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This Article is From Aug 13, 2023

आजादी की राह खोजतीं असुरक्षा की भावना से घिरीं भारतीय महिलाएं

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Himanshu Joshi

इस साल हम अपना 77वां स्वतंत्रता दिवस मना रहे हैं और देश के आजाद होने के सालों बाद भी भारतीय महिलाएं वर्तमान माहौल में खुद को गुलाम महसूस करती हैं. आजाद भारत में महिलाओं को आज भी अपनी आजादी मांगने के लिए घर के पुरुषों का मुंह ताकना पड़ता है, घर के बाहर और अंदर दोनों ही जगह महिलाएं असुरक्षित हैं और उनके खिलाफ यौन अपराधों में बढ़ोतरी होती ही जा रही है. भारत में शायद ही किसी लड़की का पिता उसे घर से बाहर अकेले भेजते चिन्तामुक्त रहता हो.

तीन चार दिन पहले पुरुषों से भरी एक बस में खीरा बेचने वाला 15-16 साल का लड़का चढ़ा और कहने लगा 'अरे यहां एक लड़की तो होती सबका सफर बढ़िया होता', देश के भविष्य से ऐसे शब्द की मुझे बिल्कुल उम्मीद नहीं थी. मुझे उसमें और महिलाओं के खिलाफ अपराध करने वाले लोगों के चेहरे में कोई अंतर नहीं लग रहा था. चौंकाने वाली बात यह थी कि उसके इन शब्दों का बस में किसी ने विरोध तक नहीं किया. इस घटना से यह तो साबित हो गया कि हमारे समाज में महिलाओं के प्रति क्या सोच रखी जाती है.

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महिलाओं के खिलाफ हाल ही में घटी आपराधिक घटनाएं

मणिपुर की घटना में हमने देखा कि कैसे महिलाओं की इज्ज़त को तार-तार करते हुए उन्हें निवस्त्र घुमाया गया. इतनी बड़ी घटना के बाद भी महिलाओं की सुरक्षा के लिए जिस तरह के कदम उठाए जाने थे वह नहीं दिखाई दिए, घटना का ज्यादा विरोध सोशल मीडिया तक ही सीमित रहा. उत्तर प्रदेश में प्रेमी के साथ घर छोड़कर जाने की वजह से एक युवती की उसके सगे भाई ने ही गर्दन धड़ से अलग कर दी और गर्दन के साथ वह सड़क पर घूमता रहा. दिल्ली में कई लोगों की मौजूदगी में एक युवक ने असफल प्रेम कहानी की वजह से युवती की चाकू से गोदकर हत्या कर दी.

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महिलाओं के खिलाफ यह अपराध कोई नई घटना नही है, निर्भया कांड के बाद महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराधों पर सजा को सख्त कर दिया गया था पर आंकड़े बताते हैं कि भारत में महिलाओं के खिलाफ अपराध हर साल बढ़ते ही जा रहे हैं. राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार भारत में साल 2019 में महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराधों की संख्या 405326 थी, जो साल 2021 में बढ़कर 428278 हो गई.

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महिलाओं को शारीरिक और मानसिक रूप से मजबूत बनाना भी जरूरी

हिंदी की लेखक और महिला अधिकारों के लिए हमेशा खुलकर अपनी बात कहने वाली सुप्रिया पुरोहित महिलाओं की स्वतंत्रता पर कहती हैं कि स्वतंत्र होने की परिभाषा क्या है? कपड़े चुनने की आजादी, पढ़ाई की आजादी या कैरियर चुनने की आजादी. महिलाओं के लिए अभी तक स्वतंत्र होने के मायने कदाचित इतने ही हों जबकि स्वतंत्रता विचारों की आजादी होनी चाहिए और इस सदी की त्रासदी है कि महिलाएं स्वतंत्र नहीं हैं. महिलाओं के साथ यौन हिंसा आज से नहीं बहुत पहले से चली आ रही है. किंतु यह पिछले चालीस सालों में अपने वीभत्स रूप में आ गई. इसके लिए कोई भी सरकार कितने ही कानून बना ले पर वह ना ही हर अपराधी तक जा सकती है ना ही हर महिला की पीड़ा को जान सकती है. इसके लिए समाज को आगे आना होगा, सामाजिक व्यवस्था को बदलना होगा.

सामाजिक व्यवस्था ही आठवीं कक्षा में गृह विज्ञान जैसे विषय जोड़ती है क्योंकि सुंदर, सुशील, गृह कार्य में दक्ष कन्या ही चाहिए सभी को, क्यों इसके साथ जूडो जैसा आत्मरक्षात्मक कोर्स नहीं जोड़ा जाता? बारहवीं तक खेल जरूरी विषय क्यों नहीं है, जिससे लड़कियां शारीरिक और मानसिक रूप से मजबूत रहें, उनमें आत्मविश्वास रहे.

ये तो है छोटे और बड़े शहरों की बात. छोटे गांव कस्बों में पहले ऐसी घटनाएं नगण्य होती थीं, जो होती थीं उसके लिए गांव की पंचायत सजा का प्रावधान रखती थी. पर अब वहां के हालात भी चिंताजनक हैं. सरकार से पहले समाज को जागना होगा. अपनी बेटियों को चाकू से सब्जी काटने के साथ-साथ आत्मरक्षा भी सिखानी होगी. समाज को खुद को सुधारना होगा. देश से पहले समाज का सुधार जरूरी है, उससे भी पहले परिवार समाज की प्रथम इकाई का सुधार जरूरी है. जिन पुरुषों को महिलाएं जन्म देती हैं उनको उन्हें अच्छी परवरिश भी देनी होगी. लड़कियां तभी सुरक्षित होंगी जब समाज अपने आप को सुधरेगा. समाज के साथ के बिना हर सरकार पंगु है हमारी बेटियों को बचाने में.

घर के संस्कार ही बदलेंगे लड़कियों के प्रति व्यवहार

उत्तरा महिला पत्रिका और नैनीताल समाचार से जुड़ी फोटोग्राफी की शौकीन विनीता यशस्वी ट्रैकिंग भी करती हैं. विनीता उत्तराखंड में महिला अधिकारों के लिए हमेशा सक्रिय रही हैं. भारत में महिलाओं की स्वतंत्रता पर वह कहती हैं कि यह बात बिल्कुल सही है कि आजाद भारत में भी अभी तक महिलाएं पूर्ण रूप से आज़ाद नहीं हो पाई हैं. आज भी महिलाओं को अपने मर्ज़ी की शिक्षा या रोजगार चुनने में सबसे पहले परिवार वालों की सहमति लेनी होती है. मान लीजिए यदि कोई लड़की एडवेंचर जैसे फील्ड में जाना चाहे तो पहले उसे अपने परिवार को मनाने में मेहनत करनी पड़ती है और अगर परिवार वाले इजाज़त दे भी दें तो फिर समाज उसे बार-बार सुनाता रहता है कि ये तो कई-कई दिन तक घर से गायब रहती है. महिला की समाज में स्वीकृति तब तक नहीं होती जब तक वो अपना एक अलग नाम और ओहदा न बना ले. ऐसे ही कई और भी फील्ड हैं जिनमें जाने से पहले उसे बहुत सोचना पड़ता है.

महिला और उसके परिवार के दिमाग में एक डर यह भी रहता है कि वह घर के बाहर सुरक्षित है कि नहीं. पिछले कुछ समय में महिलाओं के साथ जिस तरह यौन हिंसा बढ़ी है, उसने इस डर को और ज़्यादा पुख्ता कर दिया है और ये तब तक नहीं रुक सकता जब तक कि महिला को भी एक इंसान के रूप में नहीं देखा जाएगा. उसे उसकी तरह जीने और उसकी मर्जी से शिक्षा और रोजगार चुनने की आजादी नहीं होगी.

समाज, खासतौर पर पुरुष वर्ग को भी यह समझना होगा कि दुनिया जितनी उसकी है उतनी ही एक महिला की भी है इसलिए उसे उपभोग की वस्तु के रूप में देखने से बाज़ आना होगा और साथ ही परिवार की भी यह जिम्मेदारी बनती है कि लड़के और लड़की दोनों को एक समान संस्कार दे. लड़कों को विशेष रूप से यह सिखाएं कि किसी लड़की या महिला, चाहे वो घर की हो या बाहर की हो, के साथ सभ्य व्यवहार करें.

जिस दिन यह संभव होने लगेगा उस दिन शायद महिला आज़ाद भी होने लगे और उसके ऊपर होने वाली यौन हिंसा भी रुके.

(हिमांशु जोशी उत्तराखंड से हैं और प्रतिष्ठित उमेश डोभाल स्मृति पत्रकारिता पुरस्कार प्राप्त हैं. वह कई समाचार पत्र, पत्रिकाओं और वेब पोर्टलों के लिए लिखते रहे हैं.)

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं.