आजादी के बाद से ही सरकार ने देश के अलग-अलग हिस्सों में अलग-अलग नस्ल के पशु प्रजनन केंद्र बनाए थे, ताकि इन नस्लों को संरक्षित किया जा सके. आगर मालवा में भी मालवी नस्ल का पशु प्रजनन केंद्र स्थापित किया गया था. इसमें मालवी नस्ल सांड उत्पादन और गौवंश को बचाने की नीयत से एक केंद्र बनाया गया था, जो अब अपने लक्ष्य से अलग दिशा में चलता दिख रहा है.
मध्य प्रदेश के आगर मालवा जिले की शाम कहा जाने वाला बड़ा तालाब सुबह-सुबह अपनी हिलोरों से मन को आच्छादित कर रहा है. तालाब की पाल पर बनी सड़क की दूसरी तरफ शासकीय पशु प्रजनन केंद्र (Government Animal Breeding Center) का बोर्ड नजर आता है. केंद्र के अंदर आसपास का वातावरण हरियाली से सुकून देता है. इसी में एक भवन बना हुआ है, जिसमें एक पुरानी आधारशिला लगी हुई है. इस पर लिखा है सांड उत्पादन केंद्र. इसका शिलान्यास 13 जून 1956 को मध्यभारत के मुख्यमंत्री तख्तमल जैन ने किया था.
भवन के पीछे कई छोटे-छोटे भवन
यानी कि यह मध्य प्रदेश की स्थापना से भी पहले का यह बना हुआ है. इस भवन के पीछे कई छोटे-छोटे भवन खुले मैदान में बने हैं. इनमें कुछ का इस्तेमाल हो रहा है, कुछ बेजान पड़े है. एक छोटे से शेड में कुछ गाय नजर आईं, जो बेहद बीमार और कमजोर हैं. शायद बीमारी के चलते उन्हें अन्य गायों से अलग रखा गया था. थोड़ा आगे बढ़ने पर एक खुला शेड है, जिसमें बहुत से बेहद खूबसूरत छोटे-छोटे गाय के बच्चे हैं. दिखने में सुंदर और तंदुरुस्त. शेड के अंदर गाय के बच्चे हैं, जिनकी उम्र एक साल से भी कम है.
मालवी नस्ल की गाय होती हैं सुंदर
बगल में एक शेड और बना हुआ है, जिसमें गाय को रखने का इंतजाम है. मालवी नस्ल की गाय की यह खासियत है कि ये दिखने में बेहद सुंदर होती है. कजरारी आंखे जैसे आंखों में काजल लगाया हुआ हो और चेहरे की बनावट ऐसी कि देखते ही बनती है. सुंदरता की ऐसी तस्वीर मालवी नस्ल की गाय में होती है, जैसी किसी ब्यूटी पार्लर में इन्हें मेकअप करके लाया गया हो. आम इंसान से इनका व्यवहार बहुत जल्दी दोस्ताना ही जाता है. थोड़ा सा सहलाने पर ये बिल्कुल ऐसे ही जाती है, जैसे परिवार की सदस्य हो.
नेमप्लेट पर लिखा गाय का नाम
सभी गाय जंजीर से बंधी हुई हैं और अपने सामने रखा भूसा खा रही थीं. हर एक गाय के सामने एक नेम प्लेट लगी हुई है जिस पर गाय का नाम , क्रमांक उम्र , जन्म दिनांक, दूध उत्पादन की क्षमता, आदि विवरण की पंक्तियां लिखी हुई थीं. मगर हर एक नेमप्लेट में केवल गाय का नाम ही लिखा हुआ था, बाकी की जानकारियां नहीं लिखी गई थी. कर्मचारी रमेश ने बताया कि वह तीस सालों से इस केंद्र में काम कर रहा है. हर एक गाय से पारिवारिक स्नेह जैसा हो गया है. हर एक गाय को नाम उनके नाम से पुकारा जाता है और उनके बच्चों को भी नाम से ही बुलाया जाता है. जैसे रवीना को पुकारा जाएगा तो उनका बच्चा दूध पीने के लिए दौड़ता हुआ आ जाएगा.
गौवंश केंद्र में पल रहीं भैंसें
इस केंद्र में सात अलग-अलग शेड में गाय और भैंस है. अब आप सोचेंगे कि गौवंश के लिए बनाए गए केंद्र में भैंस का क्या काम ...? दरअसल यह केंद्र अपने मूल मकसद से बहुत अलग होता जा रहा है. इस केंद्र में एक हजार के आसपास गौवंश हुआ करते थे. मगर अनदेखी के शिकार इस केंद्र में गौवंश की संख्या लगातार गिरती जा रही है और यह संख्या अब दो सौ से भी कम हो गई है.
इस केंद्र के संचालन और गौवंश के लिए हरा चारा उपलब्ध कराने की गरज से करीब तीन हजार बीघा जमीन सरकार ने दी हुई है. बावजूद इसके यहां गौवंश को हरा चारा नहीं मिल पा रहा है, या तो खुले में रखे हुए भूसे से इनका पेट भरता है या फिर सूखे चारे से.
साल 2007 से ही यहां इस केंद्र में भैंस वंश को भी स्थान मिल गया. गौवंश घटता गया और भैंसवंश बढ़ता गया. वर्तमान स्थिति में इस केंद्र में गौवंश से ज्यादा भैंसवंश मौजूद हैं, जो यह प्रमाणित करता है कि जिस मकसद से इस केंद्र की स्थापना की गई थी. उस मकसद से यह केंद्र एक अलग ही दिशा में चल पड़ा है.
पशुओं की स्वास्थ्य देखभाल करने वाले पंकज ने बताया कि केंद्र में मौजूद पशुओं के लिए जरूरी दवाइयां उपलब्ध हैं. मगर कभी-कभी जब कोई दवाई उपलब्ध नहीं होती है तो स्टाफ अपने खर्च से उनकी पूर्ति करता है।.
गायों के शेड के आगे खुले में भूसा रखा हुआ है. थोड़ी सी बारिश में इसके खराब होने की संभावना बनी रहती है. भूसे के स्टॉक के लिए जो शेड बनाए गए है, उनका डिजाइन मानक स्तर का नहीं है. उनके दरवाजे बहुत छोटे हैं, जिनमें भूसे के ट्रैक्टर या ट्रक नहीं जा सकते हैं. इसलिए बाहर से आने वाला भूसा खुले मैदान में ही रखवाया जाता है.
केंद्र के प्रबंधक डॉक्टर खरे ने कहा कि यह भूसा जल्द ही मजदूरों की मदद से अंदर शेड में रखवाया जाएगा. हां यह सही है कि खुले में रखने से बारिश आदि से भूसा खराब हो जाता है. मगर हमारे शेड ऐसे नहीं हैं, जिसमें ट्रैक्टर-ट्रॉली सीधे अंदर जा सकें और वह भूसा खाली कर सकें.
घटते हुए गौ वंश और बढ़ते हुए गौवंश के सवाल पर उन्होंने कहा कि जब से आधुनिकता का युग आया है , मशीनों के उपयोग ने बैलों की जरूरत को खत्म कर दिया है. पहले हर किसान को काम के लिए बैल की जरूरत रहती थी, मगर अब ट्रैक्टर ट्रॉली और खेती में अन्य उपकरणों का ईजाद हो गया है. ऐसे में बैल को कोई नहीं पूछ रहा है. केंद्र को चलाने के लिए एक निश्चित बजट की जरूरत रहती है, जो बैलों के बिकने से आता था. अब बैल बिकते नहीं हैं.
गाय का दूध बिक जाता है, लेकिन इतने का नहीं, जिससे खर्चा चल सके. गौशालाओं को सरकार द्वारा जो अनुदान राशि चालीस रुपये प्रति गाय के हिसाब से दी जाती है, वह राशि इस केंद्र को नहीं मिलती. अगर अनुदान राशि का प्रावधान सरकार कर दे तो केंद्र के संचालन में एक बड़ी मदद मिल सकती है.
केंद्र में मौजूद गाय और भैंस के दूध से हर महीने दो लाख रुपये से भी ज्यादा की आमदनी होती है. वहीं, जो गोबर का खाद मिलता है, उससे भी दो लाख रुपये से ज्यादा की आमदनी हो जाती है. केंद्र में सपोर्ट स्टाफ के अलावा 22 कर्मचारी काम करते हैं. केंद्र में इन कर्मचारियों की तनख्वाह पर मोटा खर्च होता है.
दूध देने वाले गाय और भैंस सूखे भूसे और सूखे चारे पर ही आश्रित हैं. इन्हें हरा चारा नहीं मिल पाता. डॉक्टर खरे ने आगे कहा कि चारा उत्पादन के लिए केंद्र पास जमीन तो बहुत है और पानी भी भरपूर है, मगर चारा उत्पादन वाली जगह तक पानी पहुंचाने के लिए संसाधन उपलब्ध नहीं हैं. अगर इसके लिए पाइपलाइन बिछा कर पानी पहुंचाया जाए तो इसमें बड़ी राशि की जरूरत होगी जो केंद्र के पास नहीं है.
डॉक्टर खरे ने यह भी बताया कि केंद्र फिलहाल कुल सात सांड मौजूद हैं. यह आंकड़ा चिंता पैदा करने वाला है. मालवी नस्ल के गौवंश के संरक्षण के लिए इतने बड़े केंद्र में महज सात सांड बेहद कम हैं.
खो देंगे मालवी नस्ल
गौवंश के मामलों को लगातार समाज के सामने रखने वाले समाजसेवी तेजसिंह कहते है कि यह विडंबना है कि सत्तर सालों में इस केंद्र की स्थापना के बाद से एक ईंट भी अभी तक नहीं लग पाई, जो मालवी नस्ल का गौवंश अपने रंग-रूप, खुशबूरती और पोषक तत्वों से भरपूर दूध उत्पादन के लिए जाना जाता, उसके संरक्षण के लिए बनाया गया केंद्र अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रहा है. गौवंश की संख्य इस केंद्र कम होती जा रही है और इसके बचाने के प्रयासों में लापरवाही बढ़ती जा रही है. शासन स्तर पर इसके लिए व्यापक योजना बना कर नए सिरे से इसके संधारण पर काम किए जाने की जरूरत है, नहीं तो हम मालवी नस्ल के गौवंश को इतिहास का हिस्सा मानने के लिए मजबूर हो जाएंगे.