भारत का संविधान तैयार करने वालों ने कभी नहीं कहा कि संविधान हर प्रकार की त्रुटियों से मुक्त है. यह दावा भी नहीं किया गया कि केवल एक अच्छा संविधान बना देने से भारत की सभी समस्याएं हल हो जाएंगी और सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक दृष्टि से एक मजबूत भारत का निर्माण हो जाएगा. संविधान की सफलता कुछ शर्तों के अधीन रही है. इन शर्तों का जिक्र संविधान सभा की बहसों में बार-बार आता है. हमने संविधान की किताब तो छाप ली, लेकिन उस संविधान को लागू करने के लिए जिस कार्य योजना की जरूरत थी,वह कभी नहीं बनाई गयी. देश ने क़ानून की शिक्षा को प्रोत्साहित किया, लेकिन संवैधानिक मूल्यों की शिक्षा के लिए कोई पहल नहीं की.
मूल भाव को महसूस करना
25 नवंबर 1949 को डाॅ पट्टाभि सीतारमैय्या ने कहा, “मैं आपसे पूछता हूं कि आखिर संविधान का क्या अर्थ है? वह राजनीति का व्याकरण है और राजनैतिक नाविक के लिए एक कुतुबनुमा (दिशासूचक) है. वह चाहे कितना ही अच्छा क्यों न हो, किन्तु स्वयं में वह प्राणशून्य और चेतनाशून्य है और स्वयं किसी प्रकार का कार्य करने में असमर्थ है. वह हमारे लिए उतना ही उपयोगी होगा, जितना उपयोगी हम उसे बना सकते हैं. वह विपुल शक्ति का भण्डार है किन्तु हम उसका जितना उपयोग करना चाहेंगे, उतना ही उपयोग कर पायेंगे. सब कुछ इस पर निर्भर करेगा कि हम उसके शब्दों को ही देखते हैं और उसमें सन्निहित भावना की उपेक्षा करते हैं, अथवा हम उसके शब्दों तथा उसे सन्निहित भावना की ओर भी ध्यान देते हैं. शब्दकोष में सबके लिए शब्द समान होते हैं किन्तु उन्हें प्रयोग करके विभिन्न लेखक विभिन्न शैलियों का सृजन करते हैं. स्वर और ध्वनियां सभी के लिए समान हैं, किन्तु उनसे विभिन्न गायक विभिन्न गीतों की रचना करते हैं. रंग और तूलिकाएं सबके लिए समान हैं, किन्तु उनसे चित्रकार विभिन्न चित्रों को चित्रित करते हैं. इसी प्रकार संविधान के संबंध में भी यह कहा जा सकता है कि सब कुछ इस पर निर्भर करता है कि हम उसे किस प्रकार व्यवहार में लाते हैं.”
असहमति का सम्मान
राजबहादुर ने कहा था कि “संविधान बनाने के इस साहसिक प्रयत्न में पूर्ण रूप से एकमत होना असंभव है. कदाचित एकमत होने की संभावना केवल मूर्ख समाज में ही की जा सकती है. अतः यदि मतभेद हैं तो यह हमारी बुद्धिमत्ता का चिन्ह है. इस बात का चिन्ह है कि हमारा राष्ट्र विचारशील है, मननशील है. हम सबके लिए प्रत्येक विषय में तथा समस्त प्रश्नों पर एकमत हो जाना असंभव है.”
सही लोगों का चुनाव करना
संविधान सभा के अध्यक्ष डाॅ राजेन्द्र प्रसाद ने भी 25 नवंबर 1949 को कहा था कि “यह संविधान किसी बात के लिए उपबंध करे या न करे, देश का कल्याण उस रीति पर निर्भर करेगा, जिसके अनुसार देश का प्रशासन किया जाएगा. देश का कल्याण उन व्यक्तियों पर निर्भर करेगा, जो देश पर प्रशासन करेंगे. यह एक पुरानी कहावत है कि देश जैसी सरकार के योग्य होता है, वैसी ही सरकार उसे प्राप्त होती है. हमारे संविधान में ऐसे उपबंध हैं, जो किसी न किसी रूप में कुछ लोगों को आपत्तिजनक प्रतीक होते हैं. हमें यह मान लेना चाहिए कि दोष तो अधिकतर अवाम, देश की परिस्थिति और जनता में है. जिन व्यक्तियों का निर्वाचन किया जाता है, यदि वह योग्य, चरित्रवान और ईमानदार हैं तो वे एक दोषपूर्ण संविधान को भी सर्वोत्तम संविधान बना सकेंगे. यदि उनमें इन गुणों का अभाव होगा तो यह संविधान देश की सहायता नहीं कर सकेगा. आखिर संविधान एक यंत्र के समान निष्प्राण वस्तु ही तो है. उसके प्राण तो वे लोग हैं, जो उस पर नियंत्रण रखते हैं. और उसका प्रवर्तन करते हैं. और देश को आज तक ऐसे ईमानदार लोगों के वर्ग से अधिक किसी अन्य वस्तु की आवश्यकता नहीं है, जो अपने सामने देश के हित को रखें. हमारे जीवन में भिन्न-भिन्न तत्वों के कारण भेदमूलक प्रवत्तियां पैदा हो जाती हैं. हममें साम्प्रदायिक भेद हैं, जातिगत भेद हैं, भाषा के आधार पर भेद हैं और इसी प्रकार के अन्य भेद हैं. इसके लिए ऐसे दृढ़ चरित्र व्यक्तियों की, ऐसे दूरदर्शी लोगों की और ऐसे व्यक्तियों की आवश्यकता है, जो छोटे-छोटे समूहों और क्षेत्रों के लिए पूरे देश के हितों का परित्याग न करें और जो इन भीड़ों से उत्पन्न हुए पक्षपात से परे हों.”
देशवासियों का चरित्र
जदुवंश सहाय ने 22 नवंबर 1949 को कहा था, “किसी संविधान का सफल होना केवल उन लोगों पर निर्भर नहीं करता, जो उसे व्यवहार में लाते हैं बल्कि उन लोगों पर निर्भर करता है जिनके लिए वह व्यवहार में लाया जाता है. हमारे देशवासियों का चरित्र इसी संविधान की कसौटी पर कसा जाएगा.”
संविधान के सिद्धांतों की शिक्षा देना
लोकनाथ मिश्र ने कहा था, “हमनें बहुत ईमानदारी से परिश्रम करके तथा सर्वोत्कृष्ट उद्देश्य से इस संविधान को पारित किया है और अब हमें देखना है कि व्यवहार में यह कैसा रूप धारण करता है? यह हमारा कर्तव्य है कि हम इस संविधान का पोषण करें. और लोगों को इस संविधान में सन्निहित सिद्धांतों की शिक्षा दें. यह एक महान कार्य है और मुझे आशा है कि हमारा देश तथा केंद्र के हमारे नेता इस कार्य को संपन्न करने में समर्थ होंगे. यदि वे गलत रास्ते पर जायेंगे तो केंद्र के बहुत शक्तिशाली होने के कारण सारा राष्ट्र ही गलत रास्ते पर चला जाएगा.”
लोगों को संविधान और स्वराज्य की शिक्षा देना
23 नवंबर 1949 को संविधान सभा में बलवंत सिंह मेहता ने कहा था, “संविधान को हम जितना अच्छा बना सकते थे, बनाया है. अब हमारा कर्तव्य है कि हम अपनी कान्स्टीट्यून्सीस में जाएं और इस विधान को हम अपने गांवों में लोगों को समझावें, जहां कि हमारा कार्यक्षेत्र है. शिक्षा व प्रचार के अभाव में कभी-कभी जनता में बड़ी गलतफहमी फ़ैल जाती है. आम जनता के लिए स्वराज्य और संविधान का यही मतलब है कि उन लोगों को खाने के लिए रोटी, पहनने के लिए कपड़ा, रहने के लिए मकान और शिक्षा मिले.”
अन्य लोगों के विचारों का सम्मान
26 नवंबर 1949 को संविधान सभा के अध्यक्ष डा. राजेन्द्र प्रसाद ने कहा, “हमने एक लोकतंत्रात्मक संविधान तैयार किया है; पर लोकतंत्रात्मक सिद्धांतों के सफल क्रियाकरण के लिए उन लोगों में (जो इन सिद्धांतों को क्रियान्वित करेंगे) अन्य लोगों के विचारों के सम्मान करने की तत्परता और समझौता करने तथा श्रेय देने के लिए सामर्थ्य आवश्यक है. यह संविधान किसी बात के लिए उपबंध करे या न करे, देश का कल्याण उस रीति पर निर्भर करेगा, जिसके अनुसार देश का प्रशासन किया जाएगा. देश का कल्याण उन व्यक्तियों पर निर्भर करेगा, जो देश पर प्रशासन करेंगे. यह एक पुरानी कहावत है कि देश जैसी सरकार के योग्य होता है, वैसी ही सरकार उसे प्राप्त होती है.”
राजनीति में भक्ति मार्ग न अपनाएं
25 नवंबर 1949 को डॉ. बीआर अम्बेडकर ने अपने अंतिम वक्तव्य में ब्रिटिश दार्शनिक जान स्टुअर्ट मिल का संदर्भ देते हुए कहा कि “लोकतंत्र को बनाये रखने के लिए किसी भी महान व्यक्ति के चरणों में अपनी स्वतंत्रता को चढ़ा न दें या उसे वे शक्तियां न सौंपें, जो उसे उन्हीं की संस्थाओं को मिटाने की शक्ति दे. महान व्यक्तियों के प्रति, जिन्होंने जीवन पर्यंत देश की सेवा की हो, कृतज्ञ होने में कोई बुराई नहीं है. पर कृतज्ञता की भी सीमा है. आयरलैंड के देशभक्त डेनियल ऑ कॉनेल ने उस विषय में यह ठीक ही कहा है कि अपने सम्मान को खोकर कोई पुरुष कृतज्ञ नहीं हो सकता, अपने सतीत्व को खोकर कोई स्त्री कृतज्ञ नहीं हो सकती और अपनी स्वतंत्रता को खोकर कोई राष्ट्र कृतज्ञ नहीं हो सकता. किसी अन्य देश की अपेक्षा भारत के लिए यह चेतावनी अधिक आवश्यक है. क्योंकि भारत में भक्ति या जिसे भक्ति मार्ग या वीर पूजा कहा जाता है, उसका भारत की राजनीति में इतना महत्वपूर्ण स्थान है, जितना किसी अन्य देश की राजनीति में नहीं है. धर्म में भक्ति आत्म-मोक्ष का मार्ग हो सकता है; पर राजनीति में भक्ति या वीर-पूजा पतन तथा अंतत: तानाशाही का एक निश्चित मार्ग है.”
राजनैतिक पक्ष का चरित्र
इसी दिन पंडित बाल कृष्ण शर्मा ने कहा था कि “इस संविधान की आत्मा कहां हैं? प्रश्न यह है कि इस संविधान को कौन कार्यान्वित करेगा, जो इस संविधान को कार्यान्वित करेगा, वह एक निष्कलंक, पवित्र और सुसंगठित राजनैतिक पक्ष होगा या उपद्रवी मनुष्यों का कोई गिरोह होगा?”
सचिन कुमार जैन, संविधान शोधार्थी एवं अशोका फेलोशिप प्राप्त सामाजिक कार्यकर्ता. ‘संविधान की विकास गाथा', ‘संविधान और हम' सहित 65 से अधिक पुस्तक-पुस्तिकाओं का लेखन कर चुके हैं.
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.