Dussehra 2023 : बुराई पर अच्छाई की जीत के प्रतीक दशहरे का त्योहार (Dussehra Festival) पूरे देश में उत्साह के साथ मनाया जाता है. इस दिन भगवान राम (Lord Ram) ने रावण (Ravan) का वध किया था और सीता (Sita) माता को बंधन से मुक्त कराया था. आज के दिन रावण का पुतला जलाकार (Dussehra Ravan Dahan) लोग बुराइयों के दहन का संकल्प लेते हैं. लेकिन भारत में एक जगह ऐसी है जहां दुनिया का सबसे लंबे समय तक चलने वाला दशहरा मनाया जाता है और यहां पर रावण का वण नहीं होता बल्कि माता की पूजा होती है और रथ यात्रा निकाली जाती है. यह दशहरा अपने आप में खास है.
कहां मनाया जाता है यह दशहरा?
यह अनूठा दशहरा छत्तीसगढ़ के आदिवासी इलाके बस्तर में मनाया जाता है. इसे ‘बस्तर का दशहरा' भी कहा जाता है, जिसकी चर्चा देश-दुनिया में होती है. इस समारोह में शामिल होने के लिए देश के अलग-अलग हिस्सों के साथ-साथ विदेशों से भी सैलानी आते हैं. बस्तर के दशहरे में राम-रावण युद्ध नहीं, बल्कि बस्तर की दंतेश्वरी माता के प्रति अपार श्रद्धा दिखाई देती है.
कब से होती है शुरुआत?
बस्तर दशहरे की शुरुआत श्रावण के महीने में पड़ने वाली हरियाली अमावस्या से होती है. इस दिन रथ बनाने के लिए जंगल से पहली लकड़ी लाई जाती है. इस रस्म को पाट जात्रा कहा जाता है. यह त्योहार दशहरा के बाद तक चलता है और मुरिया दरबार की रस्म के साथ समाप्त होता है. इस रस्म में बस्तर के महाराज दरबार लगाकार जनता की समस्याएं सुनते हैं. यह त्योहार देश का सबसे ज्यादा दिनों तक मनाया जाने वाला त्योहार है.
यहां रावण दहन नहीं बल्कि देवी पूजा होती है
दशहरे का वैभव ही कुछ ऐसा है कि सबको आकर्षित करता है. असत्य पर सत्य के विजय के प्रतीक, महापर्व दशहरे को पूरे देश में राम का रावण से युद्ध में विजय के रूप में विजयादशमी के दिन मनाया जाता है. लेकिन बस्तर दशहरा देश का ही नहीं, बल्की पूरे विश्व का अनूठा महापर्व है, जो असत्य पर सत्य की विजय का प्रतीक है, मगर बस्तर दशहरा में रावण नहीं मारा जाता बस्तर की आराध्य देवी को पूजा की जाती है.
जानिए बस्तर के दशहरे का इतिहास
दशहरे का संबंध भगवान राम से माना जाता है. दशहरे को लोग बुराई पर अच्छाई की जीत के पर्व के तौर पर मनाते हैं. इसी दिन भगवान राम ने लंका के राजा रावण का वध किया था, लेकिन बस्तर के दशहरे का संबंध महिषासुर का वध करने वाली मां दुर्गा से जुड़ा हुआ है.
रथयात्रा भी होती है
बस्तर में दशहरा पर्व पर रथयात्रा होती है. इस रथयात्रा की शुरूआत 1408 ई. के बाद चालुक्य वंशानुक्रम के चौथे शासक राजा पुरूषोत्तम देव ने की थी. इस क्षेत्र के आदिवासियों में धार्मिक भावना को सही दिशा प्रदान करने के उद्देश्य से राजा पुरूषोत्तमदेव ने जगन्नाथपुरी की यात्रा और अपनी प्रजा को साथ ले जाने का निश्चय किया था. राजा के इस प्रस्ताव का बड़ा प्रभाव पड़ा. लोगों के मन में मुफ्त यात्रा और राजा के साथ जाने की उमंग के भाव के साथ अंचल के मुरिया, भतरा, गोंड, धाकड़़, माहरा तथा अन्य जातियों के मुखियाओं ने राजा के साथ जाने की मन बनाया.
जगन्नाथ स्वामी ने प्रसन्न होकर सोलह पहियों का रथ राजा को दिया
ऐसा बताया जाता है कि राजा पुरूषोत्तमदेव ने अपनी प्रजा और सैन्यदल के साथ जगन्नाथपुरी पहुंचे. पुरी के राजा को जगन्नाथ स्वामी नें सपने में यह आदेश दिया कि बस्तर नरेश की अगवानी कर उनका सम्मान करें, वे भक्ति, मित्रता के भाव से पुरी पहुंच रहे है. पुरी के नरेश ने बस्तर नरेश का राज्योचित स्वागत किया. बस्तर के राजा ने पुरी के मंदिरों में एक लाख स्वर्ण मुद्राएं, बहुमूल्य रत्न आभूषण और बेशकीमती हीरे-जवाहरात जगन्नाथ स्वामी के श्रीचरणों में अर्पित किया.
रथ परिक्रमा की इस रस्म को 800 सालों बाद आज भी बस्तरवासी उसी उत्साह के साथ निभाते आ रहे हैं. मां दंतेश्वरी के मंदिर से मां के छत्र और डोली को रथ तक लाया जाता है, इसके बाद बस्तर पुलिस के जवानों द्वारा बंदूक से सलामी (गार्ड ऑफ ऑनर) देकर इस रथ की परिक्रमा का आगाज किया जाता है.
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