ढोकरा आर्ट: खतरे में 4600 साल पुरानी धरोहर, कोरोना के बाद बिगड़ी शिल्पकारों की हालत

Bastar Dhokra Art: छत्तीसगढ़ के बस्तर जिले में ढोकरा कला की परंपरा 4600 साल से भी अधिक पुरानी है, लेकिन कोरोना काल के बाद शिल्पकारों की स्थिति खराब हो गई है. शिल्पकारों को बाजार की कमी खल रही है और वे आर्थिक तंगी के कारण अपना काम छोड़ मजदूरी करने को मजबूर हो रहे हैं. शासन का दावा है कि शिल्पकारों के उत्थान के लिए कई योजनाएं चलाई जा रही हैं, लेकिन शिल्पकारों को अभी भी बाजार और आर्थिक सहायता की जरूरत है.

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ढोकरा कला

Dhokra Art: छत्तीसगढ़ का बस्तर अपनी कलाकृतियों के लिए विख्यात है. यहां की मिट्टी में हर कला के फनकार हुए हैं. टेराकोटा, बेलमेटल, बांस शिल्प और आयरन आर्ट जैसी कलाओं ने कोंडागांव के कलाकारों को एक खास पहचान दी है. लेकिन इन कलाकृतियों के पीछे छिपी है शिल्पकारों की संघर्षभरी कहानी, लेकिन पिछले कुछ सालों से ये शिल्पकार परेशान हैं....

बेल धातु शिल्पकला, जिसे ढोकरा कला भी कहते हैं. कहते हैं गुड्डन नाम के एक शिल्पकार ने मधुमक्खी के मोम और मिट्टी से मूर्ति निर्माण की तकनीक खोजी. पीतल, तांबे और एल्यूमीनियम के प्रयोग से ये कला विकसित हुई, जिससे कोंडागांव और बस्तर के क्षेत्र को "शिल्पनगरी" का नाम मिला. आज, 150 से अधिक कारीगर इस परंपरा को संजो रहे हैं, जिसमें लोहे, टेराकोटा, बांस, लकड़ी, और हथकरघा शिल्प भी शामिल हैं.

कोंडागांव की पहचान बस्तर आर्ट के लिए रही है. बेलमेटल की कलाकृतियां परंपरागत तरीके से यहां बनाई जाती हैं. बस्तर आर्ट का 90% काम कोंडागांव में होता है. लेकिन कोरोना काल के बाद कई शिल्पकार आर्थिक तंगी के चलते अपना काम छोड़ मजदूरी करने को मजबूर हो गए हैं.

गुजारा भी मुश्किल...

शिल्पकार सुंदर लाल बघेल कहते हैं कि एक दिन में 10 हिरन बना लेते हैं. यहां जो कस्टमर आते हैं, उन्हें बेचते हैं या बाहर प्रदर्शनी ले जाकर बेचते हैं. महीने में 20-25 हजार की बिक्री हो जाती है, लेकिन इसमें रॉ मैटेरियल, कोयला और लोहा खरीदने का खर्चा भी शामिल है. चार लोगों के काम से बमुश्किल 15 हजार रुपये बचते हैं. लेकिन आजकल 15 हजार में गुजारा करना बहुत मुश्किल हो गया है. 

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शिल्पकारों को बाजार की कमी खल रही है. राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता तीजूराम बताते हैं कि कोरोना के बाद राष्ट्रीय स्तर पर प्रदर्शनी और आर्ट मेले कम हो गए हैं. इससे शिल्पकारों की बिक्री पर असर पड़ा है.

तीजूराम का कहना है, "हमारा पारंपरिक काम है, लेकिन सबसे बड़ी दिक्कत मार्केट की है. कोरोना के पहले दूसरे राज्यों में प्रदर्शनियां होती थीं, जो अब कम हो गई हैं. राज्य सरकार के माध्यम से दो प्रदर्शनियां होती हैं, लेकिन ये पर्याप्त नहीं हैं. अगर बाजार मिले, तो गरीब शिल्पकारों का मनोबल बढ़ेगा और उनकी आर्थिक स्थिति सुधरेगी. 

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शिल्पकारों के लिए चल रही कई योजनाएं..

शासन का दावा है कि शिल्पकारों के उत्थान के लिए कई योजनाएं चलाई जा रही हैं. पीएम विश्वकर्मा योजना के तहत कोंडागांव के 1300 से अधिक शिल्पकारों को पंजीकृत किया गया है. आईआईटी भिलाई के सहयोग से शिल्पकारों को तकनीकी सहायता दी जा रही है.

कोंडागांव के कलेक्टर कुणाल दुदावत कहते हैं कि कोंडागांव को शिल्प नगरी के रूप में पहचान दिलाई जा रही है. आईआईटी भिलाई के साथ एमओयू किया गया है ताकि प्रोडक्शन प्रोसेस को सुधारा जा सके. नेशनल लेवल मार्केटिंग के लिए प्रयास जारी हैं. ई-कॉमर्स साइट से जोड़ने और सोशल मीडिया मार्केटिंग की ट्रेनिंग दी जा रही है. हमारा लक्ष्य है कि एक साल में रेवेन्यू को दोगुना किया जाए.

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4600 साल से भी ज्यादा पुरानी है ये कला 

ढोकरा कला भारत की सांस्कृतिक धरोहर में 4600 साल से भी अधिक पुरानी सिंधु घाटी सभ्यता तक जाती हैं.  आजकल रॉक ढोकरा कला के जरिये कलाकार नई कलाकृतियां भी बना रहे हैं लेकिन बाजा़र के बगैर सब बेमानी है इतिहास भी वर्तमान भी... शिल्पकारों की स्थिति ख़राब है लेकिन शासन के अपने दावे है इन दावों के बीच यही उम्मीद की जा सकती है की बस्तर की संस्कृति को बचाने आधुनिक तकनीक से जोड़कर एक इमानदार पहल की जरूरत है ताकि कला के साथ कलाकार जीवित रह सकें. 

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