नक्सल प्रभावित बस्तर को है विकास का इंतजार, अब शिक्षा-पानी, सड़क बनेगा लोकसभा चुनाव में मुद्दा

Lok Sabha elections 2024: नक्सलियों का हेडक्वार्टर रहा तुलसी डोंगरी पहाड़ी के नीचे बसा पटेलपारा गांव के माड़िया जनजाति के लोग आज भी मूलभूत सुविधाओं के लिए तरस रहे हैं.

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टोंड्रापारा और पटेलपारा में अब तक नहीं पहुंची मूलभूत सुविधाएं.

छत्तीसगढ़ (Chhattisgarh) और ओडिशा (Odisha) सीमावर्ती पहाड़ तुलसी डोंगरी लंबे समय तक नक्सलियों का हेडक्वार्टर रहा है और इसी पहाड़ी के नीचले इलाके में बस्तर (Bastar) की माड़िया जनजाति (Madia Gond) का बड़ा समूह बसता है. बस्तर की जनजातियों का रहन-सहन, खान-पान और उनकी संस्कृति विश्वभर में प्रसिद्ध है. चुनाव यात्रा में एनडीटीवी की टीम पटेलपारा (Patel Para) गांव पहुंची.

जंगल और दूरस्थ इलाकों में चुनाव यात्रा में हमारी कोशिश है कि राजनीति की खबरों के साथ ही कुछ ऐसी जानकारियां भी सामने लाएं जो कम ही बाहर आ पाती हैं.

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देश में आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा कहे जाने वाले नक्सल समस्या से बस्तर लंबे समय से जूझ रहा है. बस्तर जिला मुख्यालय से करीब 60 किलोमीटर दूर टीम चांदामेटा के पटेलपारा पहुंचे. यहां से तुलसी डोंगरी पहाड़ साफ दिखता  है, जिसकी प्राकृतिक सौंदर्यता देखते बन रही थी.

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तुलसी डोंगरी पहाड़ वहीं है, जहां लंबे समय तक नक्सलियों का हेडक्वॉर्टर बना रहा. साल 2020 तक यहां कई मुठभेड़े हुईं, लेकिन अब चांदामेटा में कैंप लगने के बाद ये इलाका नक्सलियों के लिए सिर्फ क्रॉसिंग जोन बनकर ही रह गया है. सीमावर्ती इलाका होने के कारण नक्सली ओडिशा से छत्तीसगढ़, तेलांगाना, महाराष्ट्र के इलाकों में जाने के लिए इसका उपयोग करते हैं.

पहाड़ी के नीचे कौन रहता है?

तुलसी डोंगरी के सामने ही चांदामेटा की भी पहाड़ी है. चांदामेटा लंबे समय तक नक्सलियों का ट्रेनिंग सेंटर रहा. इन पहाड़ियों के नीचले हिस्से में माड़िया जनजाति का एक बड़ा समूह रहता है. करीब डेढ़ किलोमीटर तक पहाड़ की चढ़ाई और करीब 500 मीटर नीचे उतरने के बाद टीम टोंड्रापारा पहुंची. आजादी के 75 साल बाद भी यहां के लोगों के पास कच्चे और झोपड़ीनुमा घर ही हैं. ज्यादातर घरों की छत खपरीली ही हैं. एक्का-दुक्का घरों की छत पर सीमेंट की शीट लगी है. ये शीट गवाह है कि आधुनिकता कछुए की चाल से ही सही, लेकिन यहां भी पहुंच रही है. वहीं लगभग सभी घरों की बाउंड्री पेड़ की बल्लियों से बनी है. वहीं गांव के ज्यादातर लोगों को हिंदी नहीं आती.

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चिरौंजी को 100 रुपये में बेचने को मजबूर माड़िया जनजाति

श्याम (22 साल) बताते हैं कि इसमें सागौन, साल जैसी कई बेशकीमती लकड़ियां भी हैं. ये बाउंड्री बीस साल तक खराब नहीं होती.

Chhattisgarh: सभी घरों की बाउंड्री पेड़ की बल्लियों से बनी हुई है.

एक घर के आंगन में छोटी बेर की तरह दिखने वाला फल सुख रहा है. पूछने पर श्याम बताते हैं कि ये चार है. तभी विकास कहते हैं ड्राइफ्रूट चिरौंजी. इसका गुदा खट्टा-मिठा होता है, उसे हटाने के बाद जो बीज निकलता है, वो चिरौंजी होती है.

श्याम कहते हैं कि हम इसे 100 रुपये प्रतिकिलो में बेच देते हैं. मैं हैरान था, क्योंकि शहरी बाजार में चिरौंजी 500 से 700 रुपये प्रतिकिलो की दर से बिकती है.

केला, चिरौंजी, कटहल, महुआ, आम, छिंद का रस, सल्फी समेत अन्य प्राकृतिक संसाधन की बस्तर के जंगलों में रह रहे आदिवासियों के लिए खान-पान और रोजगार के साधन हैं. 

घर के बाहर ही क्यों रखते हैं पानी का बर्तन?

माड़िया जनजाति समूह वाले इस गांव में मुझे एक तस्वीर बड़ी आम नजर आई. सभी घरों में पानी के बर्तन बाहर आंगन में ही रखे हुए नजर आए. पूछने पर श्याम बताते हैं कि हमारे यहां परंपरा है कि घर में कोई भी बगैर हाथ-पैर धोए प्रवेश नहीं कर सकता. बाहर से लाए गंदगी को बाहर ही साफ करके अंदर जाना होता है. यह हमारी संस्कृति और परंपरा का हिस्सा है. चाहे वह घर का व्यक्ति हो या मेहमान, सभी को इसका पालन करना होता है. मुझे कोरोना महामारी का दौर याद आ गया और लगा कि जनजाति खुद को सुरक्षित रखने के लिए कितनी जागरूक हैं. 

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खान-पान और समस्याएं

यहां चावल और पानी से बनने वाला पेज खान-पान का प्रमुख हिस्सा है. इसे रखने के लिए तुंबा का उपयोग किया जाता है. सामान्यतौर पर टमाटर की चटनी, चावल, दाल ही इनका भोजन है. माड़िया जनजाति के लोगों को यहां पीने के लिए साफ पानी की व्यवस्था नहीं है. टोंड्रापारा में तो, जिस पानी को जानवर भी न पीना चाहें, उसे इंसान पीने के लिए मजबूर हैं.

आजादी के 75 साल बाद भी लोगों के पास  कच्चे और झोपड़ीनुमा घर हैं. ज्यादातर घरों की छत खपरीली ही हैं.

यहां कि समस्याएं इतनी ही नहीं हैं, पहाड़ के नीचे बसे टोंड्रेपारा में गंदा पानी पीने से आदिवासी बीमार हो रहे हैं. पौष्टिक भोजन नहीं मिलने से बच्चों पर कुपोषण का खतरा बना हुआ है. सड़क नहीं होने से आंगनबाड़ी जाने वाले बच्चों को भी पहाड़ी सफर तय करना पड़ता है. सरकार की उज्ज्वला योजना की लौ अब तक यहां नहीं जली.

आजादी के 75 साल बाद भी नहीं पटेलपारा में पहुंच सकी बिजली-सड़क

गांव में बिजली के खंभे लग चुके हैं, लेकिन बिजली की उचित व्यवस्था नहीं है. सड़क नहीं होने के कारण कोई बीमार पड़ जाए तो पहाड़ी रास्ता पैदल ही तय करना पड़ता है. ज्यादा बीमार पड़ने पर कंधे या खटिया के सहारे ही पक्की सड़क तक ले जाया जाता है. यह सफर करीब 2 किलोमीटर पहाड़ी या फिर 4 किलोमीटर पगडंडी का रास्ता होता है. 

गांव के परदेशी सोरी कहते हैं कि हमें सरकार कोई सुविधा नहीं दे रही है, इसलिए हम इस बार चुनाव में हिस्सा नहीं लेंगे.

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