This Article is From Jul 13, 2023

फुदकियों से लदा हेमेलिया

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Manoj Nigam

 

भागमभाग भरी ज़िंदगी में जब घर-परिवार के लिए समय बहुत कम होता था, तब लगभग चार साल पहले घर के सामने के भवन की किसान उत्पादक कम्पनी के मैनेजर ने बताया कि आफिस के चारों और केमरे लगा दिए गए है और एक कैमरा तो आपके आंगन, खिड़की की जद में है, तो आपका घर भी अब सुरक्षित हो जाएगा। नई टेक्नालाजी से थोड़ी खुशी हुई और मन में यह भी ख्याल आया कि कैमरा लग जाने से कैसे सुरक्षित हो सकेगा। तब से अब तक ना उस कम्पनी में कोई चोरी हुई ना घर में, हालांकि एक दिन आंगन से गमला गायब था, तब जिज्ञासा हुई कि देखते हैं कौन ले गया, लेकिन यह सोचकर नहीं देखा कि सिर्फ जगह ही तो बदली है, कहीं तो फूल खिल ही रहा होगा।

कोविड लाक-डाउन की पूरी अवधि में जब मालूम नहीं था कि भविष्य में क्या होने वाला है, बस यह खिड़की ही थी, जिससे सामने वाली कम्पनी के बगीचे में लगे पाम और फूलों से लदें चम्पा और कुछ नाम नामूलम पेड़ पौधों के साथ, मुंडेर के आसपास कबूतर, किंगफिशर, सेवन सिस्टर, गौरेया की चहल पहल के साथ आसमान का एक टुकडा उम्मीद की तरह दिखता था,

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आबो-हवा इतनी साफ हो गई थी कि कभी कभी तो ड्रोंगो भी दिख जाता था और हर साल बसंत में होने वाला दमे का अटैक भी नहीं आया था। धीरे धीरे एक हैमेलिया के पत्ते और फूल बाउंड्री-वाल पर लगी लोहे की सलाखों के बीच से झांकने लगा था।

उन पर धीरे धीरे फुदकियां भी बिना शर्माएं आने लगी, देखते ही देखते हेमेलिया अच्छा खासा बड़ा हो गया, फूलों से लद गया और बहुत सारी फुदकियां उस पर उल्टी-सीधी लटक लटक लद-लद कर झूमने लगीं। शकरखोरा का नाम फुदकी मैनें रखा था, पहले जब भी फुदकियों से वास्ता पड़ा था, तब तो वो इतनी शर्मिली थी कि हल्की सी आहट पाते ही फट से हवा में गोते लगाते दूर हो जाती थी, तब यह भी लगता था कि क्या इतनी बुरे हैं हम। अब उनको हमारी और हमको उनकी आदत सी हो गई थी, उनका डर कम होता गया और हमारा प्यार बढ़ता गया। बहुत महीनों तक यह नज़ारे जीवन का हिस्सा रहे।

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लाक-डाउन खुला और नज़र भर आसमान का एक टुकड़ा और बहुत सारे टुकड़ों में जा मिला। गाड़ियों और लोगों की आवा-जाही फिर बढ़ने लगी, लोग काम पर जाने लगे और हम भी।

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एक दिन वापस आकर देखा तो दिल धक्क सा हो गया बाउंड्री-वाल पर लगे पेड़-पौधे गायब हो गए थे, उनके साथ ही हेमेलिया की टहनियां, पत्ते और फूल भी।

कबूतर उपर मुंडेर पर बैठे गुटर गूं कर रहे थे, फुदकियों में से एक भी फुदकी नज़र नहीं आई। कुछ दिनों बाद बंद पड़ी कम्पनी का मैनेजर आया, उसने बताया कि पेड़ बड़ा हो जाने की वज से कैमरों में कुछ भी नहीं दिख रहा था, वह सुरक्षित नही था। हैमेलिया के फूलों और फुदकियों के नाम रहने का सारा गुस्सा उन पर निकाल दिया। लेकिन उससे क्या होना जाना था, सो कुछ नही हुआ। वह कम्पनी अब थोड़ी ज्यादा जगह पर अपना आफिस चाहती है, तो ज़ाहिर है, बचे रहे-सहे पेड़ पौधे भी चले गए, चम्पा भी, वह सब नामूलम पौधे भी, पाम किसी के आड़े नही आया तो वह बचा रहा। अब वहां आलीशान भवन बन रहा है, तो आसमान का वह टुकड़ा भी ना रहा।

जो फुदकियां पहले डर कर फुर्र हो जातीं थी, फिर वह आसपास मंडराने लगीं और फिर सब जाने कहां चली गईं। प्रवासी पक्षी सब अपने वतन को लौट चुके थे, पास के तालाब और उसके आसपास का इलाका एकदम से सुनसान हो गया और ऊपर से चिलचिलाती धूप भी होने लगी।

समय बीतते फुदकियों की आदत भी ना रही और याद भी। एक लम्बे अरसे के सूनेपन के बाद एक फुदकी की चहचहाहट आंगन में क्या गूंजी, कि घर में खुशियों का झरना बह गया।

बाहर आकर देखा कि एक पतले तार पर बार बार आकर बैठ रही है, तार को दबा दबा कर शायद अपनी चोंच को सहला रही होगी, तार से तो उसका क्या मिलता जो कि हेमेलिया के फूलों के रस से मिलता होगा। दो-तीन दिन बाद सुबह सुबह देखा घर की उसी खिडकी जिस पर लाक-डाउन में उम्मीद का आसमान दिखता था, उसी खिड़की से लगी तार में लिपटी बेल के एक हिस्से पर अपना घोंसला बना रही है और इस काम में उसकी कुछ साथिनें और आ-आ कर अपनी चहचहाहट फैला रही हैं। अब खिडकी से एक नई उम्मीद सुनाई दे रही है, प्याले के आकार के इस घोंसलें को फुदकी को उसी शिद्दत के साथ बनाते देख रहे है, जैसे कि हमने यह घर बनाया, और सच कहूं तो इस मोहल्ले में कोई अलग बात नही थी, बस इसका नाम गुलमोहर था, सो यह घर ले लिया कि मन के गुलमोहर का नाम अब मेरे पते के साथ भी होगा।

घोंसला इतना मुलायम, इतना सुरक्षित और उसके हिसाब से मजबूत भी, मां बनने से पहले इतनी हिफ़ाजत, चिन्ता और खुशी हम लोग देख पा रहे थे। कुछ दिनों से अनमनी सी बैठी रहती। हम भी कोशिश करते कि उसको कोई खलल ना पड़े।

कुछ ही दिनों में उस घोसले में दो अंडे देखने को मिले, फुदकी युगल हर थोड़ी देर में आता, घोंसले को देख कर कुछ गा कर चला जाता। एक सुबह थोड़ी ज्यादा चहचहाहट सुन खिड़की से झांका, इतनी खुशी हुई कि क्या बताएं,

सचमुच सोहर गाने का मन हो रहा था, इतने सुंदर, नाज़ुक और प्यारे से दो बच्चे।मां फुदकी बाहर से चोंच भर खाना लाती और नन्हों के मुंह में डालती रहती। यह सब हमारे जीवन का हिस्सा लगने लगा। फुदकी ने हमारे आंगन को सुरक्षित मान हम पर विश्वास किया, तो हमने अपने घर का नया पता घोषित किया - फुदकी के घोंसले के ठीक पीछे, गुलमोहर कालोनी, भोपाल।

और उस कम्पनी में लगी बंद खिड़कियों के कांच पर उकेर कर बनवाई गईं पेड़ की आकृति दिखतीं है, अपनी बीते दिनों की याद में जिनपर चोंच मारकर भूली भटकी कुछ फुदकियां वापस चलीं जाती हैं। कभी पास के खाली प्लाट पर लगाया नीम का पौधा अब पेड़ बना गया है और उसकी शाखाएं मेरी खिड़की से उम्मीद की तरह दिखती है। जैसी कि एक सूफी कहावत है कि मन का पेड़ हरा रखना, कोई चिड़िया आएगी, उस पर बैठ गायेगी गाना।

मनोज निगम - मूलत सिविल इंजीनियर और सामाजिक कार्यकर्ता हैं। 30 से अधिक सालों से शैक्षिक संस्था एकलव्य फाउंडेशन में विभिन्न भूमिकाओं में सक्रिय हैं. वर्तमान में संस्था के कार्यकारी अधिकारी। ईमेल manojnig@yahoo.co.in

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं

 

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