This Article is From Jan 15, 2024

खत्म है जोगी कांग्रेस का भविष्य !

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Diwakar Muktibodh

छत्तीसगढ़ में वर्ष  2016 में भाजपा व कांग्रेस के बाद तीसरी राजनीतिक शक्ति के अभ्युदय की जो संभावना जगी थी, वह अब पूर्णतः समाप्त हो गई है. बात पूर्व मुख्यमंत्री स्वर्गीय अजीत जोगी के नेतृत्व में गठित जनता कांग्रेस छत्तीसगढ़ की है. साल 2018 के करीब दो वर्ष पहले जोगी ने कांग्रेस का दामन छोड़कर इस विश्वास के साथ नई पार्टी का गठन किया था कि चुनाव में भले ही उनकी पार्टी बहुमत हासिल न कर पाए लेकिन इतनी सीटें अवश्य जीत लेगी ताकि सत्ता की चाबी उनके हाथ में रहे. किंतु उनकी सारी उम्मीदें धरी रह गई जब विधानसभा चुनाव में उनकी पार्टी महज पांच सीटें जीत सकीं. हालांकि 7.65 प्रतिशत वोट और लगभग बीस विधानसभा निर्वाचन क्षेत्रों में जनता कांग्रेस छत्तीसगढ़ का प्रदर्शन एक नई नवेली पार्टी के रूप में अपने गठबंधन की पार्टी बसपा से बेहतर रहा. बसपा दो सीटें जीत पाई और उसके वोटों का प्रतिशत जोगी कांग्रेस से आधे से भी कम रहा.

कांग्रेस के कभी कद्दावर नेता रहे अजीत जोगी को अपनी पार्टी व संगठन को मजबूती देने के लिए केवल दो वर्ष मिले थे और इस बीच उन्हें विधानसभा चुनाव का सामना करना पड़ा. यदि वे जीवित रहते तो यह संभव था कि उनकी पार्टी तीसरे विकल्प के रूप में स्थापित रहती.

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इस जवान राज्य के राजनीतिक इतिहास में 2018 के चुनाव को छोड़ दें तो किसी भी क्षेत्रीय पार्टी का विधानसभा में वजूद नहीं रहा. एनसीपी,समाजवादी पार्टी,आम आदमी पार्टी , बसपा,जनता दल यूनाइटेड,मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी,भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी आदि राष्ट्रीय स्तर की पार्टियां हैं जिनका छत्तीसगढ़ के प्रत्येक चुनाव में प्रभाव लगभग शून्य रहा है.

चंद क्षेत्रीय दल भी चुनाव के दौरान तो नज़र आते रहे किंतु उनमें से केवल गोंडवाना गणतंत्र पार्टी ही राज्य में अपना अस्तित्व जताती रही है.उसे पहली बार 2023 के चुनाव में सफलता मिली जब उसके एक प्रत्याशी तुलेश्वर हीरासिंह मरकाम ने पाली-तानाखार से चुनाव जीता. इसके पूर्व उनके पिता हीरा सिंह मरकाम अविभाजित मध्यप्रदेश की विधानसभा में पहुंचे थे.

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तेजी से उभरती हुई एक पार्टी मजबूत नेतृत्व के अभाव में किस तरह दम तोड़ने लगती है उसका एक उदाहरण जोगी कांग्रेस है.अजीत जोगी की 29 मई 2020 में मौत से छत्तीसगढ़ जनता पार्टी का भविष्य अंधकार में चला गया. उनकी मौत के बाद संगठन की कमान उनके  पुत्र अमित जोगी के हाथ में आ गई जो पिता के 2000-2003 में मुख्यमंत्री रहते सुपर सीएम माने जाते थे. शासन-प्रशासन में अप्रत्यक्ष रूप से उनका हस्तक्षेप रहता था. कांग्रेस के सत्ता से बेदखल होने के पश्चात वे सीधे तौर पर राजनीति में सक्रिय रहे. वे  2013-2018 में मरवाही विधानसभा क्षेत्र से विधायक भी रहे. पर यह सच सामने था कि पिता की राजनीतिक विरासत को सहजने-सवांरने और कुछ बेहतर करने की वैसी सांगठनिक क्षमता उनमें नहीं है जैसी अजीत जोगी में थी.लिहाज़ा संगठन कमजोर होता गया.अमित पार्टी को एकजुट नहीं रख सके जिसका नतीजा यह रहा कि 2023 के चुनाव के नजदीक आते-आते पांच विधायकों में से दो ने अलग राह पकड़ ली ,अजीत जोगी व देवव्रत सिंह की मौत हो गई. केवल जोगी की पत्नी रेणु जोगी ही पार्टी की एकमात्र विधायक रह गई थी. पर वे भी 2023 के चुनाव में कोटा निर्वाचन क्षेत्र की अपनी सीट नहीं बचा सकीं, हार गईं.

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दरअसल अजीत जोगी के निधन के बाद से ही जनता कांग्रेस छत्तीसगढ़ की राजनीतिक स्लेट पर भविष्य की इबारत लिखी जा चुकी थी. बिखरे हुए संगठन के एक मात्र नेता अमित जोगी थे जबकि उनकी मां रेणु जोगी स्वास्थ्य की समस्याओं से जूझ रही थीं. ऐसे में विधानसभा चुनाव में दम दिखाने का ताव पार्टी में नहीं था.

इधर भाजपा को 2023 के विधानसभा चुनाव के पूर्व एक ऐसे मोहरे की तलाश थी जो कांग्रेस के खिलाफ उसका साथ दे सके. उसकी यह तलाश जोगी कांग्रेस ने पूरी कर दी. यद्यपि जनता कांग्रेस छत्तीसगढ़ ने भाजपा के साथ कोई चुनावी गठजोड़ नहीं किया लेकिन जब अमित जोगी ने अधिकांश सीटों पर उम्मीदवार खड़ा करने और खुद मुख्यमंत्री भूपेश बघेल के निर्वाचन क्षेत्र पाटन से लड़ने का एलान किया तब स्पष्ट हो गया था कि पार्टी को चुनाव लड़ने के लिए संसाधनों की आपूर्ति भाजपा की ओर से की जा रही है. चुनाव में इस पार्टी की उपस्थिति वोटों के विभाजन की दृष्टि से भाजपा के लिए मुफीद थी. और जैसी कि संभावना थी , जोगी कांग्रेस ने केवल वोट काटने का काम किया. उसके प्रत्याशी बुरी तरह हार गए. स्वयं अमित जोगी पाटन में पांच हजार से भी कम वोट हासिल कर सके. केवल मरवाही व अकलतरा में प्रदर्शन ठीक रहा. पार्टी के वोटों का प्रतिशत रहा 1.21. चुनाव में जोगी कांग्रेस की मौजूदगी से भाजपा को भले ही लाभ हुआ हो या न हुआ हो किंतु इससे कांग्रेस को कोई खास नुकसान नहीं हुआ अलबत्ता यह स्पष्ट हो गया कि अस्तित्व से जूझ रही इस पार्टी का कोई राजनीतिक भविष्य नहीं है तथा वह अपने लिए कोई मजबूत आधार ढूंढ रही है.

उसे आधार भाजपा से मिलता दिख रहा है. भाजपा उसे अपने संरक्षण में लेगी अथवा नहीं, यह अलग सवाल है. हालांकि विधानसभा चुनाव के दौरान जनता कांग्रेस छत्तीसगढ़ की भाजपा से नज़दीकियां, भाजपा के चुनाव जीतने के बाद उसके मुख्यमंत्री विष्णु देव साय के अभिनंदन के बहाने मां-बेटे की उनसे मुलाकात और नये वर्ष में 8 जनवरी को नई दिल्ली में अमित जोगी का गृहमंत्री अमित शाह से मिलना जैसी घटनाएं बताती हैं कि जनता कांग्रेस छत्तीसगढ़ भाजपा में समाहित होना चाहती है. कहा गया कि पार्टी के नेता व कार्यकर्ताओं की भी यही राय है.वे भी विलय चाहते हैं.

बहरहाल गेंद भाजपा के पाले में है. वह उसे किस तरह लौटाएगी , इसका अनुमान लगाना फिलहाल मुश्किल है. हो सकता है लोकसभा चुनाव के पूर्व जोगी कांग्रेस का भाजपा में नि:शर्त विलय हो जाए अथवा वह भाजपा की बी टीम बनकर, जिसका टैग अजीत जोगी के रहते ही पार्टी पर चस्पा हो गया था

, लोकसभा चुनाव में भी अप्रत्यक्ष रूप से उसकी मदद करे. चूंकि भाजपा का संकल्प राज्य की सभी 11 सीटें जीतने का है लिहाज़ा वह चाहेगी कि जोगी कांग्रेस मैदान में डटी रहे ताकि कुछ हद तक सही , कांग्रेस का नुकसान हो. यानी फिलहाल पार्टी का पृथक अस्तित्व बने रहने की संभावना अधिक प्रबल लगती है.

बीते राजनीतिक घटनाक्रमों को देखते हुए सवाल उठता है कि देर-सबेर विलय की प्रक्रिया पूर्ण होने के बाद अमित जोगी की स्थिति क्या रहेगी ? जैसी उनकी प्रकृति है, क्या भाजपाई उन्हें बर्दाश्त कर पाएंगे ? आमतौर पर भाजपाई किसी बाहरी को खासकर कांग्रेस की पृष्ठभूमि के व्यक्ति को दिल से स्वीकार नहीं कर पाते। इसके अनेक उदाहरण हैं। मिसाल के तौर पर विद्दाचरण शुक्ल या अरविंद नेताम भाजपा में कब आए कब गए, पता ही नहीं चला. वैसे अजीत जोगी की मृत्यु के बाद रेणु जोगी चाहती थीं कि उनकी पार्टी कांग्रेस में विलीन हो जाए. तब वे कांग्रेस में ही थीं. उन्होंने अपने स्तर पर पुरजोर प्रयास किए. किंतु मामला अमित जोगी को भी स्वीकार करने के सवाल पर अटक गया. प्रदेश कांग्रेस अमित को छोड़कर पूरी पार्टी को अपने में समाहित करने के लिए तैयार थी. पर कोई भी मां अपने बेटे को अकेले कैसे छोड़ सकती थी ? लिहाज़ा मामला खत्म हो गया. यह पेंच यद्यपि भाजपा में नहीं रहेगा किंतु विलय की स्थिति में अजीत जोगी द्वारा निर्मित पार्टी जो छत्तीसगढ़ में कांग्रेस व भाजपा के विकल्प के रूप में स्वयं को पेश करने का ख्वाब देख रही थी, वह अब खत्म होती नज़र आ रही है.

 दिवाकर मुक्तिबोध छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ पत्रकार हैं और राज्य की राजनीति की गहरी समझ रखते है.

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.