Maa Jijibai Mandir Bhopal: “जय माता दी” के स्वर जब ढोलक की थाप और बच्चों की खिलखिलाहट में घुलते हैं, जब धूप-अगरबत्ती की महक हवाओं को पावन बनाती है तब लगता है मानो पूरा वातावरण नवरात्रि के रंग में रच-बस गया है. देशभर में माँ दुर्गा के दरबार फूल, चुनरी और नारियल से सजते हैं. लेकिन कोलार की पहाड़ी पर बसे सिद्धिदात्री पहाड़वाली मंदिर में माँ का रूप निराला है यहाँ उन्हें माँ नहीं, बेटी मानकर पूजा जाता है.
करीब 300 सीढ़ियाँ चढ़कर जब भक्त पहाड़ी की चोटी पर पहुँचते हैं, तो जिजीबाई मंदिर में सिद्धिदात्री जो बाल रूप में विराजमान हैं. यह मंदिर कोई वैभवशाली धाम नहीं, बल्कि भावनाओं का ठिकाना है जिसकी स्थापना आज से तीन दशक पहले पंडित ओमप्रकाश महाराज ने की थी.
पंडित जी स्मृतियों में खोते हुए बताते हैं कि “साल 1994 में यहाँ शिव-पार्वती का विवाह कराया गया था, और उस समय मैंने स्वयं पार्वती को कन्यादान में विदा किया. तभी से मैं उन्हें अपनी बेटी मानता हूँ. जैसे एक पिता अपनी बेटी की छोटी-छोटी इच्छाएँ पूरी करता है, वैसे ही मैं भी चप्पल, जूते, घड़ी, चश्मा, टोपी, जो कुछ भी उन्हें अच्छा लगे, समर्पित करता हूँ.”
NDTV से बात करते हुए पंडित जी ने कहा, “यहाँ मां बेटी के शौक रखती हैं. बच्चों के जो शौक हैं जूता-चप्पल, घड़ी, चश्मा, छतरी सब चढ़ता है इनको. पिछले 20–25 साल में 15–20 लाख रुपये के कपड़े इन्हें चढ़ चुके हैं. अमेरिका, इंग्लैंड, दुबई, कनाडा जहाँ से भी इनके भक्त हैं जब भारत आते हैं तो सामान लाते हैं. चढ़ावे के बाद सामान कभी अनाथालय भेज देते हैं, कभी यहाँ भंडारे में बच्चों को बाँट देते हैं. यह सब भावना का खेल है, मनोकामना पूरी होने के बाद भी करते हैं. मंदिर अपने आप में सक्षम है न यहाँ कोई ट्रस्ट है, न दानपेटी, न चंदा.”
ये भी कहा जाता है कि एक स्वप्न में माँ ने भक्तों से कहा कि “कोई बेटी नंगे पाँव न रहे.” तभी से यह परंपरा शुरू हुई. यहाँ भक्त फूल या मिठाई नहीं लाते, बल्कि रंग-बिरंगे चप्पल-जूते, फ्रॉक, और चमचमाते चश्मे लेकर आते हैं.
नवरात्रि में सीढ़ियाँ नए फुटवेयर से चमक उठती हैं. बच्चों के जूते सीधे माँ के चरणों में चढ़ते हैं, वयस्कों के जूते अलग डिब्बे में रखे जाते हैं. बाद में ये सामान अनाथालयों और ज़रूरतमंद बच्चों में बाँट दिए जाते हैं.
एक भक्त ने भावुक होकर कहा, “अगर मानते हैं कि वो बेटी है, तो उसके शौक पूरे करना स्वाभाविक है. बच्चे जैसे नए जूते-चश्मे से खुश होते हैं, वैसे ही माँ भी प्रसन्न होती हैं. और माँ को देने का मतलब है बच्चों को मुस्कान देना.”
30 साल पुराने इस मंदिर में पहले सन्नाटा था, चारों ओर जंगल. आज भक्ति की भीड़ है, लेकिन विश्वास वैसा ही है. वहां पहुंचे कुछ भक्तों ने हमसे कहा “मैं दो साल से आ रही हूँ, पति ने कहा था कि यहाँ चप्पल चढ़ती है.” “छह साल से आ रही हूँ, कोई चप्पल लाता है, कोई फ्रॉक, कोई छतरी.” “मैं तीस साल से आ रहा हूँ. पहले जंगल था, अब भीड़ है, पर माँ हर मनोकामना पूरी करती हैं.”
जब नवरात्रि आती है, तो 300 सीढ़ियाँ दीपों, ड्रमों और भक्तों की गूँज से आलोकित हो जाती हैं. छोटे-बड़े सब हाथों में चप्पल और भेंट लेकर चढ़ते हैं. बच्चों की हँसी, ढोल की थाप और “जय माता दी” की पुकार मिलकर मंदिर को आस्था के उत्सव में बदल देती है.
यहाँ माँ कोई दूर बैठी महिमा-मंडित देवी नहीं, बल्कि एक बेटी हैं चंचल, मासूम और लाड़ली और जब वह नई चप्पलों से प्रसन्न होकर मुस्कुराती हैं, तो लगता है जैसे पूरी पहाड़ी भक्ति और आनंद से झिलमिला उठी हो.
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