Vidisha Genda Bai Raghuvanshi: विदिशा के एक वृद्धाश्रम की चारदीवारी के भीतर, एक मां ने अपनी आखिरी सांस ली. नाम था गेंदा बाई रघुवंशी, उम्र 82 साल. आश्रम के बाहर खूब चहल-पहल थी लेकिन गेंदाबाई के कमरे में सन्नाटा, और उसी सन्नाटे में एक मां की आंखें दरवाज़े पर टिककर रह गईं, गेंदाबाई के साथ-साथ उसकी आखिरी ख्वाहिश ने भी दम तोड़ दिया. जैसे कोई आता-आता रह गया हो. उनकी सात-सात संतानें थीं, लेकिन विदाई के समय उनके सिरहाने कोई औलाद खड़ी नहीं थी. सिर्फ तन्हाई थी, आंसुओं का सन्नाटा था, और बेबसी की वो चुप्पी थी जो किसी भी मां के दिल को चीर दे. सोचिए कहने को सात संतानें- तीन बेटे और चार बेटियां, पर मां के नजदीक तक पहुंचने की फुर्सत किसी को न मिली उधर मां की अंतिम दुआएं भी आंसुओं की नमी में बुझती रहीं.
गेंदाबाई जब बुजुर्ग हुईं तो उनकी सात संतानों ने उन्हें अकेला छोड़ दिया. तमाम कोशिशों के बावजूद कोई उन्हें रखने को तैयार नहीं हुआ और आज उन्होंने एक वृद्धाश्रम में दुनिया को अलविदा कह दिया.
मां को रखने के लिए डील हुई थी !
यह वही कहानी है जो विदिशा की तहसील नटेरन से उठकर आंखें नम कर गई- सात-सात संतानें, भरा-पूरा परिवार, आर्थिक रूप से सक्षम, फिर भी मां को सहारा देने का साहस किसी ने नहीं दिखाया. कुछ दिन पहले ही स्थानीय प्रशासन के दखल के बाद SDM की मौजूदगी में समझौता हुआ कि हर संतान बारी-बारी से एक-एक महीने मां की सेवा करेगा, मगर रिश्तों की ये डील चार दिन भी नहीं टिकी, और बड़ी बेटी ऑटो में बैठाकर गेंदा बाई को आश्रम के गेट पर छोड़कर चली गई.
अधूरी रह गई मां की ख्वाहिश
उनकी इच्छा बस इतनी थी- एक बार अपने बच्चों को देख लें, एक बार कोई हाथ माथे पर ठहर जाए, एक आवाज़ कह दे, “मां, घर चलो”. इंतज़ार के आंसू भी सूखते चले गए, निगाहें दरवाजे को निहारती रही, शारीरिक और मानसिक हालत बिगड़ती गई. जब कोई अनजाना चेहरा पास आता, वह उसे बेटे या पोते की शक्ल में देखने लगतीं, और फिर खामोश होकर कमरे में लौट आती. श्री हरि वृद्धाश्रम की दीवारों ने इतने किस्से देखे हैं कि हर ईंट एक आह बन चुकी है, और उसी आह के बीच गेंदा बाई का मन “घर” शब्द के अर्थ को आखिरी बार टटोलता रह गया.
नियति से भी ज्यादा निर्मम औलाद !
गेंदा बाई ने अपने हिस्से की भूख दबाकर बच्चों का पेट भरा, अपनी नींद कुर्बान करके उनकी पढ़ाई पूरी करवाई, अपनी इच्छाओं की चिता पर उनके सपने सजाए. लेकिन जब उनकी उम्र ढलान पर आई, आंखें धुंधली हुईं और कदम लड़खड़ाने लगे तो संतानों ने साथ छोड़ दिया. इस मां की आखिरी ख्वाहिश बड़ी मामूली सी थी. मरने से पहले अपने बच्चों का चेहरा देख ले. पर नियति से ज्यादा निर्मम निकली औलादें. बार-बार संदेश भेजे गए, पुकार लगाई गई, लेकिन कोई नहीं आया. और जब खबर पहुंची कि मां अब इस दुनिया में नहीं रही, तब भी सिर्फ एक बेटा अंतिम दर्शन को पहुंचा. बाकी संतानों को तो ऐसा लगा मानो एक टेंशन हमेशा के लिए निजात मिल गई.
माता-पिता के लिए समय नहीं !
गेंदा बाई की खामोश विदाई हमें झकझोरती है. सात बच्चों की मां, मगर अंतिम समय में मां की आंखें अपने ही आंगन को तरसती रह गईं. यह सिर्फ गेंदा बाई की मौत नहीं, यह हमारे समाज के माथे पर कलंक है. सवाल सीधा है- क्या मां-बाप सिर्फ बच्चों के बचपन तक जरूरी होते हैं? और बुढ़ापे में बोझ बन जाते हैं? मंदिरों में भगवान के लिए दीप जलाने वाले, घर के आंगन में बैठी मां की बुझती आंखों को क्यों नहीं देख पाते? गेंदा बाई चली गईं, लेकिन उनका जाना हर उस औलाद के गाल पर करारा तमाचा है, जिनके पास अपने माता-पिता के लिए समय नहीं है.
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