Kishore Kumar Death Anniversary: किशोर कुमार... एक ऐसी आवाज़ जो आज भी कला की फिजाओं में गूंजती है. एक ऐसा कलाकार, जिसने सिर्फ गाया नहीं बल्कि हर सुर में जान डाल दी. उनके गाने आज भी सुनने वालों के दिलों में बस जाते हैं. 13 अक्टूबर 1987 को उन्होंने दुनिया को अलविदा कहा, लेकिन उनकी आवाज़ आज भी उतनी ही ताज़गी से हमारे बीच मौजूद है. इस साल उनकी 38वीं पुण्यतिथि पर मध्यप्रदेश संस्कृति विभाग ने 2024 और 2025 के लिए आठ राष्ट्रीय पुरस्कारों की घोषणा की है. इस बार का “किशोर कुमार सम्मान” मशहूर गीतकार प्रसून जोशी को दिया जाएगा.
किशोर कुमार की आवाज जितनी मधूर थी, उनके जीवन उतना ही रोचक रहा है. किशोर दा का व्यक्तित्व हर दिल अजीज होने के साथ ही थोड़ा उलझा हुआ भी था. कहते है कि उनकी आवाज बचपन से सुरीली नहीं थी. उनको एक बार चाकू लग गया था, जिसके बाद वे बहुत रोए और उनकी आवाज बदल गई. किशोर दा ने चार शादियां की थी. इतना ही नहीं उन्होंने मधुबाला से शादी करने के लिए अपना धर्म बदलकर अपना नाम अब्दुल करीम रख लिया था. आइए जानते हैं महान कलाकार की जिंदगी से जुड़ी कुछ रोचक बातें...
खंडवा की मिट्टी में जन्मा सुरों का जादूगर
4 अगस्त 1929 को मध्य प्रदेश के खंडवा में जन्मे किशोर कुमार का असली नाम आभास कुमार गांगुली था. उनके पिता कुंजीलाल गांगुली जाने-माने वकील थे और मां गौरी देवी एक गृहिणी. चार भाई-बहनों में सबसे छोटे किशोर, अपने बड़े भाई अशोक कुमार (दादा मुनि) और अनूप कुमार की तरह ही फिल्मी दुनिया की ओर खिंचे चले गए. बचपन में वे बहुत शरारती थे, लेकिन उनकी आवाज़ शुरू में उतनी सुरीली नहीं थी. कहा जाता है कि एक बार सब्जी काटने के चाकू पर उनका पैर लग गया. इसके बाद वे खूब रोए, तब से उनकी आवाज़ में वो जादू उतर आया जिसने दुनिया को दी "किशोर कुमार" नाम की धुन.
सहगल के दीवाने थे किशोर दा
बताया जाता है कि घर में रखा ग्रामोफोन उनके संगीत की पहली सीढ़ी बना. उस पर अक्सर के. एल. सहगल के गाने बजते रहते थे. नन्हें किशोर उन्हें इतनी बार सुनते कि बोल तक उल्टे याद हो जाते. वे कहा करते थे – “सहगल का गाना सुनने का एक रुपया लगता है, क्योंकि वो दिल को छू जाता है.” सहगल ही उनके आदर्श बने, और वही सपना उन्हें मुंबई तक खींच लाया.
खंडवा में आज भी किशोर कुमार की समाधि है, जिसे कलाकार 'सुरों का तीर्थ' भी कहते हैं।
स्कूल और कॉलेज के दिनों की शरारतें
किशोर कुमार ने खंडवा के डबल फाटक स्कूल से पढ़ाई शुरू की और बाद में इंदौर के क्रिश्चियन कॉलेज में एडमिशन लिया. वहां भी उनकी शरारतें खत्म नहीं हुईं. कभी डेस्क बजाना, कभी गाना गुनगुनाना, यही उनकी दिनचर्या थी. एक किस्सा मशहूर है कि वे कॉलेज के पास की दुकान से उधार लिया करते थे. दुकानदार के “पांच रुपए बारह आने” बाकी रह गए थे, और यही लाइन बाद में उनके गीत “चलती का नाम गाड़ी” में आ गई.
प्यार और शादी – रूमा घोष से रिश्ता
किशोर कुमार पर रिसर्च करने वाले प्रफुल्ल मंडलोई ने बताया कि फिल्मों के दौरान किशोर कुमार की मुलाकात अभिनेत्री रूमा घोष से हुई. दोनों में नजदीकियां बढ़ीं और उन्होंने शादी कर ली. लेकिन यह रिश्ता ज्यादा नहीं चल सका. रूमा अपने करियर पर ध्यान देना चाहती थीं जबकि किशोर चाहते थे कि वो घर संभालें. नतीजा — तलाक और बेटे अमित कुमार का कोलकाता चला जाना.
मधुबाला के लिए बदल लिया धर्म
मंडलोई बताते हैं कि रूमा से अलग होने के बाद किशोर कुमार की जिंदगी में आईं मधुबाला. दोनों ने साथ में “झुमरू” और “हाफ टिकट” जैसी हिट फिल्में दीं. दिल की बीमारी से जूझ रहीं मधुबाला से उन्होंने 1 अक्टूबर 1960 को शादी की. शादी के लिए उन्होंने धर्म परिवर्तन कर “अब्दुल करीम” नाम रखा. लेकिन किस्मत को कुछ और मंजूर था — मधुबाला का 1969 में निधन हो गया. ये वो वक्त था जब किशोर पूरी तरह टूट गए थे.
किशोर कुमार पर रिसर्च करने वाले प्रफुल्ल मंडलोई ने किशोर दा के बारे में रोचक तथ्य बताए।
फिर तीसरी और चौथी शादी
इमरजेंसी के दौर में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने किशोर कुमार के गानों पर बैन लगा दिया था, तब भी उन्होंने झुकना नहीं सीखा. इस बीच उन्होंने अभिनेत्री योगिता बाली से शादी की, लेकिन ये रिश्ता भी टूट गया. कुछ समय बाद किशोर दा की जिंदगी में आईं लीना चंद्रावरकर, जिनसे उन्होंने चौथी शादी की. लीना उम्र में उनसे काफी छोटी थीं, मगर दोनों के बीच गहरा प्यार था.
आभास से ‘किशोर कुमार' बनने की कहानी
अशोक कुमार के कहने पर किशोर बॉम्बे (अब मुंबई) पहुंचे. शुरू में वे सिर्फ गायक बनना चाहते थे, लेकिन दादा मुनि ने उन्हें एक्टिंग की राह दिखलाई. फिल्म “शिकारी” में उन्होंने एक सैनिक का छोटा-सा रोल किया. उस वक्त उनका नाम “आभास कुमार” था. फिल्म के डायरेक्टर और अशोक कुमार ने मिलकर उन्हें नया नाम दिया... किशोर कुमार. यही नाम आगे चलकर एक पहचान बन गया.
भारतीय फिल्मों में योडलिंग का जन्म
लंबे संघर्ष के बाद संगीतकार खेमचंद प्रकाश ने किशोर को मौका फिल्म “जिद्दी” (1948) में दिया. ये उनका पहला गीत था जो देव आनंद पर फिल्माया गया. इसके बाद उन्होंने “मुकद्दर” फिल्म में योडलिंग स्टाइल की शुरुआत की, वो स्टाइल जिसने उन्हें सबसे अलग बना दिया.
कलाकार नितिश भंसाली बताते हैं कि 1964 में फिल्म आई "दूर की छांव में" जिसमें किशोर कुमार ने फिल्म निर्देशन, लेखन और संगीत के साथ ही गीत भी गए. इसी फ़िल्म में अमित कुमार ने बाल कलाकार के रूप में काम भी किया. यही से किशोर कुमार को हरफनमौला कलाकार का टेग भी मिला.
खंडवा में किशोर कुमार के घर में आज भी उनकी तस्वीरें लगी हुई है, जो उनके जमाने को ताजा कर देती है। लेकिन किशोर दा का ये घर आज खंडहर हो चुका है।
'सदी के महानायक' की बने आवाज
मधुबाला के बाद किशोर कुमार ने खुद को फिर से संगीत में डुबो दिया. फिल्म “आराधना” (1969) के “रूप तेरा मस्ताना” जैसे गीतों ने राजेश खन्ना को सुपरस्टार बना दिया. आगे चलकर 'सदी के महानायक' अमिताभ बच्चन की फिल्मों में भी उनकी आवाज़ गूंजने लगी. लोगों को लगता था कि अमिताभ खुद गा रहे हैं, लेकिन वो थे किशोर दा — जिनकी आवाज़ में करिश्मा था. कहते हैं कि अमिताभ बच्चन को महानायक बनाने के पीछे किशोर दा की ही आवाज थी.
आखिरी दिन और अधूरा सपना
13 अक्टूबर 1987... ये वहीं दिन जब किशोर कुमार अपने भाई अशोक कुमार के लिए सरप्राइज पार्टी की तैयारी कर रहे थे. लेकिन उसी दिन दिल का दौरा पड़ने से उन्होंने हमेशा के लिए आंखें मूंद लीं. निधन से पहले वे अपनी जन्मभूमि खंडवा लौटना चाहते थे और कहा था – “मुझे खंडवा की मिट्टी में मिलाना.” उनकी यही आखिरी इच्छा पूरी की गई.
खंडवा स्थित किशोर कुमार की समाधि का ध्यान किशोर प्रेमी आज भी रखते हैं। उनकी जयंति और पुण्यतिथि पर यहां विशेष कार्यक्रम भी होते हैं।
खंडवा में आज भी है 'सुरों का तीर्थ'
आज खंडवा में उनकी समाधि किसी तीर्थ स्थल से कम नहीं है. देशभर से लोग वहां आते हैं, गाने गाते हैं, हंसते हैं... क्योंकि किशोर दा का मानना था, “ज़िंदगी हंसी में जीने के लिए है.” उनका सपना था कि खंडवा में एक संगीत केंद्र बने, लेकिन उनका घर आज खंडहर में बदल चुका है. फिर भी, उनके चाहने वालों के दिलों में वो आज भी ज़िंदा हैं — हर सुर, हर मुस्कान और हर गीत के साथ.