This Article is From Jul 28, 2023

बचपन बाइस्कोप: दिल ढूँढता है ...

विज्ञापन
Madhavi Mishra

अंग्रेजी में एक phrase है mid life crisis जो बहुत अर्थपूर्ण है यह उदासी की एक गहनतम अवस्था है जिससे बाहर निकलने की राहें संकुचित हैं. एक कशमकश है एक रस्साकशी है .. जीवन का सुनहरा दौर पीछे छोड़ आये हैं , बहुत कुछ है जिसे आप खो चुके हैं बचपन के साथी ,गुरु ,माता पिता पर आप उनकी याद में रो भी नहीं सकते क्योंकि परिपक्वता उम्र का तकाज़ा है. जो खोया है वह वापस नहीं आएगा पर एक फाँस की तरह टीस देता रहेगा. खोना मानो जीवन का स्थायी भाव बन चुका है. एक नोस्टाल्जिया है जो हर पल हर दिन दिलो दिमाग पर तारी रहता है. हम जैसे 70 के दशक में पैदा हुए हर शख्स की कमोबेश यही मनोदशा रहती होगी. 

आज मैं अपने बचपन के उस हिस्से को याद करूँगी जो छत्तीसगढ़ के जगदलपुर में बीता. स्मृतियों का वितान बहुत बड़ा है , शुरू से शुरू करती हूँ. सारा बचपन रेडियो सुनते हुए बीता दूरदर्शन तो बाद में आया. ये आकाशवाणी का जगदलपुर केंद्र है सुनते ही मन के तार झंकृत हो जाते थे . एम ए रहीम , जया आर्य , सरोज मिश्र , लक्षमेंद्र चोपड़ा की आवाजें आज भी जहन में गहरी पैबस्त हैं.

Advertisement
आज अगर लोगों को मेरे संगीत के वृहद ज्ञान पर आश्चर्य होता है तो इसका पूरा श्रेय आकाशवाणी के जगदलपुर केंद्र को जाता है जहाँ हर गीत के साथ गायक कलाकार का नाम गीतकार और संगीतकार का नाम पाबंदी के साथ पढ़ा जाता था कभी कभी तो रागों की भी चर्चा होती थी

बस्तर के क्षेत्रीय संगीत में उन दिनों कविता हीरकनी लक्ष्मण सिंह मस्तुरिया के नाम महत्वपूर्ण थे पता लेजा रे गाड़ीवाला , मोर संग चलो रे  और मन डोले रे माह फगुनवा आदि गीतों का अंजोर  चहुँ ओर बगरा रहता था . जिस संबलपुरी रोंगोबती गीत को फ्यूज़न बना कर लोकप्रिय करने की विद्रूप कोशिश की जा रही है हमने तो अनगढ़ और सोंधी मिट्टी की महक लिए इस तरह के गानों को हर पल जीया है जिनमे सिर्फ बेसिक वाद्य यंत्रों का प्रयोग होता था लेकिन सुनने में इतने मनभावन कि इस लोकरस से बाहर आना कठिन था. छत्तीसगढ़ के सुवा नृत्य , गेड़ी नृत्य ,राउत नाचा तो स्कूल के दिनों में हर प्रतियोगिता का हिस्सा होते थे. डोंगा चो डोंगी गाने पर ढोलक की मधुर थाप  और हमारा कदम ताल अद्भुत समा था अमृत का उत्सव था. हरेली उत्सव था गोंचा का त्योहार था .क्या कहूँ  जीवन ही उत्सव था. 

Advertisement
दशहरे पर दंतेश्वरी देवी के मंदिर से रथयात्रा का वो नज़ारा , चित्रकूट और तीरथगढ़ के मनोहारी जलप्रपात जहाँ तब you tubers और ट्रेवलर्स का कोई फैशन नही था  वहाँ प्रकृति अपने उत्कृष्ट और आत्मीय रूप में प्रस्तुत होती थी ।

रामलीला था ,सर्कस थे ,मेला और मड़ई कितने लोक लुभावने रहे. महीनों में कभी एक बार थियेटर जाकर सिनेमा देखने का दिन किसी उत्सव से कम नहीं होता था. 
रायपुर से जगदलपुर के बीच का करीब 300 किलो मीटर का लंबा  पथ सदाबहार वनों की हरियाली से आच्छादित था दोनों ओर साल, सागौन ,महुआ , पलाश ,सेमल और कुटज की बहार , गोदावरी नदी का साथ , काँकेर घाटी और balancing rocks.उफ्फ क्या क्या याद करूँ .....
कितनी अजीब बात है एक वो हमारा समय था जो अब बीत चुका है मन है कि रीत गया है. ग़म .ए - रोज़गार तब भी था पर दिलों में मोहब्बतें थीं, अपनापन था ,पड़ोस था, गली चौबारे थे ,चूल्हा था चक्की थी यही तो जीवन था .

Advertisement

इकबाल अज़ीम कह गए हैं
हम बहुत दूर निकल आये हैं चलते चलते 
अब ठहर जाएं कहीं शाम के ढलते ढलते 
                                     

(लेखिका संगीत मर्मज्ञ और डीपीएस, उज्जैन की डायरेक्टर हैं.)

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.

Topics mentioned in this article