This Article is From Aug 14, 2023

कितना फर्क ला पाएंगे अरविंद नेताम ?

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Diwakar Muktibodh

पूर्व केन्द्रीय मंत्री व छत्तीसगढ़ के प्रमुख आदिवासी नेता अरविंद नेताम का कांग्रेस से इस्तीफा अकस्मात नहीं है. काफी समय से इसकी प्रतीक्षा की जा रही थी. इसलिए इस घटना से छत्तीसगढ़ की राजनीति में कोई विशेष हलचल नहीं हुई. दरअसल वर्ष 2013 में पीए संगमा की नेशनल पीपुल्स पार्टी  के बाद भाजपा, बसपा से  होते हुए नेताम पांच वर्ष पूर्व जब पुनः कांग्रेस में शामिल हुए तो उन्हें उम्मीद थी कि राज्य में पंद्रह साल के सूखे के बाद 2018 में सत्तारूढ़ हुई कांग्रेस में उनकी पूछ परख होगी तथा उनके प्रदीर्घ राजनीतिक अनुभवों का लाभ उठाया जाएगा पर भूपेश बघेल की सरकार में ऐसा कुछ नहीं हुआ. न तो उन्हें सरकार द्वारा पोषित किसी आयोग , बोर्ड या निकाय में जगह मिली और न ही संगठन को उनकी जरूरत महसूस हुई. बीते वर्षों में नेताम बुलावे की प्रतीक्षा करते रहे. लेकिन इस बीच आदिवासी मुद्दों पर राज्य सरकार की आलोचना भी करते रहे. करीब छह माह पूर्व उन्हें पार्टी विरोधी गतिविधियों के कारण शो कॉज नोटिस जारी किया गया था. इसका जवाब देने के बावजूद वे नाउम्मीद नहीं थे. लेकिन जब उन्हें महसूस हुआ कि कांग्रेस में उनकी स्थिति शून्य हो गई है तब उनके धैर्य का बांध टूटा. अंततः नौ अगस्त को विश्व आदिवासी दिवस के अवसर पर राजधानी में एक बड़ी रैली  करने के बाद उन्होंने कांग्रेस से विदा ले ली, पार्टी की प्राथमिक सदस्यता से इस्तीफा दे दिया.

81 वर्षीय अरविंद नेताम  छत्तीसगढ़ में बड़ा आदिवासी चेहरा माने जाते रहे हैं. आदिवासी हितों के लिए वे निरंतर लड़ते रहे. वे कांकेर सीट से पांच बार लोकसभा के लिए चुने गए. 1973 से 1977 तक इंदिरा गांधी मंत्रिमंडल में राज्य मंत्री व 1993 से 1996 तक नरसिंह राव सरकार में भी राज्य मंत्री रहे. 2012 के राष्ट्रपति चुनाव में उन्होंने पार्टी के अधिकृत उम्मीदवार प्रणब मुखर्जी के खिलाफ पीए संगमा को समर्थन दिया था लिहाज़ा उन्हें कांग्रेस से निलंबित कर दिया गया.  संगमा ने उन्हें नेशनल पीपुल्स पार्टी का कार्यकारी अध्यक्ष बना दिया.इसके बाद एक तरह से वे राजनीतिक बियाबान में चले गए और उनके कहे अनुसार

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राहुल गांधी के कहने पर वे मई 2018 में कांग्रेस में लौट आए, पर राज्य में कांग्रेस की सरकार बनने के बावजूद उनकी उपेक्षा हुई लिहाज़ा अपनी दमित राजनीतिक महत्वाकांक्षा को उड़ान देने उन्होंने उन्होंने जल जंगल जमीन के मुद्दे के साथ आदिवासियों को संगठित करने का काम शुरू किया और इसके लिए गैर राजनीतिक संगठन सर्व आदिवासी समाज की स्थापना की.

पर इस संगठन की राजनीतिक महत्वाकांक्षा का प्रमाण तब मिला जब दिसंबर 2022 में हुए भानुप्रताप उपचुनाव में संगठन ने अपना उम्मीदवार उतार दिया. इस उप चुनाव में यद्यपि कांग्रेस जीत गई पर सर्व आदिवासी समाज के प्रत्याशी पूर्व आईपीएस अकबर राम कोर्राम ने 23 हजार से अधिक वोट हासिल करके संगठन व अरविंद नेताम को आश्वस्त किया कि 2023 के विधानसभा चुनाव में इससे भी बेहतर किया जा सकता है. नेताम ने इस उप चुनाव में काफी मेहनत की थी। यद्यपि इसके पूर्व वे कहते रहे हैं कि सर्व आदिवासी समाज सामाजिक संगठन है तथा उसका राजनीति से कोई लेना देना नहीं है. लेकिन अब उन्हें लगता है कि राजनीति में आए बिना आदिवासियों का कल्याण नहीं हो सकता. अतः इसकी शुरुआत भानुप्रतापपुर उप चुनाव से की गई और कांग्रेस में रहते हुए ही उन्होंने एलान कर दिया था कि उनका संगठन इसी वर्ष नवंबर में प्रस्तावित विधानसभा चुनाव में 50 सीटों पर चुनाव लड़ेगा. इनमें जन जाति के लिए आरक्षित 29 सीटों पर आदिवासियों को और शेष में गैर आदिवासियों को मौका दिया जाएगा.

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जाहिर है सर्व आदिवासी समाज राजनीतिक दल में तब्दील हो गया है . चुनाव आयोग से इसकी मान्यता के लिए आवश्यक औपचारिकता पूरी की जा रही हैं.

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यदि इसे राजनीतिक पार्टी के रूप में मान्यता मिलती है तो गोंडवाना गणतंत्र के बाद यह दूसरी पार्टी होगी जिसका आधार आदिवासी समाज रहेगा. अब यह देखना दिलचस्प होगा कि बस्तर व सरगुजा की जनजाति वर्ग के लिए आरक्षित सीटों पर चुनावी समीकरण का ऊंट किस करवट बैठेगा.

वर्तमान में इनमें से 27 सीटों पर कांग्रेस का कब्जा है. अनुसूचित जाति की दस सीटों में से सात कांग्रेस की हैं. यानी कुल 39 सीटों में से 34 कांग्रेस के पास है.राज्य विधानसभा की कुल 90 सीटों में अनुसूचित जाति जनजाति की सीटें निर्णायक भूमिका में रहती आई हैं. जो इन्हें साध लेता है, उसका बेडा पार हो जाता है जैसा कि 2018 के चुनाव में कांग्रेस का हुआ था.

अरविंद नेताम आगामी चुनाव में परिणाम के लिहाज से सर्व आदिवासी समाज को कहां तक ले जाएंगे, फिलहाल कहना मुश्किल है. क्षेत्रीय पार्टी बनाकर वे एक प्रयोग पहले भी कर चुके हैं जो बुरी तरह असफल रहा. उन्होंने पूर्व भाजपा के आदिवासी सांसद सोहन पोटाई के साथ मिलकर जय छत्तीसगढ़ पार्टी बनाई थी जिसने 2013 के चुनाव में 12 प्रत्याशी खड़े किए थे। सभी की  जमानतें जब्त हो गई थीं. आदिवासियों के नाम पर 1991 में बनी हीरासिंह मरकाम की गोंडवाना गणतंत्र पार्टी का भी आदिवासी क्षेत्रों में सीमित प्रभाव रहा। हालांकि मरकाम खुद एक ही चुनाव जीत पाए. और पार्टी एक दो प्रतिशत से अधिक वोट नहीं ले सकी। स्वयं को आदिवासी बताने वाले अजीत जोगी ने भी 2016 में छत्तीसगढ़ जनता पार्टी बनाई जिसने 2018 का पहला चुनाव 53 सीटों पर लड़ा और करीब सात प्रतिशत वोट हासिल किए. उसके पांच प्रत्याशी जीते। पिछले चुनावों में बसपा का प्रतिशत तीन चार के बीच रहा और उसके एक दो उम्मीदवार जीतते रहे.  आम आदमी पार्टी ने भी पिछला चुनाव लड़ा.वह भी कोई असर नहीं दिखा पाई. इस बार भी वह अधिक तैयारी के साथ मैदान में है. इन दलों के चुनाव नतीजे बताते हैं कि ये केवल वोट शेयरिंग करते हैं. वोट काटते हैं. सर्व आदिवासी समाज की स्थिति भी कुछ ऐसी ही प्रतीत होती है. यह पार्टी वोटों के नज़रिए से कांग्रेस या भाजपा को कितना नुकसान पहुंचाएगी अभी कहना मुश्किल है पर सर्व आदिवासी समाज का चुनाव में ताकत के साथ डटे रहना भाजपा के हित में है, और यह ताकत उसे संसाधनों के रूप में मिले तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए. 

दिवाकर मुक्तिबोध छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ पत्रकार है छत्तीसगढ़ की राजनीति की गहरी समझ रखते है.

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.