Mahaparinirvan Diwas 2025: महापरिनिर्वाण दिवस; स्वतंत्र भारत को लेकर क्या थीं डॉ बीआर अम्बेडकर की चिंताएं

Mahaparinirvan Diwas: आज़ादी के इतने वर्षों के बाद देश के सामाजिक-राजनैतिक हालात देखकर लगता है कि उनकी चिंताएं और आशंकाएं गैरवाजिब नहीं थीं. डॉ. अम्बेडकर की चिंता थी कि क्या इतिहास स्वयं को दोहराएगा? उन्होंने कहा कि अगर हम जाति और धर्म को देश से ऊपर रखेंगे तो इसमें शक नहीं कि एक बार फिर हमारी स्वतंत्रता खतरे में पड़ जाएगी.

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Mahaparinirvan Diwas 2025: महापरिनिर्वाण दिवस; स्वतंत्र भारत को लेकर क्या थीं डॉ बीआर अम्बेडकर की चिंताएं

Mahaparinirvan Diwas 2025: आज डॉ बीआर अम्बेडकर का महापरिनिर्वाण दिवस है. समाज का एक बड़ा तबका उन्हें भारतीय संविधान का निर्माता मानता है. वहीं एक और बात बहुत प्रचलित है कि भारतीय संविधान विदेशी संविधानों की नकल है. ऐसा कहने वाले संविधान निर्माण में अम्बेडकर की भूमिका को कम करके दर्शाना चाहते हैं. ऐसे भ्रमों को स्वयं अम्बेडकर ने दूर किया है. भारतीय संविधान की मसौदा समिति के अध्यक्ष डॉ. बी.आर. अम्बेडकर को अक्सर संविधान निर्माता कहा जाता है. परंतु सच तो यह भी है कि वह संविधान सभा के सलाहकार बी.एन.राऊ, मसौदा समिति के सदस्यों तथा संविधान के मुख्य मसौदाकार एस.एन. मुखर्जी के योगदानों के लिए उनके शुक्रगुजार थे. यह बात तो सभी जानते हैं कि डॉ. भीमराव अम्बेडकर संविधान सभा की उस समिति के सभापति थे, जिसने भारतीय संविधान के दूसरे प्रारूप को तैयार किया. पहला प्रारूप सांविधानिक परामर्शदाता बी. एन. राऊ द्वारा तैयार किया गया था.

डॉ अम्बेडकर का अपने स्तर पर तैयार किया गया संविधान

डॉ. अम्बेडकर ने संवैधानिक प्रावधानों और शब्दों को अर्थ देने में बेहद महत्वपूर्ण भूमिका निभाई लेकिन एक बात जो ज्यादा लोग नहीं जानते हैं वह यह है कि वे भारतीय संविधान पर अपने स्तर पर पहले से काम कर रहे थे. उन्होंने वर्ष 1945 में अनुसूचित जाति फेडरेशन (जिसकी स्थापना 1940 के दशक के आरंभ में उन्होंने स्वयं की थी) के लिए स्टेट्स एंड माइनॉरिटीज़ (राज्य और अल्पसंख्यक/अल्पमत) नामक दस्तावेज तैयार किया था. संविधान के रूप में ही लिखे गये इस दस्तावेज का मुख्य उद्देश्य अनुसूचित जाति समुदाय के लिए सुरक्षा तंत्र के विकल्प प्रस्तुत करना था. 

उनका मानना था कि भारत को पूर्ण स्वराज्य मिल जाने के बाद भी समाज के भीतर छुआछूत, भेदभाव, शोषण और असमानता बनी रहेगी क्योंकि स्वतंत्र होने के बाद भारत की शासन व्यवस्था पर उन लोगों और समूहों का आधिपत्य होगा, जो जातिवादी, वर्ण और लैंगिक भेद आधारित साम्प्रदायिक स्वभाव रखते हैं. यही कारण है कि उन्होंने 1945 के अपने प्रस्तावित संविधान में ब्रिटिश शासित भारत की ही संकल्पना की थी. ऐसा नहीं है कि वे भारत की स्वतंत्रता के खिलाफ थे, सच तो यह है कि उन्हें ब्रिटिश शासन से मुक्ति मिलने के बाद के भारत के भीतर बनने वाले हालातों का अंदाजा था. उन्हें लगता था कि ब्रिटिश सरकार के माध्यम से सामाजिक-आर्थिक बदलाव लाना संभव होगा.

संविधान के क्रियान्वयन को लेकर भी उनकी दृष्टि एकदम स्पष्ट थी. वह मानते थे कि किसी संविधान का क्रियान्वयन पूरी तरह संविधान की प्रकृति पर निर्भर नहीं करता है. संविधान सभा में दिए अपने अंतिम भाषण में उन्होंने कहा था, “मैं यह महसूस करता हूं कि संविधान चाहे जितना बेहतर हो, अगर उसे लागू करने वाले लोग गलत हुए तो वह बुरा संविधान साबित होगा. इसी तरह एक संविधान चाहे जितना बुरा हो लेकिन अगर उसे लागू करने वाले लोग अच्छे हुए तो वह अच्छा संविधान साबित होगा.” उनका मानना था कि संविधान विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के रूप में राज्य को एक ढांचा और कुछ अंग प्रदान कर सकता है लेकिन इन अंगों को काम करने के लिए जिन कारकों की जरूरत है, वे हैं जनता और ऐसे राजनीतिक दल जिन्हें अपनी इच्छाओं और राजनीति को पूरा करने के लिए वे साधन के रूप में प्रयोग में लाएंगे. 

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संसदीय लोकतंत्र के पैरोकार

डॉ. अम्बेडकर ने संविधान सभा के अपने अंतिम भाषण में संविधान की आलोचना के बारे में भी विस्तार से बात की. उन्होंने कहा कि संविधान की आलोचना करने वालों में कम्युनिस्ट पार्टी और सोशलिस्ट पार्टी प्रमुख रहे हैं. वास्तव में इन दोनों दलों ने संविधान की आलोचना क्यों की? क्या उन्हें भारतीय संविधान दुनिया के अन्य देशों के संविधानों की तुलना में कमजोर प्रतीत हो रहा था?  वास्तव में कम्युनिस्ट पार्टी एक ऐसा संविधान चाहती थी जिसमें सर्वहारा का दबदबा हो. कम्युनिस्ट पार्टी को संसदीय लोकतंत्र पर आधारित संविधान रास नहीं आ रहा था. वहीं डॉ. अम्बेडकर के मुताबिक सोशलिस्ट पार्टी एक ऐसा संविधान चाहती थी जो उन्हें बिना कोई हर्जाना चुकाए निजी संपत्ति के राष्ट्रीयकरण की छूट दे. इसके अलावा समाजवादी धड़ा चाहता थाकि संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकारों पर कोई बंधन लागू नहीं हो.

डॉ. अम्बेडकर ने कहा कि वह यह नहीं कहते कि संसदीय लोकतंत्र का सिद्धांत राजनीतिक लोकतंत्र के लिए एकमात्र आदर्श व्यवस्था है. संविधान सभा में हुई सार्थक चर्चाओं को लेकर अम्बेडकर की राय हमें जरूर यह बताती है कि वह इस व्यवस्था के हामी थे. उन्होंने अपने भाषण में कहाथा, “अगर इस संविधान सभा में हर सदस्य या हर समूह का अपना एक कानून होता तो चारों ओर अफरातफरी का माहौल होता. तब मसौदा समिति का कार्य बहुत कठिन हो जाता.”

उन्होंने संविधान सभा में असहमति का स्वर रखने वाले सदस्यों को भी रेखांकित किया और कहा, “खुशकिस्मती से संविधान सभा में कुछ विद्रोही स्वभाव के लोग भी रहे. इनमें श्री कामथ, डॉ. पीएस देशमुख, श्री सिधवा, प्रोफेसर शिब्बनलाल सक्सेना, प्रोफेसर के.टी. शाह, पंडित हृदय  नाथ कुंजरू और पंडित ठाकुर दास भार्गव जैसे लोग शामिल हैं.” उन्होंने खुले दिल से कहा कि अगर मैं उनके सुझावों को शामिल करने को तैयार नहीं था तो इसका यह मतलब नहीं कि संविधान सभा में उनकी सेवाओं के मूल्य को कम करके आंका जाए. मैं उन सभी का शुक्रगुजार हूं. 

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आज़ाद भारत की तकदीर

भारत के भविष्य के बारे में उन्होंने कहा, “भारत एक स्वतंत्र देश बन गया है. उसकी स्वतंत्रता का क्या होगा. वह बरकरार रहेगी या फिर वह उसे दोबारा गंवा देगा? ऐसा नहीं है कि भारत कभी स्वतंत्र देश था ही नहीं. सवाल तो यह है कि एक बार आज़ादी गंवाने के बाद क्या वह दोबारा उसे गंवा सकता है? यह प्रश्न मुझे बहुत अधिक बेचैन करता है. ज्यादा बेचैन करने वाली बात यह है कि भारत ने अपनी आजादी अपने ही लोगों की धोखेबाजी और गद्दारी के कारण गंवाई. सिंध में मोहम्मद बिन कासिम के हमले के समय राजा दाहर के सेनापतियों ने मोहम्मद बिन कासिम के लोगों से रिश्वत ली और अपने राजा का साथ छोड़ दिया. जयचंद ने पृथ्वीराज पर हमले के लिए मोहम्मद गोरी को बुलाया. जब शिवाजी हिंदुओं की आजादी के लिए लड़ रहे थे तब अन्य मराठा और राजपूत राजा मुगल बादशाहों की ओर से लड़ रहे थे.” उनकी चिंता थी कि क्या इतिहास स्वयं को दोहराएगा? उन्होंने कहा कि अगर हम जाति और धर्म को देश से ऊपर रखेंगे तो इसमें शक नहीं कि एक बार फिर हमारी स्वतंत्रता खतरे में पड़ जाएगी.

स्वतंत्र भारत को लेकर अम्बेडकर की चिंताएं

सच तो यह भी है कि डॉ. अम्बेडकर के मन में स्वतंत्र भारत के हालात को लेकर भी कुछ चिंताएं थीं. उनका मानना था कि भारत को पूर्ण स्वराज्य मिल जाने के बाद भी समाज के भीतर छुआछूत, भेदभाव, शोषण और असमानता बनी रहेगी क्योंकि स्वतंत्र होने के बाद भारत की शासन व्यवस्था पर उन लोगों और समूहों का आधिपत्य होगा, जो जातिवादी, वर्ण और लैंगिक भेद आधारित साम्प्रदायिक स्वभाव रखते हैं. ऐसा नहीं है कि वे भारत की स्वतंत्रता के खिलाफ थे बल्कि उन्हें ब्रिटिश शासन से मुक्ति मिलने के बाद के भारत के भीतर बनने वाले हालातों का अंदाजा था. उन्हें लगता था कि ब्रिटिश सरकार के माध्यम से सामाजिक-आर्थिक बदलाव लाना संभव होगा.

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आज़ादी के इतने वर्षों के बाद देश के सामाजिक-राजनैतिक हालात देखकर लगता है कि उनकी चिंताएं और आशंकाएं गैरवाजिब नहीं थीं. दुर्भाग्यवश हम उन्हें गलत साबित नहीं कर सके और इतने वर्ष बाद भी देश में छुआछूत, शोषण और असमानता जैसी समस्याएं बरकरार हैं. अगर हम इन समस्याओं को दूर करके बंधुता और न्याय के मार्ग का पालन करने वाला देश बना सके तो यही डॉ. अम्बेडकर के प्रति हमारी सच्ची श्रद्धांजलि होगी.

इस लेख के लिए संविधान संवाद टीम का विशेष आभार.

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