दशहरे पर सिंधिया का दिखा शाही अंदाज, सैकड़ों वर्षों से चली आ रही शमी पूजन की परंपरा; यहां जानिए सबकुछ

ग्वालियर में सैकड़ों वर्षों से शाही दशहरे का आयोजन होता आ रहा है. सिंधिया महाराज के लिबास में शमी पूजन करते हैं. फिर तलवार से शमी वृक्ष की डाल को काटते हैं और उसडाल की पत्तियां उनके समर्थक लूटते हैं.

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देश में तीन ही शाही दशहरे के आयोजन सैकड़ों वर्षों से सबसे अधिक चर्चित और प्रसिद्ध हैं. ये हैं कुल्लू, मैसूर और ग्वालियर. माना जाता है कि ग्वालियर में इसकी शुरुआत लगभग ढाई सौ वर्ष पहले सिंधिया राज परिवार ने की थी और भले ही राजतंत्र चला गया हो, लेकिन सिंधिया परिवार आज भी अपनी परंपरा को उसी शाही अंदाज में मनाता चला आ रहा है.

पहले निकलती थी महाराज की शाही सवारी

माना जाता है कि ग्वालियर में इस शाही दशहरे को मनाने की परंपरा लगभग 250-275 वर्ष वर्ष पहले सिंधिया परिवार के तत्कालीन महाराज दौलत राव सिंधिया ने तब शुरू की, जब वे अपनी राजधानी मालवा से हटाकर ग्वालियर लाए थे. यहां उन्होंने गोरखी स्थित अपने महल में अपने कुलगुरु बाबा मंसूर शाह का स्थान बनवाया और मांढरे की माता के नीचे मैदान को दशहरा मैदान के रूप में चयनित किया. पहले जब सिंधिया राज परिवार गोरखी स्थित महल में रहता था तो दशहरा को हाथी, घोड़ा और पैदल सैनिकों के साथ महाराज का दशहरा उत्सव महाराज बाड़ा से शुरू होता था.

इस दौरान सिंधिया राज्य की सैन्य शक्ति का प्रदर्शन भी किया जाता था. महाराज बाबा मंसूर साहब की आराधना के बाद शाही अंदाज में गोरखी महल परिसर से निकलते थे और फिर वह शहर के मुख्य मार्गों से होते हुए दशहरा मैदान पहुंचते थे और वहां शमी पूजन करते थे. बाद में सिंधिया राज परिवार नए जयविलास पैलस में रहने आया तो यह जलसा संमारोह जयविलास पैलस से शुरू होने लगा. तब रियासत से जुड़े तमाम राजे- रजबाड़ों के लोग, प्रमुख जमींदार और जागीरदारों की मौजूदगी होती थी जो दशहरे पर महाराज से जुहार करने के लिए यहां पहुंचते थे. बाद में शाम को प्रमुख सरदारों के साथ दशहरे की भोज पार्टी का आयोजन होता था.

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स्वतंत्रता बाद तरीका बदला, लेकिन आयोजन जारी रहा 

देश के स्वतंत्र हो जाने के बाद राज परिवार का शाही तामझाम खत्म हो गया और महल की तरफ से होने वाला आयोजन हिंदू दशहरा समिति के नाम से आयोजित होने लगा. इसमें शमी पूजन के बाद सिंधिया परिवार के पुरुष मुखिया अपने परंपरागत शाही लिबास में भव्य चल समारोह के साथ दौलतगंज में आयोजित होने वाले दशहरा मिलान समारोह में पहुंचते थे. स्व माधव राव सिंधिया कुछ वर्ष तक इस आयोजन में जाते रहे और संक्षिप्त संबोधन भी देते थे, लेकिन बाद में यह आयोजन बंद हो गया. लेकिन सिंधिया परिवार का शमी पूजन दशहरा समारोह आज भी पूर्व परंपरानुसार जारी है.

अभी भी जारी है शमी पूजन की परंपरा

सिंधिया परिवार की दशहरे पर होने वाले शमी पूजन की परंपरा आज भी स्वतंत्रता पूर्व की तरह और उसी तौर तरीकों से बदस्तूर जारी है. दशहरा पर सिंधिया परिवार के महाराज और युवराज महान आर्यमन सिंधिया सुबह मंसूर साहब की पूजा-अर्चना करने जाते हैं और शाम को परंपरागत शाही लिबास में सिंधिया महाराजा के लिए तय वस्त्र और आभूषण और तलबार लेकर मांडरे की माता के नीचे स्थित दशहरा मैदान में पहुंचते हैं और महाराष्ट्र से आए कुल पुरोहित दशहरा पूजन कराते हैं. इसके बाद सिंधिया तलवार से शमी वृक्ष की डाल को प्रतीकात्मक स्पर्श करके काटते हैं. फिर इसकी पत्तियां लूटने की होड़ मचती है और फिर लोग यह पत्ती सिंधिया को भेंट कर उन्हें दशहरे की मुबारकवाद देते हैं. इन पत्तियों को सोना कहा जाता है. शाम को जयविलास पैलेस में दरबार खास का आयोजन होता है. इसमें रियासत से जुड़े पुराने सरदारों के परिजन महाराज को बधाई देने महल में पहुंचते हैं, रात को शाही डिनर भी होता है.

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ग्वालियर में कैसे शुरू हुआ शाही दशहरे का आयोजन

सिंधिया राज परिवार के नजदीक रहे, विधायक और अनेक पदों पर रहे ब्रिगेडियर नरसिंह राव पंवार  (अब स्वर्गीय) के अनुसार, सिंधिया राजवंश की यह परंपरा लगभग चार सौ साल पुरानी है. पहले इनकी राजधानी उज्जैन में थी, तब वहां यह परंपरा शुरू हुई लेकिन महादजी सिंधिया ने पानीपत युद्ध में जीत के बाद ग्वालियर को अपना केंद्र बनाया. लेकिन मुगलों के बढ़ते प्रभाव को रोकने और देशी राजाओं के नित नए होने वाले विद्रोहों को खत्म करने की दृष्टि से महाराजा दौलत राव सिंधिया ने लश्कर शहर बसाकर ग्वालियर को राजधानी के रूप में स्थापित किया. शाही दशहरे के आयोजन की परंपरा भी उन्होंने ही शुरू की. स्वतंत्रता पूर्व तक यहां महाराज को इक्कीस तोपों की सलामी भी दी जाती थी.

शमी वृक्ष का पूजन और इसका वितरण क्यों होता है 

दशहरा पर सिंधिया परिवार का मुखिया दशहरा पूजन के बाद शमी वृक्ष की एक डाल अपनी तलवार से काटता है और फिर उसकी पत्तियां लूटी जातीं है. ग्वालियर के शाही दशहरा मैदान में पहले शमी का विशाल वृक्ष होता था, लेकिन अब सारे पेड़ काट दिए गए हैं और इसके बड़े मैदान में भी अनेक भवन बन गए हैं. अब थोड़ा स्थान ही सुरक्षित रह गया है. इसलिए सिंधिया के पहुंचने से पहले कारिंदे शमी वृक्ष की पत्तियों से लदी एक बड़ी डाल काटकर यहां पेड़ की तरह स्थापित करते हैं और अब उसकी ही पूजा होती है, जिसकी पत्तियां लूटी जाती हैं.

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शमी की पत्तियों की किंवदंती महाभारत काल से जुड़ी है. माना जाता है कि दशहरे के दिन ही पांडव अपना वनवास काल पूरा करके हस्तिनापुर लौटे थे और वन गमन से पूर्व अपने अस्त्र शमी वृक्ष में ही छिपाकर रख गए थे. लौटकर वे उसी वृक्ष के पास सबसे पहले गए, लेकिन जब वे अपना राज पाठ संभालने हस्तिनापुर पहुंचते, इससे पहले ही कौरवों ने राज सौंपने से इनकार कर दिया,लेकिन वहां की प्रजा शहर से बाहर स्थित उसी शमी वृक्ष के पास पहुंच गई. पांडव राज की परंपरानुसार, महाराज दशहरा पर बधाई देने आने वालों को कोई न कोई कीमती उपहार देते थे, लेकिन उस दशहरा पर उनके पास कुछ भी नहीं था तो अर्जुन ने पूजन के बाद शमी पेड़ की डंडी पर तलवार से प्रहार किया और प्रजा और राजा दोनों ने एक दूसरे को इसकी पत्तिया भेंट स्वरूप दी. क्योंकि उनके पास उपहार देने के लिए और कुछ था ही नहीं. तभी से इसे सोना कहा जाता है और आज भी लोग वर्ष भर तक इसे अपने सोने-चांदी के आभूषणों के साथ रखते हैं. मान्यता है कि सोने की पत्तियां खजाने में रखने से खजाने में संपन्नता निरंतर रहती है.

महल में लगता है दशहरा दरबार 

राजकाल में दशहरे के दिन जयविलास पैलेस के ऊपरी भाग में स्थित हॉल में महराज का दशहरा दरबार लगता था, इसमें आमजन की एंट्री नहीं होती थी. इसमें सिंधिया राजतंत्र के सरदार, आसपास के महाराज, राजा और बड़े जमींदार और जागीरदारों को ही प्रवेश मिलता था. इस दौरान उपहार देने की भी परंपरा रहती थी. विशिष्ट लोगों से मिलने के बाद महाराज आमजनों से भी भेंट करते थे.

शाम को हुआ शामिपूजन

दशहरे पर केंद्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया और उनके बेटे महान आर्यमन सिंधिया शाही लिबास में जयविलास पैलेस से दशहरा मैदान पहुंचे. यहां सिंधिया राजशाही के बैंड द्वारा परंपरागत वाद्य यंत्र और धुन बजाकर उनका स्वागत किया गया. यहां पहुंचकर पहले राज पुरोहित मंत्रोच्चार के साथ सिंधिया राज परिवार के प्रतीकों चिह्नों का पूजन किया और फिर शमी की डाल काटने और सोना लूटकर एक-दूसरे  को देने की परंपरा का निर्वाह किया गया.