Ganpati immersion in Bhopal: 6 सितम्बर 2025, देशभर में अनंत चतुर्दशी की गूंज थी. ढोल-नगाड़ों की ताल पर गणपति बाप्पा को घर-घर से विदा किया गया. रंग-बिरंगी शोभायात्राएं, हाथों में फूल और दिल में आस्था लेकर भक्तों ने बाप्पा को जल में विसर्जित किया. परंपरा निभाई गई, भावनाएं उमड़ीं, लेकिन इसके बाद किसी ने शायद ही पीछे मुड़कर देखा हो कि उन मूर्तियों का क्या हुआ जिन्हें हमने ये कहकर विदा किया था कि "गणपति बाप्पा मोरया, अगले बरस तू जल्दी आ”. भोपाल में एनडीटीवी की टीम ने जब प्रेमपुरा और खटलापुरा घाट का जायजा लिया तो जो नजारा दिखा उसने ये सवाल छोड़ दिया कि बप्पा वापस आएंगे तो हमें देखकर क्या कहेंगे? क्योंकि यहां की तस्वीरें तो कुछ और ही कहानी बयां कर रही थीं. श्रद्धा तो पानी में बह गई, पर व्यवस्था किनारे पर ही अटक गई. आस्था के साथ विसर्जित की गई सैकड़ों मूर्तियां अब पानी के किनारे ठहरी पड़ी थीं. जिन प्रतिमाओं को दो दिन पहले हाथ जोड़कर, आरती उतारकर जल में समर्पित किया गया था, वही अब तट पर पड़ी थीं- जैसे भक्ति और व्यवस्था के बीच कहीं अटक गई हों.
भगवान गणेश की मूर्तियों के विसर्जन के बाद तालाब की ये स्थिति कई सवाल खड़े करती है
कचरे के ढेर में क्यों पड़ी हैं मूर्तियां?
विसर्जन के वक्त जिस घाट पर रोशनी और सजावट से उत्सव का समंदर उमड़ पड़ा था, अब उदासी का मंजर दिख रहा है. यह दृश्य असहज करता है. सवाल आस्था पर नहीं है, आस्था तो अडिग है, सवाल उस व्यवस्था पर है जो विसर्जन के बाद बाप्पा की प्रतिमाओं को सम्मानजनक विदाई तक नहीं दे पा रही. महापौर मालती राय का दावा है कि नगर निगम ने इस बार सात घाटों पर संपूर्ण व्यवस्था की थी और सारा काम सुगमता से किया गया. पर सवाल ये है कि अगर सब कुछ पूरी व्यवस्था के साथ हुआ तो फिर दो दिन बाद मूर्तियां घाट के किनारों पर क्यों ठहरी हैं? सफाईकर्मी क्यों कह रहे हैं कि “कुंड से निकालकर इन्हें खंती में गाड़ा जाएगा”? क्या यही है बप्पा को विदा करने का सम्मानजनक तरीका? प्रेमपुरा से खटलापुरा तक हर घाट वही कहानी दोहरा रहा है- अधूरी डूबी मूर्तियां, किनारे पर पड़ी प्रतिमाएं.
बप्पा भी पूछेंगे- मेरा ऐसा हाल क्यों?
यहां समस्या किसी एक की गलती नहीं है. मूर्ति निर्माण में प्लास्टर ऑफ पेरिस का इस्तेमाल, परंपरागत विसर्जन की प्रक्रिया और फिर प्रशासन की आधी-अधूरी तैयारी, सब मिलकर यह स्थिति पैदा करते हैं, और श्रद्धा की मूर्तियां ‘कचरे' की तरह किनारे पर पड़ी मिलती हैं. आस्था अपनी जगह है, लेकिन इन तस्वीरों ने एक बार फिर यह सोचने पर मजबूर किया है कि क्या हमारी भक्ति का यही हश्र होना था? क्या हमने आस्था और पर्यावरण के बीच संतुलन बनाना सीखा है? ये सिर्फ़ एक शहर की तस्वीर नहीं, बल्कि उस पूरे तंत्र का आईना है जहां भावनाओं की गंगा तो बहती है, लेकिन व्यवस्था की बेड़ियों में आस्था बार-बार दम तोड़ देती है. बप्पा को विदाई देते वक्त हम कहते हैं— फिर मिलेंगे. लेकिन अगर विसर्जन के बाद की तस्वीर यही रही तो शायद बप्पा लौटकर भी पूछेंगे— “मेरी प्रतिमाओं का हाल ऐसा क्यों?”
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