Buddha Purnima Special: शांति का संदेश देता सांची का बौद्ध स्तूप, जानिए इस विश्व विरासत स्थल का इतिहास

Buddha Purnima 2024: दुनिया भर में आज बुद्ध पूर्णिमा का त्यौहार मनाया जा रहा है. बौद्ध धर्म में सांची के स्तूपों का विशेष महत्व है. बुद्ध पूर्णिमा के मौके पर हम आपको इसके इतिहास के बारे में बता रहे हैं.

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सांची स्तूप मध्य प्रदेश के रायसेन जिले में है.

History of Sanchi Stupa: पूरी दुनिया आज बुद्ध पूर्णिमा (Buddha Purnima) मनाया जा रहा है. दुनिया भर के अलग-अलग देश अपने-अपने तरीके से इस पर्व को मनाते हैं. आज हम आपको बौद्ध धर्म (Buddha Dharma) से जुड़ी उन भारतीय धरोहरों के बारे में बताएंगे, जो बौद्ध धर्म के लिए एक खास महत्व रखती हैं. जब भी बौद्ध धर्म की बात आती है तो सबसे पहला नाम सांची स्तूप का आता है. करीब ढाई हजार साल पुराने सांची के स्तूप और विदिशा (Vidisha) की उदयगिरी की गुफाएं (Udaygiri Caves) आज भी बौद्ध धर्म की विरासत की याद दिलाती हैं. कई देशों के साथ सांची में बौद्ध पूर्णिमा के दिन विशाल पूजा का आयोजन किया जाता है, यह पूजा सांची स्तूप के पहाड़ी पर बने बौद्ध मंदिर में की जाती है. इस पूजा को श्री लंका महाबोधि सोसायटी के भत्ते द्वारा कराई जाती है. इस पूजा में शामिल होने दूरदराज से लोग आते हैं. 

सांची स्तूप आज भी बौद्ध धर्म की दिलाते हैं याद

सांची स्तूप बौद्ध कला और वास्तुकला के लिए जाने जाते हैं, जिनमें मठ और एकात्म मंदिर भी शामिल हैं. सांची स्तूप का हर एक पत्थर अपनी कहानी खुद बयां करता है. सांची की चोटी पर स्थित यह स्तूप हरे भरे परिदृश्य के बीचो बीच खड़ा है, जो भोपाल से महज 40 किलोमीटर और विदिशा से मात्र 8 किलोमीटर की दूरी पर है. तीसरी सदी ईसा पूर्व में सम्राट अशोक ने इस स्तूप का निर्माण कराया था, जो कलिंग युद्ध के बाद उनके ह्रदय परिवर्तन का प्रतीक माना जाता है. बता दें कि कलिंग युद्ध के बाद सम्राट अशोक ने बौद्ध धर्म अपना लिया था. गोलाकार की तरह स्तूप के अंदर भगवान बुद्ध के अवशेष रखे हुए हैं जो बौद्ध धर्म में आस्था मानने वालो का बड़ा केंद्र माना जाता है.

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सांची स्तूप बौद्ध धर्म के लिए बड़ी आस्था का केंद्र माना जाता है.

सम्राट अशोक ने कराया था 84 हजार स्तूपों का निर्माण

बताया जाता है कलिंग युद्ध के बाद सम्राट अशोक को इतना आघात पहुंचा कि उन्होंने अपना राज पाठ सब त्याग कर दिया था. सम्राट अशोक ने बौद्ध के रास्ते पर चलने का संकल्प लिया और बौद्ध धर्म को अपना लिया था. धर्म के प्रचार के लिए सम्राट अशोक ने दुनिया भर में 84 हजार स्तूपों का निर्माण कराया, जिसमें से सबसे पहले नंबर का स्तूप सांची का स्तूप माना जाता है, जो आज ढ़ाई हजार साल बाद भी इसी तरह खड़ा है. 

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अभिलेखों में विदिशा का जिक्र

डॉ. व्यास के अनुसार सांची के स्तूपों के गेट पर विदिशा के हाथी दांत के कारीगरों ने नक्काशी की थी, जिसका जिक्र अभिलेखों में मौजूद है. विदिशा सहित भारत के कई दानदाताओं ने भी इसमें योगदान दिया था. स्तूपों के तोरण द्वार पर जातक कथाएं उत्कीर्ण हैं. यहां हीनयान और महायान कलाओं के दर्शन होते हैं. हीनयान में प्रतीक पूजा और महायान में मूर्ति पूजा को महत्व दिया जाता था.

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खंडहर और मलबे में तब्दील थे सांची के स्तूप

आपको बता दें कि सांची के स्तूप खंडहर हो जाने के बाद मलबे में तब्दील हो गए थे, लेकिन वर्ष 1818 में इनकी फिर से खोज हुई. बाद के वर्षों में यह भारतीय पुरातत्व विभाग के अधीन आने के बाद और 1989 में विश्व धरोहर में शामिल होने के बाद यहां की सूरत ही बदल गई. अब ये स्तूप विश्व के पर्यटन स्थल पर दुनिया भर के पर्यटकों को लुभा रहे हैं. भले ही सांची रायसेन जिले का हिस्सा हो, लेकिन सम्राट अशोक के समय यह विदिशा का ही एक भाग था. जब अशोक की पत्नी देवी ने बौद्ध धर्म स्वीकार किया था तो उन्होंने सम्राट से कहकर यहां स्तूप बनवाए थे. उस समय स्तूपों की इस पहाड़ी का नाम वैदिसगिरी था, अर्थात विदिशा की पहाड़ी. यहां बने बौद्ध विहारों में ही देवी, महेंद्र और संघमित्रा रहे. बाद में स्तूपों की इस पहाड़ी का नाम काकनेय और श्रीपर्वत भी रहा, लेकिन 11-12 वीं शताब्दी में यह स्थान खंडहर में तब्दील हो गया.

सांची स्तूप विश्व विरासत स्थलों की सूची में शामिल है.

जर्नल टेलर ने पहली बार देखा था सांची स्तूप 

ब्रिटिश काल में वर्ष 1818 में भोपाल रियासत के पोलिटिकल एजेंट जनरल टेलर ने सबसे पहले देखा. इसके बाद सर्वेयर जनरल कनिंघम ने 1853 में स्तूपों और आसपास के अवशेषों का सर्वे किया. उन्होंने अपनी पुस्तक भिलसा टॉप्स को सांची के स्तूपों पर केन्द्रित कर उसमें मुरेल खुर्द, सुनारी, सतधारा और अंधेर के स्तूपों का भी सर्वे कर उसका विवरण दिया. कनिंघम ने सांची पहाड़ी पर मलबे का उत्खनन करवाया और स्तूपों को उजागर किया. उन्हें यहां स्तूप क्रमांक 3 में भगवान बुद्ध के शिष्य सारिपुत्र और महामोग्गलायन तथा स्तूप क्रमांक 2 में बौद्ध शिक्षकों की अस्थियां मिलीं, जिन्हें उन्होंने इंग्लैंड पहुंचा दिया.

जॉन मार्शल का था अहम योगदान

कनिंघम के बाद स्तूपों को व्यवस्थित करने के लिए भोपाल के नवाब ने भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के डायरेक्टर जनरल सर जॉन मार्शल से अनुरोध किया. नवाब ने मार्शल को वहां रहने के लिए बंगला भी बनवाया, जो अब भी संग्रहालय परिसर में मार्शल हाउस के नाम से मौजूद है. मार्शल ने 1912-1918 तक स्तूपों को संवारने में बहुत काम किया.

नवाब अब्दुल हमीद ने कराया बौद्ध मंदिर का निर्माण

भोपाल रियासत के नवाब अब्दुल हमीद ने स्तूपों का उत्खनन कराकर उनको संरक्षित कराया. मार्शल के बाद 1942 में भोपाल रियासत के पुरातत्ववेत्ता अब्दुल हमीद ने बौद्ध विहार का उत्खनन कराया और यह प्रमाणित किया कि सम्राट अशोक की पत्नी देवी यहीं रहा करती थीं. सांची की ख्याति श्रीलंका तक पहुंची और भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू और महाबोधि सोसायटी श्रीलंका ने इंग्लैंड से अनुरोध किया कि सांची से इंग्लैंड ले जाई गईं सारिपुत्र और महामोग्गलायन की अस्थियां वापस की जाए. 1952 में ये अस्थियां सांची वापस आईं और भारत तथा श्रीलंका के सहयोग से बने मंदिर में इन्हें रखा गया. इन अस्थियों को हर साल पूजा और दर्शन के लिए नवंबर माह में निकाला जाता है.

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