This Article is From Jul 21, 2023

बंसी कौल : हंसी का उत्सव मनाता एक मसखरा

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Mohan Joshi

साहित्य में जिस तरह व्यंग्य एक विधा के रूप में स्थापित हुई है, वैसे ही रंगमंच में यदि उसके समानांतर अगर किसी रंगशैली ने अपने आप को प्रतिष्ठित किया है तो उसका श्रेय बंसी कौल को जाता है. जिस अलहदा रंगमंचीय शैली का उन्होंने निर्माण किया वो उतनी ही मारक और लोकप्रिय है जितनी की व्यंग्य विधा. उसका गुण धर्म, संस्कार और प्रभाव व्यंग्य जैसा ही रहा, पर रंगमंच में ढल कर ये शैली एक विशिष्ट आकार लेती चली गयी, जिसे “थिएटर ऑफ़ लाफ्टर' कहा गया. जहाँ हंसी को उत्सव के रूप मनाया जाने लगा.

बंसी दा के नाटकों में आधुनिक रंगमंच की तरह पाश्चात्य प्रभाव नज़र नहीं आता. बंसी दा ने जिस नयी रंग-भाषा की खोज की, वहां तक चलकर आने के लिए उन्होंने पारंपरिक लोककलाओं की पगडंडियों का प्रयोग किया. वो अपनी जड़ों को ही कला की आत्मा मानते थे.

इसलिए अपनी एक पृथक रंगशैली को आकार देने के लिए उन्होंने अखाड़ों, नटों, मसखरों और विदूषकों को अपना पड़ाव बनाया . इन सभी रूप तत्वों के इस्तेमाल से उत्पन्न ‘हास्य', सिर्फ गुदगुदाने से पैदा नहीं होता बल्कि सामाजिक विद्रूपताओं को उधेड़कर उस पर ठहाका लगाने से बनता है.

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विदूषकों की उपस्थिति भारतीय रंगमंच में कोई नया प्रयोग नहीं है. अक्सर इक्का-दुक्का मसखरे, नाटक में सूत्रधार या ‘कॉमिक रिलीफ' के लिए मंच पर आते रहे हैं. पर बंसी दा ने ऐसी दुनिया रची है जहाँ नाटक के सभी पात्र विदूषक हैं. ये विदूषक कभी अकेले और कभी साथ-साथ हँसते हैं. ये हंसी विशुद्ध हंसी नहीं है ये कभी व्यंग्य होती है, तो कभी स्तब्ध कर जाती है. कभी रुला जाती है, तो कभी बैचैन कर जाती है. कभी सवाल पूछती है, तो कभी सोचने के लिए मजबूर कर जाती है. और अक्सर ये ‘हंसी' दर्शकों के चिंतन मन में मायने खोजने के लिए अटकी रहती है, जिसके आशय नाटक ख़त्म होने के कई दिनों बाद समझ आते हैं. इसी को ‘थिएटर ऑफ़ लाफ्टर' कहा गया.

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अपनी नाट्य संस्था ‘रंग विदूषक' के माध्यम से बंसी दा ने ‘हंसी' को प्रतिरोध का जरिया बनाया. वे हंसी के संरक्षण और संवर्धन को लोकतंत्र की ज़रूरी शर्त मानते थे. यहाँ बंसी दा का ये कथन यहाँ उल्लेखनीय है.‘‘हंसी हर परम्परा का मूल तत्व है. जैसे सूफी अपने आपको एक तरह का मसखरा कहते थे. यह उत्तर भारत की बड़ी ताकत रही है.

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आज भी उत्तर का पारंपरिक रंगमंच अगर धर्मनिरपेक्ष है तो वह विदूषकों की वजह से है. पंजाब की पूरी मीरासियों की या नक्कालों की परंपरा है, कश्मीर में भांडों की, राजस्थान में भोपों की, लखनऊ और बनारस में भी भांड मिलेंगे.

छत्तीसगढ़ में तो नाचा, पूरा का पूरा एक तरह से विदूषकों का थिएटर है''.

नट और अखाड़े हमारी लोक परम्पराओं में ‘खेल' के दायरे में आते हैं. और यह ‘खेल' मंचनीय नहीं बल्कि प्रदर्शनीय विधा रही हैं. इनसे प्रेरणा लेकर रंगमंच के इस प्रचलित कथन को कि ‘नाटक खेले जाते हैं', बंसी दा ने नए अर्थ और व्याख्या दी. नटों का गुलाटियाँ मारना या करतब दिखाना या फिर अखाड़ों में लाठियां चलाना या चकरियां घुमाना जैसे खेलों को बंसी दा ने सीधे अपने नाटकों में आयातित नहीं किया, बल्कि इनकी विशिष्ट प्रशिक्षण शैली को आत्मसात करने की कोशिश की. बंसी दा को इस बात का इल्म था कि ये नट और अखाड़ेबाज अपने इस हुनर को एक्टरों को नहीं सिखा पाएंगे क्योंकि उनके पास ट्रेनिंग देने का कोई तजुर्बा नहीं है. पर वो चाहते थे कि उनके एक्टर ये ज़रूर सीखें- कैसे ये नट और उनके बच्चे सिर्फ ‘ऑब्जरवेशन' (अवलोकन) मात्र से ही इन विधाओं में पारंगत हो जाते हैं. इन सब का जो निचोड़ निकल कर आया, वो ये था कि नियमित अभ्यास-शालाओं या व्यायाम-शालाओं में जाने से वे इन कलाओं को सीखते और मांजते हैं. आधुनिक समाज में इन ‘शालाओं' का प्रतिरुप ही ‘जिम' हैं. बंसी दा ने तय किया कि वो थिएटर का एक विशिष्ट ‘जिम' बनायेंगे, जिसमें अभिनेता अपने शारीरिक पक्ष के अलावा अपने कलापक्ष को भी मजबूत करेगा. इस ‘जिम' को बंसी दा ने ‘रंग खेलवा' का नाम दिया .

इन सभी कलातत्वों के समागम से जो नयी रंगभाषा का निर्माण हुआ उसे बंसी दा इस तरह बताते हैं ‘मैं कई स्रोतों को एक साथ टटोल रहा हूं. कुछ नटों से, कुछ अखाड़ों से, कुछ कलाबाजों से, कुछ विदूषक से. मुझे लगता है कि विचार विदूषकों से आता है, मुद्रा की भाषा नटों से आती है रंगभाषण (स्पीच) वर्णनात्मक शैली से, शारीरिक चुस्ती कलाबाजों से. अगर मैं सिर्फ नटों पर काम कर रहा होता तो शायद मेरा थिएटर पूरा का पूरा नटगीरी हो जाता. एक जगह टिकने से शायद नुकसान होगा. इसलिए मैं लगातार कई जुड़े हुए रूपों के साथ काम कर रहा हूं.'

बंसी दा ने हिंदी से इतर जिन नाटकों या कहानियों का चयन मंचन करने के लिए किया तो वहां इस बात का विशेष ख्याल रखा कि उनके सपाट अनुवाद की बजाय उनका ‘कल्चरल ट्रांसलेशन' हो. ताकि उसकी समस्या, उसका इतिहासबोध, उसकी भाषा और उसका भाव, खालिस देसी नज़र आये.

उदाहरण के तौर पर उनका नाटक ‘तुक्के पे तुक्का' मूलतः एक चीनी कहानी पर आधारित है. लेकिन जब आप इसकी प्रस्तुति देखेंगे तो ये क़बूल करना मुश्किल होगा कि कथा का चीन की संस्कृति या संसार से कोई वास्ता भी है. इसका कारण दर्शकों में जानकारी का अभाव नहीं बल्कि इसकी वजह ये है कि ये नाटक अपने ‘कल्चरल ट्रांसलेशन' में इस खूबसूरती से ढल गया कि दर्शकों के मन में ये सवाल ही पैदा नहीं हुआ कि ये एक चीनी लोक कथा है. कोरोना काल में जहाँ नाट्य गतिविधियाँ रुक गयी थी और रंगकर्मियों में घोर निराशा थी, उस वक़्त भी बंसी दा नए स्पेस गढ़ने की चर्चा कर रहे थे. वो कहते थे ‘अगर लोग थालियाँ और तालियाँ बजाने के लिए छतों और बालकनियों में आ सकते हैं तो नाटक देखने के लिए क्यों नहीं. कोई रंगकर्मी अपनी सोसाइटी में एकल अभिनय करने को तैयार है तो उसे छतों और बालकनियों में खड़ा ये दर्शक वर्ग मिल सकता है. बशर्ते नाटक का इस्तेमाल एक थेरेपी की तरह किया जाये ताकि इस दौर में नाटक मलहम का काम कर सके.

बंसी कौल के लोक धर्म और यात्रा धर्म के प्रति आस्था का अंदाज़ा उनकी इस टिप्पणी से लगाया जा सकता है, जहाँ वो कहते हैं ‘एनएसडी में प्रोफेसरी और श्रीराम सेंटर में डायरेक्टरी, मेरे जीवन के ठहराव के दिन थे'.

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