अभासी दुनिया में कितने दूर कितने पास! 'अपनों' की है तलाश

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Rakesh Kumar Malviya

प्यारे मित्रो,
आप सभी का आभार. आपकी शुभकामनाएं हमें सचमुच एक सकारात्मकता से भर देती हैं. यह मैंने कल और महसूस किया जब फेसबुक पर एक गलत जानकारी ने मेरा जन्मदिन मना दिया, मेरा जन्मदिन अप्रैल में आता है. कल कई दोस्तों के फोन आए और आप सभी ने इस आभासी मंच पर मुझे अपनत्व से भर दिया.

सोशल मीडिया का अपना महत्व है. इसने हमारे दायरों को बढ़ाया है. प्रभावी है, मैं इसे पूरी तरह खारिज भी नहीं करता, पर इसने हमारी सामाजिकता और रिश्तों को अपने वश में कर लिया है. हम इसकी गिरफ्त में आकर अपनी वो आदतें भी भूल बैठे हैं जो कभी हुआ हमारे जीवन का हिस्सा हुआ करती थीं. जैसे जन्मदिन की तारीखें. हमें कितने दोस्तों के जीवन के ऐसे मौके याद हैं.

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आंख बंद कीजिए. सोचिए, मुझे खुशी है कि मैं अपने ऐसे दोस्तों की तारीखें याद रख पाया और उन्हें बता पाया कि यार मेरा जन्मदिन तुम्हारे जन्मदिन के इतने दिन बाद आता है. पर बहुत सोचने के बाद भी उन दोस्तों और रिश्तेदारों की संख्या दस-पंद्रह से ज्यादा तो नहीं रहेगी. न ऐसी डायरी ही मेंटेन है. बस सुबह की एक रस्म है जो मैं भी करता हूं जिन-जिन का जन्मदिन है उनको बना-बनाया कार्ड भेज दो. फेसबुक सब रेडीमेड देता है, आपको बस क्लिक करके दोस्ती निभा लेनी है. और शाम तक चार-पांच सौ बधाइयों के बाद हम फूलकर कुप्पा हो जाते हैं कि क्या सचमुच मेरे इतने दोस्त हैं, जो मेरे सुख-दुख में खड़े हो सकते हैं. 

सोशल मीडिया का सेशन लेते हुए मैं अक्सर कुछ साल पहले का अपना एक अनुभव भी साझा करता हूं. एक दोस्त की मां के निधन पर हम उनके अंतिम संस्कार के लिए नर्मदा घाट पहुंचे. वहां पहुंचने वाले तीन गाड़ियों में दस-बारह लोग होंगे. उसी घाट पर एक और व्यक्ति के अंतिम संस्कार के लिए ट्रैक्टर ट्रॉली और बाइक पर सौ से ज्यादा लोग थे. वे सब लोग गांव से आए थे. हमारे दोस्त को सोशल मीडिया और व्हाटएप्प पर यह समाचार फैलते ही सैकड़ों लोगों ने रिप लिखा होगा, उस गांव में सोशल मीडिया का उतना प्रभाव नहीं होगा, पर वो लोग जीवन के सबसे नाजुक क्षणों में साथ खड़े थे. हमारी भावनाएं अब रिप लिखने तक सीमित होती जा रही हैं. मेरी भी.

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और तो और, फेसबुक पर कुछ ऐसे लोगों की वॉल पर जब जन्मदिन की बधाई संदेश देखता हूं जो इस दुनिया से गुजर गए, तो बड़ा दुख होता है कि हम जा कहां रहे हैं? क्या हमें कम से कम उस व्यक्ति के बारे में पता नहीं होना चाहिए कि वो अब उस दुनिया में नहीं है

हम तो जानने-समझने से रहे, हो सकता है कि अब सोशल मीडिया के मंच ही ऐसी व्यवस्था कर दें जिससे उसके जीने या मरने का करंट स्टेटस भी पता चल सके. गुस्सा तो मुझे तब भी आया था जब मेरी दादी के निधन की सूचना देने पर कुछ लोगों ने मेरी पोस्ट पर थम्स निशान लगा दिया. क्या उन लोगों को ऐसे सिम्बॉल का अर्थ नहीं पता अथवा इस आभासी दुनिया ने हमें इतना मशीनी कर दिया है कि हम किसी के निधन पर भी इस तरह की प्रतिक्रिया व्यक्त करें या हमें यह भान नहीं है कि थम्स अप का मतलब क्या होता है!

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एक गलती से क्रिएट हुए जन्मदिन पर बधाईयां देने वाले अजीजी दोस्तों का शुक्रिया. ये सब लिखने का मकसद ने मेरे किसी मित्र का दिल दुखाना है और न ही अपने आप को बड़ा दिखाना है. यह मैं पूरी विनम्रता के साथ आपके साथ साझा कर रहा हूं क्योंकि मैं, तुम, हम सब भी तो कहीं न कहीं इसका शिकार हैं. पर इस पर सोचा नहीं गया, इससे निकला नहीं गया और यह निर्णय नहीं लिया गया कि हम सोशल मीडिया का यूज करेंगे या वो हमारा यूज करेगा, तो हम और ज्यादा गहरे संकट में फंसते चले जाएंगे.

सादर
एक बार पुन: आभार
राकेश कुमार मालवीय

लेखक : राकेश कुमार मालवीय पिछले 14 साल से पत्रकारिता, लेखन और संपादन से जुड़े हैं. वंचित और हाशिये के समाज के सरोकारों को करीब से महसूस करते हैं. ग्राउंड रिपोर्टिंग पर फोकस.

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.