताव पर नक्सलियों की ओर से फिलहाल कोई जवाब नहीं आया है. जबकि सरकार ने उन्हें यहां तक ऑफ़र दिया है कि यदि उनके प्रतिनिधि सामने आने से क़तरा रहे हैं  तो सरकार उनसे वीडियो कॉन्फ़्रेंसिंग के ज़रिये शांति वार्ता पर बातचीत कर सकती है.
पिछले चार दशक के बाद पहली बार इस राष्ट्रीय समस्या जो समय के अंतराल में अब प्रमुखत: छत्तीसगढ तक सिमट गई है, कोई राज्य सरकार खुद होकर वार्ता के लिए आगे आई है. यद्यपि केन्द्र में कांग्रेस सरकार तथा बाद में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा सरकार ने भी विभिन्न स्तरों पर प्रयास किए.नक्सलियों से निपटने रणनीतियाँ बनाई गईं,दर्जनों मुठभेड़ हुईं,हिंसा में नक्सलियों सहित सैकड़ों आम नागरिक ,पुलिस के जवान तथा अधिकारी मारे गए, नक्सलियों के हथियार डालने और आत्मसमर्पण करने पर आकर्षक पैकेज का भी एलान किया गया, विशेष पुलिस बल बनाकर नौकरियाँ भी दी गईं किंतु समस्या का समाधान नहीं हुआ. हिंसा जारी रही.

अलबत्ता पुलिस के दबाव की वजह से नक्सल वारदातें कम होती गईं तथा उसका दायरा भी सिमटता गया. अब वारदातों के प्रमुख केन्द्र में केवल छत्तीसगढ है जो नक्सलियों का सर्वाधिक सुरक्षित पनाहगार भी है. आन्ध्रप्रदेश व छत्तीसगढ की बात करें तो पुलिस ने बीते वर्षों में सीधे मुक़ाबले में कई हार्ड कोर नक्सली नेताओं को मार गिराया तथा अनेक को गिरफ़्तार किया.

कह सकते हैं कि पुलिस व अर्धसैनिक बलों  के दबाव के साथ मांद में घुसकर मारने के अभियान से नक्सलियों का संगठन कमजोर होता गया. पुलिस की गोली से बचे-खुचे उम्रदराज नेताओं की पीढ़ी अशक्त हो गई लिहाजा उनके स्थान पर हथियारों से खेलने दिशाहीन युवा वर्ग सामने आ गया किंतु उनके बीच नया नेतृत्व नहीं उभर सका.फलत: उनकी आंतरिक व्यवस्था बुरी तरह बिगड़ गई.वे बैकफ़ुट पर हैं तथा सबल व वरिष्ठ नेतृत्व  के अभाव में युवा दिग्भ्रमित हैं . गृह मन्त्री विजय शर्मा ने एक राष्ट्रीय अखबार से बातचीत में इन्हीं युवाओं से अपील की है कि वे हिंसा का रास्ता छोड़कर शांति के मार्ग पर  चलें तथा अपनी समस्याओं व मांगों पर बातचीत करने आगे आएं . सरकार बंद कमरे में या वीडियो कान्फेंस के ज़रिये किसी भी समय,जब वे चाहें,नि:शर्त आपसी संवाद के लिए तैयार हैं. 

नक्सल समस्या के ख़ात्मे के लिए विष्णु देव साय सरकार का यह प्रस्ताव जाहिर है केन्द्र सरकार के इशारे पर है जिसके गृहमन्त्री अमित शाह इस मामले में पहले भी सघन प्रयत्न कर चुके हैं. इसी सिलसिले में अमित शाह ने 21 जनवरी 2024 को रायपुर में केन्द्र व राज्य के अफसरों के साथ मौजूदा स्थिति की समीक्षा की जिसमें अभियान तेज़ करने के साथ ही अगले तीन वर्षों में माओवाद के सफाए का संकल्प लिया गया. इस बैठक में नक्सलियों से वार्ता के मुद्दे पर चर्चा हुई अथवा नहीं ,खबर नही है पर ऐसा लगता है कि इसे एक उपाय मानकर राज्य सरकार के विवेक पर छोड़ दिया गया है. लेकिन इससे इसकी गंभीरता कम नहीं होती क्योंकि प्रदेश के गृहमंत्री ने मीडिया के माध्यम से शांति वार्ता का प्रस्ताव रखा है.

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माओवादी हिंसा की समस्या पुलिस की गोलियों से कही अधिक शांति की पहल से ही संभव है. यदि वार्ता की गाड़ी पटरी पर आई तो फिर नक्सलवाद के ख़ात्मे को अधिक समय नहीं लगेगा जैसा कि अब तक लगता रहा है. याद करें वर्ष 2003 से 2018 तक छत्तीसगढ में भाजपा के रमन सिंह की सरकार थी और उसके ही कार्यकाल में प्रदेश में नक्सली हिंसा की सर्वाधिक घटनाएँ घटीं . हिंसा का जवाब हिंसा से देने की वजह से वार्ता का भी वातावरण नहीं बना हालाँकि मुख्यमन्त्री रमन सिंह बेमन से बाज़ दफ़ा कहते रहे कि सरकार बातचीत के सिए तैयार है.

पर उनकी सरकार ने न तो दिलचस्पी दिखाई और न ही कोई कोशिश की. 2018 के बाद कांग्रेस की भूपेश बघेल सरकार भी उदासीन बनी रही. फलत: घात-प्रतिघात का दौर चलता रहा तथा दोनों पक्ष अपना काम करते रहे. यानी असली-नक़ली मुठभेड़ होती रहीं, इनमें पुलिस वाले मारे गए तथा बडी संख्या में ग्रामीण आदिवासी व नक्सली भी। बारूदी विस्फोटों के साथ ही बस्तर के गहन नक्सल प्रभावित इलाक़ों में आतंक व भय का वातावरण बनाये रखने कथित मुखबिरों को जनअदालत में बुलाकर हाथपैर काटने या फाँसी पर लटकाने जैसी घटनाएँ  होती रहीं. किंतु बीते पाँच सालों में नक्सल हिंसा का ग्राफ़ क्रमश:कम ज़रूर हुआ पर ख़त्म नहीं. बस्तर में आग अभी बुझी नहीं है

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बहरहाल बातचीत की राह में बहुत से रोड़े हैं. पहला सवाल तो यह है कि नक्सली नेता सरकार के आमंत्रण को कितनी गंभीरता से लेंगे ? उस पर भरोसा करेंगे अथवा नहीँ ? दरअसल उनका पुराना अनुभव अच्छा नहीं था. इतिहास के पुराने पन्नों को पलटकर देखें तो नज़र आएगा कि मनमोहन सिंह की सरकार में गृहमन्त्री रहे पी.चिदम्बरम की पहल पर बातचीत का माहौल तैयार करने की प्रक्रिया आगे बढ रही थी. लेकिन इसी दौरान सेन्ट्रल कमेटी के सदस्य चेरीकुरी राजकुमार उर्फ़ आज़ाद को आंध्र प्रदेश के जंगल में पुलिस ने मार गिराया जबकि वह पुलिस की हिरासत में था. इस घटना के बाद हिंसा भी तेज़ हुई तथा सरकार व पुलिस पर नक्सलियों का भरोसा जाता रहा.

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अत: वार्ता के संदर्भ में परस्पर भरोसा भी बडा सवाल है. एक और प्रश्न है -नक्सलियों का प्रतिनिधित्व कौन करेगा ? और क्या वार्ताकारों को समूचे संगठन का विश्वास हासिल रहेगा ? कथित वार्ताकारों पर सरकार के भरोसे का भी सवाल है.

यदि गाड़ी वार्ता की पटरी पर आई तो भी मांगें व शर्तों पर आपसी सहमति का बन पाना असंभव न सही पर काफी कठिन अवश्य रहेगा. अत: बेहतर तो यही रहेगा कि कोई ऐसा मध्यस्थ हो जिस पर दोनों पक्ष भरोसा कर सके. अतीत में ऐसी घटनाएँ हुई हैं जब नक्सलियों द्वारा बंधक बनाये गये पुलिस जवान व ग्रामीणों की रिहाई के लिए मध्यस्थों का सहारा लिया गया था.

फिर भी नक्सल समस्या के निदान की दिशा में राज्य सरकार की नई पहल से यह उम्मीद जगती है कि बस्तर में शान्ति यथाशीघ्र बहाल होगी.गृहमन्त्री विजय शर्मा ने वार्ता के लिए हाथ आगे बढ़ाया ज़रूर है पर चेतावनी भी दी है कि यदि हिंसक वारदातें जारी रहीं और आम लोग इसके शिकार हुए तो इसे हरगिज बर्दाश्त नहीं किया जाएगा. इससे स्पष्ट है शासन समस्या का शांतिपूर्ण हल चाहता है पर यदि इसका स्वागत नहीं हुआ तो पुलिस अपना काम करती रहेगी. वैसे भी वह उनकी प्रमुख शरणस्थली व रणनीतिक केन्द्र अबुझमाड़ में डेरा डाल  चुकी है.

दिवाकर मुक्तिबोध छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ पत्रकार हैं और राज्य की राजनीति की गहरी समझ रखते है.

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.