दिवाली यानी रोशनी का त्योहार, जब परिवार के सभी सदस्य एक दूसरे के साथ खुशियां बांटते हैं. लेकिन रायगढ़ के पहाड़ मंदिर के पास स्थित आशा निकेतन वृद्धाश्रम में यह दिवाली कुछ अलग है. यहां दीए तो जल रहे हैं, लेकिन कई आंखें आज भी अपनों की याद में नम हैं.
छत्तीसगढ़ और ओडिशा के अलग-अलग इलाकों से आए करीब 40 बुजुर्ग महिला और पुरुष अब इस आश्रम में अपनी बची हुई जिंदगी बिता रहे हैं. रेड क्रॉस और समाज कल्याण विभाग की ओर से संचालित यह जगह इन बुजुर्गों के लिए अब “घर” बन चुकी है. किसी को बेटों ने छोड़ा, किसी को बहुओं ने और कुछ ऐसे हैं, जो बीमार पड़े तो घरवालों ने अस्पताल की जगह आश्रम भेज दिया.
यहां रहने वाली ज़्यादातर वृद्ध महिलाएं हैं, जो कभी अपने घर की शान थीं. वह आज परायों के बीच अपना सुकून ढूंढ रही हैं. इन्हें यहां इलाज, खाना, सेवा सब मिल रहा है, पर जो कमी है, वह है “अपनों की”. त्योहार के इन दिनों में जब पूरा शहर जगमगा रहा है, तब मानो इनकी आंखों की नमी भी दीयों की लौ के साथ झिलमिला रही है. शहर के कुछ लोग यहां हर साल फल, मिठाई और कपड़े लेकर आते हैं. जब ये बुजुर्ग मुस्कुराते हैं, तो लगता है कि मानो सच्ची दिवाली यहीं मन रही है.
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अपनों से दूर ये लोग अब अजनबियों के बीच अपना परिवार ढूंढ चुके हैं. शायद यही इनकी असली दिवाली है-जहां दर्द के बीच भी उम्मीद की एक छोटी सी लौ अब भी जल रही है.
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