International Labour Day 2025: स्वतंत्रता संग्राम के दौरान, 1918 के अहमदाबाद टेक्सटाइल मिल मजदूर सत्याग्रह (Ahmedabad Mill-Workers Satyagraha) ने मजदूर वर्ग के आंदोलन को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. यह आंदोलन 1918 के फरवरी और मार्च में अहमदाबाद में हुआ था, जिसका नेतृत्व मुख्य रूप से कपड़ा मिल मजदूरों ने किया था, जो खराब कामकाजी परिस्थितियों के खिलाफ हड़ताल कर रहे थे. वहीं महात्मा गांधी के आंदोलन में शामिल होने और मजदूरों के पक्ष में बातचीत के उनके समर्थन ने इस आंदोलन को बढ़ावा दिया. इसमें एक अहम किरदार अनुसूया साराभाई भी थीं. उन्होंने अपने भाई (अंबालाल साराभाई) के खिलाफ जाकर उनकी ही कंपनी के विरोध में चल रहे आंदोलन को समर्थन दिया. उस दौर में ऐसा बगावती तेवर अपने आप में अनोखा उदाहरण था. वहीं 1918 का अहमदाबाद टेक्सटाइल मिल मजदूर सत्याग्रह भारत में अहिंसक सत्याग्रह के लिए गांधी के तीन शुरुआती प्रयासों में से एक था. इस सत्याग्रह ने भारतीय जनता के बीच “भूख हड़ताल” को लोकप्रिय बनाया. कहा जाता है कि पहली भूख हड़ताल इसी श्रम आंदोलन से देखने को मिली.
कैसे बने थे ये हालात? Background of Ahmedabad Mill Strike
1900 के दशक की शुरुआत में ब्रिटिश भारतीय औद्योगिक संस्थानों, खासकर कपड़ा मिलों में खराब कामकाजी परिस्थितियां और श्रम शोषण प्रचलित था. गुजरात का अहमदाबाद बंदरगाह, रेल और ब्रिटिश उद्यम के करीब होने के कारण कपड़ा निर्माण के लिए एक प्रमुख केंद्र बन गया था. अंबालाल साराभाई जैसे भारतीय उद्यमी और ब्रिटिश मिल मालिक इसके कपड़ा कारखानों के मालिक थे. वहीं मिल श्रमिकों के लिए काम करने की परिस्थितियां बेहद कठिन थीं.
प्लेग बोनस वापस लेना
1917 में, अहमदाबाद में प्लेग के प्रकोप ने मिल मालिकों को 'प्लेग बोनस' की पेशकश करने के लिए प्रेरित किया, जो कि सामान्य वेतन का 75% तक हो सकता था, ताकि श्रमिकों को क्षेत्र से भागने से रोका जा सके. जब महामारी खत्म हो गई तो मालिकों ने बोनस वापस लेने का प्रयास किया, लेकिन कर्मचारियों ने इसे जारी रखने पर जोर दिया.
लंबे समय तक काम करना और कम वेतन
अहमदाबाद की कपड़ा मिलों में काम करने वाले अधिकांश गरीब किसानों और ग्रामीण क्षेत्रों के प्रवासियों को कम वेतन मिलता था. सप्ताह में 70 घंटे से अधिक काम करने के लिए, उनका औसत वेतन लगभग 5 रुपये था. कार्य दिवस लंबे और कठिन थे, जो 12 से 15 घंटे तक चलते थे. महिलाओं और बच्चों को भी इस मांग वाले काम के लिए मज़दूरी करनी पड़ती थी. शहरी जीवन-यापन का खर्च भी बढ़ रहा था.
मिल मालिकों द्वारा युद्ध से मुनाफ़ा कमाना
भारतीय स्वतंत्रता से पहले, स्वदेशी विचार के ज़ोर पकड़ने के कारण मिल मालिकों ने युद्धकालीन कपड़ा उद्योग में उछाल से बड़ा मुनाफ़ा कमाना चाहा. उन्होंने मज़दूरों का दुरुपयोग करके उत्पादन को अधिकतम करने का प्रयास किया. छुट्टी, न्यूनतम वेतन, दुर्घटना लाभ और अन्य सुविधाओं के बारे में इनकार किया गया. दुर्व्यवहार और जुर्माना अक्सर होता था. कॉर्पोरेट मुनाफ़े में उछाल के बावजूद, उत्पादन में अस्थायी गिरावट का सामना करने वाले श्रमिकों को छंटनी या वेतन में कटौती से असमान रूप से नुकसान उठाना पड़ा.
1918 में, अहमदाबाद के कपड़ा मिल श्रमिक मिल मालिकों की बढ़ती आय के सामने अपनी भयावह कार्य स्थितियों से क्रोधित थे. अनसूया साराभाई और नवगठित यूनियनों के अन्य स्थानीय नेताओं ने श्रमिकों की ओर से बात की.
प्यार से 'मोटाबेन' के नाम से पुकारी जाने वाली अनसूया साराभाई का देश के इतिहास में एक अनूठा स्थान है. अहमदाबाद के संपन्न साराभाई परिवार में 1885 में जन्मी अनसूया ने मात्र नौ वर्ष की आयु में अपने माता-पिता दोनों को खो दिया था. उन्हें और उनके दो छोटे भाई-बहनों को उनके पिता के छोटे भाई चिमनभाई साराभाई ने पाला था. उनको भाई अंबालाल का पूरा सहयोग था. लेकिन अनसूया जब से इंग्लैंड से लौटी थीं, तब से वे महिलाओं और निचली जातियों के सामने आने वाली चुनौतियों के समाधान के लिए काम कर रही थीं, लेकिन एक बातचीत ने उन्हें भारत में कामकाजी मध्यवर्ग की वास्तविकताओं से परिचित कराया. उन्हाेंन अपने भाई के खिलाफ ही अहमदाबाद मिल वर्कर हड़ताल में सहयोग दिया. बाद में, अनसूया ने खेड़ा सत्याग्रह में भी प्रमुख भूमिका निभाई और रॉलेट बिल का विरोध करने के लिए गांधीजी द्वारा बनाए गए 'सत्याग्रह प्रतिज्ञा' पर हस्ताक्षर करने वाली पहली महिलाओं में से एक थीं.
गांधी का आगमन और हड़ताल की मांग, जन-आंदोलन व एकता
मोहनदास करमचंद गांधी को फरवरी 1918 में श्रमिक आंदोलन का नेतृत्व करने के लिए अहमदाबाद में आमंत्रित किया गया था. जब मिल मालिकों ने अनुरोधों पर अनुकूल प्रतिक्रिया नहीं दी तब गांधी ने 22 फरवरी की मध्यरात्रि को अहिंसक राष्ट्रव्यापी हड़ताल का आह्वान किया. योजना के अनुसार, अगली सुबह 100,000 से अधिक परिवारों और कपड़ा श्रमिकों ने मिलों के बाहर शांतिपूर्वक धरना दिया. गांधी के मार्गदर्शन में, एक सप्ताह से अधिक समय तक अनुशासित अहिंसा के साथ विशाल हड़ताल जारी रही.
श्रमिकों के अहिंसक लचीलेपन ने पूरे सत्याग्रह के दौरान पहल को उनके साथ रहने दिया. आगे मिल मालिक पहले तो बातचीत के सख्त खिलाफ थे, लेकिन गांधी की मदद से वे आखिरकार मान गए. समझौता समझौते से शुरुआती मांग का लगभग 35% पूरा हुआ, जिसमें 20% वेतन वृद्धि भी शामिल थी. गांधी ने युद्धविराम को अहिंसक दबाव की एक सामरिक सफलता के रूप में देखा, इस तथ्य के बावजूद कि कई अन्य लोगों ने इसे अपर्याप्त माना.
जैसा कि सहमति हुई थी, कर्मचारी काम पर वापस चले गए क्योंकि और बातचीत हुई. दूसरी ओर, मिल मालिकों ने जवाबी कार्रवाई करते हुए हड़ताली नेताओं को निकाल दिया और वेतन कम कर दिया. उत्पीड़न के परिणामस्वरूप विरोध फिर से शुरू हो गया. अराजकता के डर से, मालिकों ने अंततः निकाले गए कर्मचारियों को बहाल करने और पिछले वेतनमान को वापस लाने पर सहमति व्यक्त की. हालाँकि समस्याएँ जारी रहीं, लेकिन धीरे-धीरे सब कुछ सामान्य हो गया.
यहां श्रमिकों के निस्वार्थ बलिदान ने मांगों की निष्पक्षता को प्रदर्शित किया. हड़ताल ने विवादों को शांतिपूर्ण तरीके से निपटाने में मध्यस्थता की उपयोगिता को प्रदर्शित किया. गांधी के आश्रम में, मजदूरों ने हड़ताल के दौरान निर्माण, बुनाई और अन्य संबंधित क्षेत्रों में कौशल हासिल किया.
1918 की अहमदाबाद मिल हड़ताल ने अहिंसा, जन आंदोलन, कर्मचारी-नियोक्ता बातचीत और बेहतर कामकाजी परिस्थितियों के लिए सकारात्मक कार्यक्रम-आधारित दृष्टिकोण के गांधीवादी सिद्धांतों को लागू करने का एक उपयोगी उदाहरण पेश किया. इसने शोषण के खिलाफ मजदूर वर्ग की एकता को मजबूत करके और श्रम और राष्ट्रीय ताकतों के बीच महत्वपूर्ण संबंध बनाकर भारत के मुक्ति संघर्ष को ऊर्जा दी.
लेखक- अजय कुमार पटेल
अजय कुमार पटेल, संविधान संवाद फैलो हैं. पिछले एक दशक से ज्यादा से पत्रकारिता कर रहे हैं और इन्होंने इस दौरान देश के कई शहरों में अलग-अलग माध्यमों में काम किया. वे विभिन्न विषयों पर लिखते हैं.
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं