मिट रही जनजातियों की भाषाओं से खतरे में भारत की आदिम संस्कृति

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Priyadarshi Ranjan

हर तीन किलोमीटर पर भारत में विविध प्रकार की सभ्यता व संस्कृति पाया जाता रहा है लेकिन अब भारत की यह  विविधता खतरे में हैं. भारत की  'तीन कोस पर वाणी' बदलने की प्रवृति विलुप्त होने के कगार पर है. संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक, वैज्ञानिक तथा सांस्कृतिक संगठन (यूनेस्को) ने तो वर्ष 2019 में पहले ही  इंटरैक्टिव एटलस ऑफ द वर्ल्ड्स लैंग्वेजेज इन डेंजर में भारत की भाषाओं को पहला स्थान देकर इस भयावहता का रहस्योद्घाटन कर दिया था लेकिन स्थिति उससे भी भयावह है. भारत सरकार की रिपोर्ट के मुताबिक साल 1961 की जनगणना के अनुसार यहां 1652 भाषाएं बोली जाती हैं जबकि हालिया रिपोर्ट के अनुसार भारत में फिलहाल 1365 मातृभाषाएं हैं. यूनेस्को के मुताबिक भारत की लगभग 197 भाषाएं खतरे में हैं लेकिन जिन भाषाओं को इस संस्था ने खतरे से बाहर रखा है उनमें से भी अधिकांश भाषाएं आने वाले 10 सालों में खतरे में होंगी और इनका 30 से 50 सालों के भीतर विलुप्त होने का अनुमान है. खासकर उत्तर-पूर्व व उत्तर भारत तथा जनजातियों की भाषाएं...खतरे में शामिल 197  में से आधे से अधिक जनजातियों की भाषाएं हैं.  

इस तरह तो मिट जायेगी जनजातियों की बोली व भाषाएं

देश में सर्वाधिक खतरा जनजातियों की बोली व भाषाओं को है. देश की कुल आबादी में 8  प्रतिशत हिस्सेदारी जनजातियों की है. जबकि इनकी आबादी का अधिकांश हिस्सा भारत के उत्तर-पूर्व के राज्यों  तथा मध्य प्रदेश, झारखंड, उड़ीसा आदि राज्यों में  मुख्य रूप से निवास करती है.

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आंकड़ें गवाह है कि इन्ही क्षेत्रों की भाषाएं संकट में है. मसलन मणिपुरी, बोडो, गढ़वाली, कुमाऊंनी, जौनसारी, लद्दाखी, मिजो, शेरपा और स्पिति आदि.  जनजातियों की भाषाओं पर अंग्रेजी ने  आधिपत्य स्थापित कर लिया है. त्रिपुरा में चैमाल नाम की बोली या भाषा को बोलने वाले केवल 5 लोग ही कुछ वर्ष पूर्व तक बचे हुए थे.

भाषाओं की सबसे खतरनाक स्थिति अण्डमान-निकोबार की है जहां जरावा, ग्रेट अण्डमानी, शोम्पेन, ओन्गे और सेंटेनलीज  जनजातियों की जनसंख्या 500 से भी बहुत कम है. उत्तराखण्ड की पहाड़ी जनजातियों में भोटिया, राजी, और जौनसारी की अपनी-अपनी मातृ बोलियां हैं, इनमें जौनसारी की तो अपनी लिपि तक रही है जो कि लुप्त हो चुकी है.

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झारखण्ड की भाषाओं पर गंभीर संकट 

 झारखण्ड में जनजातियों की संख्या 28 प्रतिशत है और यहां 32 जनजातीय भाषा बोली जाती थी. झारखंड में लगभग 24 जनजातियां और आठ आदिम जनजातियां हैं. इनकी भाषाओं में अंतर जरूर है, लेकिन मिलती-जुलती कई भाषाएं हैं.  हालांकि यूनेस्को की माने तो अब अधिकांश जनजातीय भाषा विलुप्त हो चुकी हैं या विलुप्त होने के कगार पर हैं.

यूनेस्को द्वारा जारी रिपोर्ट में झारखण्ड की जनजातियों की प्राचीन भाषाओं में संथाली के सिवाय कोरवा, आसुरी व बिरहौरी यूनेस्को के विलुप्त होने वाली भाषाओं में शामिल है.

इन तीन प्रमुख भाषाओं का अनुमानित बचा अस्तित्व मात्र 10 साल है. जबकि झारखंड में बाहरी भाषाओं का चलन तेजी से बढ़ा है जिसमें हिंदी व अंग्रेजी का अलावा बांग्ला भी शामिल है. पीपुल्स लिंग वेस्टिंग ऑफ इंडिया के सर्वेक्षण के मुताबिक देश में बोली जाने वाली आधी भाषाएं अगले 50 वर्षों में सुनाई नहीं देंगी और झारखण्ड की भाषाएं भी उसमें शामिल है. 

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भाषाओं के खतरे की संवेदनशीलता का वर्गीकरण

  भाषाओं की संवेदनशीलता को पांच वर्गों में रखा जा सकता है. पहले में उन भाषाओं को रखा जाता है जो सभी पीढियों के लोग बोलते और समझते हैं तथा इनका ज्ञान, विज्ञान में प्रयोग के साथ आने वाले दिनों में भी कोई खतरा नहीं है. इस पहले वर्ग में आने वाली भाषाएं सुरक्षित मानी जाती है. इन्हें सशक्त भाषा भी खा जा सकता है. दूसरे में  वे भाषाएं हैं जिस भाषा में सभी पीढियों में आमने-सामने में बात-चीत होती है लेकिन बोलने वाले काम लोग होते हैं.  तीसरे में विलुप्त होने के करीब होने वाली भाषाएं हैं, जिन्हें दादा-दादी या बुजुर्ग लोग बोलते हैं लेकिन इन्हें भी भी बोलने का कम अवसर मिलता है. निष्क्रिय भाषाएं चौथे वर्ग में हैं. जब कोई भाषा किसी समुदाय की पहचान तक सीमित हो जाती और कोई बोल नहीं पाता है. वहीं पांचवें वर्ग में विलुप्त होने वाली भाषाएं हैं जिन्हें किसी के द्वारा प्रयोग नहीं की जाती और कोई अपनी पहचान उस भाषा दे जोड़कर नहीं देखता. 

हर साढ़े तीन महीने में मर रही है एक भाषा  

भाषाओं की विलुप्ति की महामारी ने  कई भाषाओं को अपनी जद में ले लिया है. कुछ भाषा विज्ञानी यहां तक कहते हैं कि 3.5 महीने में एक भाषा दम तोड़ रही है. अंग्रेजी जैसी वैश्विक भाषा की जद में पूरी दुनिया आ चुकी है. भारत ही नहीं दुनिया भर की भाषाओं के लिए अंग्रेजी खतरा बन चुकी है. विश्व की तीसरी भाषा होने के बाद भी हिंदी अपने देश में संरक्षण की मोहताज है.  भाषाओं के विलुप्त होने के कारणों में मनुष्यों का प्रवास, सांस्कृतिक विलोपन, भाषा के प्रति नजरिए में बदलाव, सरकारी नीतियां, शिक्षा का माध्यम, और रोज़गार आदि अहम हैं. वैश्वीकरण के जिस दौर में हम आज आ पहुंचे हैं, वहां एक ही तरह का खाना-पीना, पहनना-ओढ़ना, एक ही तरह की जिंदगी और एक ही तरह की भाषा का जोर है.

 प्रियदर्शी आई.ओ.पी.एफ.फाउंडेशन के निदेशक तथा सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक मामलों के मौलिक चिंतक हैं

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.